शब्दों को बना के मिलन का सेतु
मैं अपने दिल के इस किनारे से
तेरे दिल के उस किनारे को छूती हूँ
जहाँ कोई याद जैसे
होंठो पर सिसकती..
थिरकती ,मचलती
नदी सी मुझे लगती है
और तब नयनों से जैसे
कोई बदरी बिन बरखा के बरसती है
और फ़िर यूं ही कुछ उभरे हुए
अखारों की जुबान
पूछती है एक सवाल
नही जानती किस से?
क्या मिलेगा कभी कोई जवाब मुझे
अपने ही भीतर दहकते इस लावे का
कौन हिसाब देगा मुझे?
बस जानती हूँ कि
एक जमीन ...एक आसमान
बसते है इस माटी के पुतले में भी
और मोहब्बत का जहान
एक जाल कभी बुनता है
कभी उलझता है
चाहता है सिर्फ़
यह उसी मोहब्बत का तकाजा
हमसे......
जिसका दीदार
सिर्फ़ इस कायनात के पार होता है ..
और यह सफर यूं ही अधूरा रहता है....
रंजू
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
कायनात के पार जाने क्या होगा। लकिन मुझे खुशी है कि इस कायनात में रंजूजी-आप रहतीं हैं और आपकी कविता का कोई जवाब नहीं।-------वाह----पढ़ते-पढ़ते मन हरषे----नेह नीर बरशे।-----देवेन्द्र पाण्डेय।
बहुत ही खूबसूरत भाव,अंतरंग को छु लिया ,कुछ मीठा एहसास कुछ हलकी सी चुभन ,सुंदर बधाई
vaise to mein es layak nahi ki aapki kavita ki samiksha kar sakun. par yes aapne apne andar ki baat ko shabdon mein piro kar jo mala banayi hai, vah tavajjo ki hakdar hai. padte - padte aisa laga ki aapne hamari (ek aam admi ki) kahani ko aapni kavita mein likha hai.meri shubh kaamnayen. Raj 'Acharya'
बहुत खुब!!
आपकी रचना मेरे सभी आफिस फरेन्डस को अच्छी लगी।
आपकी इस रचना मे बहुत आनन्द मिला।
मै इस रचना को अपने सभी दोस्तो को भेज रहा हूँ।
उत्तम.........
----------------------------------
विनीत कुमार गुप्ता
(दिल्ली)
रंजना जी,
रचना कोमल अहसासों को कुरेदती है। आपकी श्रेष्ठ रचनाओं में इसे शुमार करूंगा। जिन बिम्बों नें विशेष प्रभावित किया:
शब्दों को बना के मिलन का सेतु
मैं अपने दिल के इस किनारे से
तेरे दिल के उस किनारे को छूती हूँ
और तब नयनों से जैसे
कोई बदरी बिन बरखा के बरसती है
अपने ही भीतर दहकते इस लावे का
कौन हिसाब देगा मुझे?
एक जमीन ...एक आसमान
बसते है इस माटी के पुतले में भी
रचना का अंत भी अच्छा बन पडा है:
जिसका दीदार
सिर्फ़ इस कायनात के पार होता है ..
और यह सफर यूं ही अधूरा रहता है....
***राजीव रंजन प्रसाद
pawan~मे भी तो:
रंजना जी सबसे पहले आप को मे शुक्रिया कहना चाहता हूँ आप ने मेरे को जो इज्जत दी अपने दोस्तों की श्रेणी मे ला कर ....आप एक ''कायनात के पार'' ही नहीं आप का लिखा एक एक शब्द आप की लेखनी की माहनता दर्शाता है आप की यह रचना ''कायनात के पार'' का भी लफ्जो से एक एक मोती पिरो कर जो रचना नाम की माला उतारी है यह आप की लेखनी की पकड है आप जिस ही मोती सचे मोतियो की माला तेयार कर सकता है मे पवन अरोड़ा आप को यही कहता हूँ
`````` प्रेम ऐसा मजा है जो की व्याकुल कर डालता है ``````
```````````मगर व्याकुलता मजेदार है ````````````
~~~~~~~~~~~~~पवन अरोड़ा~~~~~~~~~~~~~~~~~
कविता पढ़कर ख़ुद को कायनात के पार कहीं महसूस कर रहा हूँ.अतीव आनंदकारी
आलोक सिंह "साहिल"
रंजू जी ,
बहुत ही खूबसूरत शब्दों से सजाया है आपने अपनी भावनाओं को . कुछ पंक्तियाँ बहुत ही सुंदर लगी -
शब्दों को बना के मिलन का सेतु
मैं अपने दिल के इस किनारे से
तेरे दिल के उस किनारे को छूती हूँ
जहाँ कोई याद जैसे
होंठो पर सिसकती..
थिरकती ,मचलती
नदी सी मुझे लगती है
और तब नयनों से जैसे
कोई बदरी बिन बरखा के बरसती है
शुभकामनाएँ
^^पूजा अनिल
sada ki tarah bhavuk sundar aur samaprpan se bahree huyee
Anil
और फ़िर यूं ही कुछ उभरे हुए
अखारों की जुबान
पूछती है एक सवाल
नही जानती किस से?
क्या मिलेगा कभी कोई जवाब मुझे
अपने ही भीतर दहकते इस लावे का
कौन हिसाब देगा मुझे?
दिल को छूती हुई एक सुंदर, भावपूर्ण अभिव्यक्ति, रंजू जी बधाई |
वाह् आपकी 'कायनात के पार' अपने दिल के पार हो गयी...
तुमने मेरे दिल तक पंहुंचा दीया.
बढ़िया!!
सफर अधूरे भी रह जाते और कुछ पूरे हो कर भी अधूरे रह जाते हैं।
सफर के बाद और एक सफर होता है,
सिलसिला चलता ही रहता है।
जहाँ कोई याद जैसे
होंठो पर सिसकती..
थिरकती ,मचलती
नदी सी मुझे लगती है
य़ादों का इस से बेहतरीन चित्रण नही हो सकता...बहुत खूब.
और फ़िर यूं ही कुछ उभरे हुए
अखारों की जुबान
पूछती है एक सवाल
नही जानती किस से?
क्या मिलेगा कभी कोई जवाब मुझे
अपने ही भीतर दहकते इस लावे का
कौन हिसाब देगा मुझे?
kuch aise hi ansuljhe saval hai mere pas........
रंजना जी! कुछ सफ़र अधूरे ही रहें तो ही बेहतर होता है, क्योंकि आखिरी चढ़ाई पूरी करने के बाद हमेशा ढलान होती है. और प्रेम में ढलान का अभिलाषी तो कोई भी नहीं होगा.
सुंदर रचना के लिये बधाई!
बहुत खूब रंजू जी, मज़ा आ गया, आपकी रचना ने दिल को छु लिया, ऐसी ही रचना लिखते रहना .
सुन्दर चित्रण है असमंजस में घिरे हुए दिशा तलाशने की कोशिश
बहुत सुंदर
शब्दों को बना के मिलन का सेतु
मैं अपने दिल के इस किनारे से
तेरे दिल के उस किनारे को छूती हूँ
पर यह तो कायनात में ही होता है पार का किसे पता ।
bahut hi sunder khubsurat bhaw
hi ranjuji,
kya batt hai ji ab aap kaynat kay paar bhi pahuch geai.
kya kahu srif kah sakta hu ruh ko chu gai. thanks 4 sending me to such a wounderful poem.
बस जानती हूँ कि
एक जमीन ...एक आसमान
बसते है इस माटी के पुतले में भी
और मोहब्बत का जहान
एक जाल कभी बुनता है
कभी उलझता है
चाहता है सिर्फ़
यह उसी मोहब्बत का तकाजा
हमसे......
जिसका दीदार
सिर्फ़ इस कायनात के पार होता है ..
और यह सफर यूं ही अधूरा रहता है....
रंजना जी बहुत ही सुंदर भाव व्यक्त कराती है आपकी कविता
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)