गर्मियाँ आ गयीं दादा..
और तुम्हारी याद भी
मुझे याद हैं सारी बातें
जब हम आते थे गाँव
तुम्हारे पास..|
तड़के चार बजे उठकर,
बबूल से तोड़कर लाते थे तुम
ताज़ी दातौन
और पत्थर से उसे मारकर
मेरे लिए बनाते थे
अनोखा टूथब्रश!
मुझे पीने को कहते थे
कच्चा दूध
सीधे भैंस के थन से मुँह लगाकर!
और रात को आँगन में
खटिया पर लेटे
सिखाया करते थे
सप्तऋषि से समय देखना..
मुझे पता है
दो महीने पहले से ही
भूसे में दबाकर रखते थे तुम
कच्चे सीताफल
कि जब पक जाएँ
तो खिला सको मुझे!
उस "संतरे की गोली"
और "अनारदाने" का स्वाद लेना
तुमने ही सिखाया था मुझे!
शहर में "फ़ाइवस्टार" की माँग करने वाला मैं
संतुष्ट रहता था
तुम्हारी पाँच पैसे की "गटागट" से!
और माँ यह देख
रह जाती थी भौंचक्की
कि सिर्फ़
आलू की सूखी सब्जी खाने वाला मैं
बिना नखरे दिखाए,
कैसे खा लेता हूँ
तुम्हारे साथ
ज्वार की चुपड़ी रोटी!
ताई कहा करती थी माँ से
"बब्बाजी" बिगाड़ देंगे "बिट्टू" को
देख तो..
दिन भर उठाए फिरते हैं धूप में
काला हो जाएगा तेरा लड़का!
और माँ बस हंस दिया करती थी..
गाँव में सबको बताते थे तुम
कि मेरा पोता
जानता है अँग्रेज़ी पढ़ना
और हमेशा आता है अव्वल!
तुम्हारा सीना..
गर्व से चौड़ा हो जाता था
जब सबके सामने
तोतली ज़बान में
धाराप्रवाह बोलता था मैं
रामायण की चौपाईयाँ,रुद्राष्टक,दुर्गा चालीसा
और महाभारत की कहानियाँ..
अपनी गोद में उठाकर
तुम चूम लेते थे मुझे!
सच..
बहुत बुरे लगते थे तब
जब गीला कर देते थे
यूँ मेरा गाल!
दादा.. देखो ये बैल उदास हैं
चारा सूंघते भी नहीं अब
तुम्हारे हाथ का स्पर्श
खूब जानते हैं ये!
देखो..
उतर गया है भैंसों का दूध
आकर बाँध दो कोई काला धागा
मुझे फिर से लगाना है
इनके थन में अपना मुँह!
देखो..खेत की मोटर
खड़-खड़ कर रही है
रो रही है शायद!
वो कछुआ..
जो तुमने डाला था कुएँ में
गहराई में चला गया है
ऊपर दिखता ही नही अब!
तुम आते थे हमारे घर
शहर..
साल में एक बार
पितरों को अर्घ्य देने
मेरे मेहमान होते थे तुम
तुम्हारी अंगुली पकड़,
घुमाता था तुम्हें,
नर्मदा किनारे के सारे मंदिर!
मेरे हाथों को संभाल
तुमने ही तो तो सिखाया था
कैसे देते हैं पितरों को जल..
आज..
उसी घाट पर,उसी जगह,
कमर तक पानी में,
खड़ा हूँ मैं
ढूँढ रहा हूँ तुम्हें..
लाल सूरज के अंदर!
मेरी अंजुरी से..
गिर रहा है जल
पितरों के लिए!
देखो..
जाने क्या हो गया है मुझे
यूँ जल देते वक़्त,
पहले तो
कभी नहीं गिराए मैनें आँसू!
दादा..
माफ़ करना मुझे,
मजबूर हूँ..
ये खारा जल
तुम स्वीकार करोगे ना?
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
17 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत अच्छी कविता प्रस्तुत किया है, जिन का उल्लेख आपने किया है विपुल जी अगर इनकी कमी जीवन में होती है तो जीवन अधूरा सा लगता है।
कुछ लोग है जो दादा दादी और परिवार जन को अहमिलयत नही देते है, जिनके पास यह अकूत सम्पदा नही होती है वही इनका महत्व जानते है। आपकी जितनी भी तारीफ करूँ कम होगी बधाई
bahut hi sundar,bachpan mein gaon jate thay,wo sari baatein yaad dila di is kavita ne,bahut badhai.
हिन्दयुग्म पर अब तक पढी सर्वश्रेष्ठ कविताओं में से एक है आपकी रचना....
विपुल, आपने पितृ-दिवस पर अपने परिपक्व होने का सबूत दे दिया...ये आपकी सर्वश्रेष्ठ कविता लगी....इस विशेषांक की सभी कविताओं पर भारी पड़ी आपकी कविता...
हाँ, एक बात और, आपके बचपन ने मुझे मेरे बचपन की याद दिला दी...कुछ-कुछ आपके जैसा ही था..
सच, कविता जितनी ज्यादा सहजता से लिखी जाए और जितने ज्यादा अनुभव उडेले जाएँ, उतनी निखर आती है....सब कुछ जीवंत हो उठा...
गाय के थन में हमने भी मुंह लगाकर खूब दूध पिया है...
और क्या कहूँ..आपने मुझे भावुक कर दिया...आंखों के आगे स्वर्गीय दादा-दादी याद आ गए..
सप्रेम,
निखिल
आरंभ में मुझे साधारण कविता लग रही थी कि स्मृतियों को सुन्दर शब्द मिले हों, किंतु अंतिम पंक्तियों नें स्थापित किया कि यह कलम असाधारण है, वाह विपुल...बहुत खूब..
माफ़ करना मुझे,
मजबूर हूँ..
ये खारा जल
तुम स्वीकार करोगे ना?
***राजीव रंजन प्रसाद
कभी नहीं गिराए मैनें आँसू!
दादा..
माफ़ करना मुझे,
मजबूर हूँ..
ये खारा जल
बहुत ही सुंदर विपुल जी |पितृ दिवस की हार्दिक बधाई
विपुल जी ,
पिता दिवस पर सर्वश्रेष्ठ कविता लगी आपकी . निखिल जी की तरह मैं भी यही कहूँगी कि मुझे मेरे स्वर्गीय दादा दादी याद आ गए . बहुत प्यार करते थे वो हमसे और हम भी उन्ही के साथ खाना खाया करते थे , उनके जाने के बाद जो रिक्तता आई वो आज तक नहीं भर पाई है . आज आपकी कविता ने बस रुला ही दिया .
^^पूजा अनिल
रुला दिया विपुल और क्या कहूँ!!
पिता पर आधारित कविताओं में गौरव जी की 'पिता से' के बाद अब भावुक हुआ हूँ। आपकी सर्वोत्तम कविताओं में से एक।
लाजवाब विपुल भाई...
बहुत कुछ याद आ गया..
sahmat hoon....sare comments se.....ek dil ko halka kar dene wali kavita
यद्यपि एक पद्य है, लेकिन किसी उपन्यास जैसा विस्तार अर्थ संजोये है |
एक और उताम रचना आपकी कलम से |
बधाई
अवनीश तिवारी
achchi kavita.
विपुल--
पढ़ना शुरू किया तो लगा कविता है---पढ़ते-पढ़ते कहानी सी लगी------पूरा पढ़ा तो लगा ---कोई ऐसा उपन्यास पढ़ लिया जिस की पटकथा मेरे ही इर्द-गिर्द घूमती है।--------वाह।-------देवेन्द्र पाण्डेय।
bahut khoobsurati se apni yaado ko shabd diye hain aapne.
Anu
ek pyaari si yaad,usme chhupe bachpan ko aapne sundar shabdon ke sang jivant kar diya........aankhon me un sapno ko jagane ke liye shukriyaa...........
sir bahut pyari kavita likhi hai sach much DADAji yaad aa gaye...............gaau gaye bahut din ho gaye the aap ne yaad dila di gaau ki..............
कभी नहीं गिराए मैनें आँसू!
दादा..
माफ़ करना मुझे,
मजबूर हूँ..
ये खारा जल
विपुल जी बहुत ही सुन्दर लिखा है, मेरे अंतर मन को छू गई आपकी पंक्तियाँ...........
आपकी ये रचना अपने आप में सम्पूर्णता लिये हुये है, पित्र दिवस पर पितरों को
इससे अच्छी आदरांजलि और क्या होगी, आप एक युवा और प्रयोगवादी कवि
है, और आपका ये प्रयोग भी बहुत कमाल है.... आप कि कल्पना शक्ति अदभुद है,
जिसमे रचनात्मकता और कलात्मकता सामान रूप से है, एक अच्छी रचना के लिये
आप पुनः बधाई के पात्र है.....................................................
शुभेच्छा..........................................................- नितिन शर्मा
yeh apki srasresth rachana hai .......
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