अप्रैल माह की प्रतियोगिता से हम १० की जगह ११ कविताएँ प्रकाशित कर रहे हैं क्योंकि १०वें और ११वें स्थान की कविताओं के प्राप्ताकों में बहुत कम अंतर है। ११वें स्थान पर पिछले ६-७ महीनों से यूनिकवि प्रतियोगिता में भाग ले रहे और लगातार प्रकाशित हो रहे कवि हैं विनय के॰ जोशी।
पुरस्कृत कविता- तरक्की
हुबहू जिस्म जैसी
मशीन बनाना
जटिल और खर्चीला था
इसलिए जिस्म को ही
मशीन बनाना
तय किया गया
पहले चरण में
नंगेपन से
पाबन्दी हटाई गई
अवाम हक्का-बक्का
शहर बदहवास
निगाहें निगरा की
हवाइयां उड़ी हुई
एक युवक
बाज़ार में दिगम्बर दौड़ा
फ़िर एक तन्वी भी
दफ़न था जो जहन में
हरकत में आने लगा
शर्मीले खुलकर बतियाने लगें
खवातीन गहने की तरह
नंगापन सजाने लगीं
बुजुर्ग ज़माने को
कोसते-खासते
मजा लेने लगें
इसतरह नंगापन
जिस्म पर ही नहीं
रूह में भी पसरता चला गया
अब नंगापन
आम बात है
और जमाना मुकम्मल
तरक्की की राह पर है |
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७, ७॰०५, ५॰८, ७॰४
औसत अंक- ६॰८१२५
स्थान- प्रथम
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५॰५, २॰६, २, ६॰८१२५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ४॰२२८१२५
स्थान- ग्यारहवाँ
पुरस्कार- डॉ॰ रमा द्विवेदी की ओर से उनके काव्य-संग्रह 'दे दो आकाश' की स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
शानदार व्यंग है।
जानदार व्यंग है।
ग्याहरवें स्थान पर!
व्यंगकार दंग है।
यदि यह कविता छपने से रह जाती तो सचमुच कवि का दिल कहता----
--बहुत बेइंसाफी है यह।---देवेन्द्र पाण्डेय।
गंभीर रचना है.....मुझे पढ़कर अच्छा लगा....विनय जी लगातार अच्छा लिख रहे हैं.
bahut hi badhiya,bahut badhai
अच्छा व्यंग्य है...आपको बहुत-बहुत बधाई विनय जी...
वाह ! एक जबरदस्त व्यंग्य
सटीक लिखा है..
बहुत बहुत बधाई
गजब का व्यंग प्रस्तुत किया है आपने.
आलोक सिंह "साहिल"
शानदार ...
जबर्दस्त व्यंग्य है...
दफ़न था जो जहन में
हरकत में आने लगा
शर्मीले खुलकर बतियाने लगें
खवातीन गहने की तरह
नंगापन सजाने लगीं
बुजुर्ग ज़माने को
कोसते-खासते
मजा लेने लगें
बहुत जानदार व्यंग्य है विनय जी!
अब नंगापन
आम बात है
और जमाना मुकम्मल
तरक्की की राह पर है |
कविता असाधारण है, बहुत खास अंदाज का व्यंग्य है जो चुभता भी है, चोट भी करता है और मन में गहरे भी उतरता है..
***राजीव रंजन प्रसाद
बहुत ही अच्छा ओब्सेर्वेशन है !! बधाई
दिव्य प्रकाश
विनय जी ,
आपकी कविता और उसमें छिपा व्यंग्य , दोनों ही सार्थक लगे.
बहुत पहले इसी विषय से जुडा हुआ एक लेख पढ़ा था ,जिसमें लेखक का कहना था कि इंसान जब पैदा होता है तो नग्न ही पैदा होता है , ये कपड़े और शर्म मनुष्य ने ही उपजाए हैं ,पहले इंसान सर्दी से बचने के लिए पहनने लगा फ़िर तन ढकना ,शर्मिंदगी से बचने के लिए जरूरी हो गया. आज भी दुनिया में ऐसे कई कबीले हैं जो वस्त्रहीनता को नग्नता नहीं मानते .
मैं जानती हूँ आपकी कविता का सन्दर्भ वो लेख नहीं है परन्तु यह कविता पढ़ते हुए वो लेख याद आ गया ,बस इस लिए लिख दिया .
^^पूजा अनिल
शर्मीले खुलकर बतियाने लगें
खवातीन गहने की तरह
नंगापन सजाने लगीं
बुजुर्ग ज़माने को
कोसते-खासते
मजा लेने लगें
इसतरह नंगापन
जिस्म पर ही नहीं
रूह में भी पसरता चला गया
बहुत अच्छे विनय जी बधाई
माननीय,
देवेन्द्रजी, निखिलजी, महकजी, सुनीताजी, भुपेंद्रजी, आलोकजी, तपनजी, हरिहरजी, राजीवजी, दिव्यजी, पूजाजी, एवम सीमाजी |
स्नेह देने हेतु आभार |
सादर,
vinay
शायद नज़रिए का ही फ़र्क है, आप जिसे नंगापन सजाना कह रहे हैं, वो मेरे लिए केवल-केवल सजाना ही है। आपकी सोच यहाँ पर पुरूषवादी है। यदि आप कविता को अंत में सम्हाल लेते तो बहुत बढ़िया कविता बन जाती।
यह कविता महिला पुरूष से परे ( एक युवक बाजार मे दिगंबर दौडा) मन और तन के नंगेपन पर केंद्रित है | नंगापन यानी मन मर्यादा लिहाज और दोहरे मापदंड ...बुजुर्ग (केवल पुरूष नही) कोसते खांसते मजा लेने लगे... |
न मैं पुरूषवादी हूँ न ही इसतरह के वर्गीकरण पर विश्वास रखता हूँ | लेकिन आपको लगा तो अवश्य ही यह भाव प्रतिबिम्बित हो रहा होगा | भविष्य मे ध्यान रखा जाएगा | प्रार्थना है की मन के पूर्वाग्रह को परे रख कर कविता एक बार पुन: पढी जाय |
मार्गदर्शक टिप्पणी हेतु आभार |
सादर
विनय
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