इससे पहले कि
शराब पीना
खो दे अपनी अश्लीलता
और आम हो जाए
क्रिकेट खेलने की तरह,
उसे लगने लगा है कि
उसे शुरु कर देनी चाहिए शराब।
उसने चुन ली है नीली दीवार,
उस पर लेटकर
वह खेल रहा है ‘चिड़िया उड़’,
उसे प्रेम हो गया है चिड़िया से,
वह खेल रहा है
’मत उड़ चिड़िया’,
चिड़िया को पसंद है
लाल तिनकों का घोंसला
जैसे उसे पसन्द हैं कविताएँ
या उसके पिता को पसन्द है
चाय सुड़कते हुए अख़बार पढ़ना।
यह हज़ारवीं बार है
जब वह लालकिले की एक दीवार पर
दिल बनाकर
पेंसिल से कुरेद आया है
तीर का निशान।
एक लड़की ने फूल से कहा है
कि हँस रही है वह,
फूल मुरझा गया है।
ट्रेन में हो रही है तलाशी
लालकिले पर हमला करने वाले
आतंकवादियों के लिए,
उसके पास नहीं है टिकट,
वह रो रहा है,
डिब्बे में लगा है एक शामियाना
लाल रंग का,
चिड़िया को पसंद था
लाल कालीन,
बंजी जंपिंग
और रॉक क्लाइम्बिंग।
पहाड़ों पर मुट्ठियाँ धँसाकर चढ़ती
चिड़िया के लिए
रो रहा है वह,
किसी ने आकर उसकी आँख में
रख दी है लड़की,
चिड़िया का पंख
और आँख भर तौलिये।
उसके पिता कल परसों में
दायर करने वाले हैं
ज़िला कोर्ट में अपील
कि प्रतिबन्ध लगा दिया जाए
नीले दुख वाली कविताओं पर।
और इससे पहले कि
वह अपने कबाड़ वाले कमरे में
किसी रात गिरफ़्तार कर लिया जाए
अश्लील उदास कविताएँ लिखते हुए,
ज़िन्दा रहने की आखिरी संभावना
को अवसर देने के लिए
उसे लगने लगा है कि
उसे जल्दी शुरु कर देनी चाहिए शराब।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
10 कविताप्रेमियों का कहना है :
गौरव,
तुम्हें निरंतरता से पढते हुए मैं महसूस करता हूँ कि तुम्हारे शब्द पंख फैला कर आकाश में उडने लगे हैं और परिपक्व विषयों पर चलती हुई तुम्हारी कलम एक सुधी और गंभीर रचनाकार को भी स्थापित करती है।
इससे पहले कि
शराब पीना
खो दे अपनी अश्लीलता
यहीं से गौरव की रचना स्थापित होती है। दूसरा पैरा पाठक को दिल के अलावा दिमाग लगाने पर भी विविअश करता है और बिम्ब जटिल हो जाते हैं लेकिन इसके बाद रचना एक एक शब्द में "श्लिष्ट" होती हुई अपने निष्कर्ष पर पहुँचती है तो बरबस वाह कह उठने को मन करता है..
ज़िन्दा रहने की आखिरी संभावना
को अवसर देने के लिए
उसे लगने लगा है कि
उसे जल्दी शुरु कर देनी चाहिए शराब।
***राजीव रंजन प्रसाद
राजीव रंजन प्रसाद जी से शत-प्रतिशत सहमत..
ह्म्म्म्म्म
चिड़िया को पसंद है
लाल तिनकों का घोंसला
जैसे उसे पसन्द हैं कविताएँ
या उसके पिता को पसन्द है
चाय सुड़कते हुए अख़बार पढ़ना।
यह हज़ारवीं बार है
जब वह लालकिले की एक दीवार पर
दिल बनाकर
पेंसिल से कुरेद आया है
तीर का निशान।
एक लड़की ने फूल से कहा है
कि हँस रही है वह,
फूल मुरझा गया है।
बहुत सुन्दर कविता..
गौरव जी ,
आपको जितना अधिक पढ़ती हूँ , उतना ही आपकी कविता में खो जाती हूँ , समझ नहीं आ रहा कि किन शब्दों में ख़ुद को अभिव्यक्त करूं , मेरी तो पता नहीं परन्तु आपकी अभिव्यक्ति अति सुंदर है , अलग अलग व्यंज्नाओं और कहानियो को लिए हुए , थोडी जटिल अवश्य है परन्तु अंत तक पढ़ना सुखद रहा ,
वह खेल रहा है ‘चिड़िया उड़’,
उसे प्रेम हो गया है चिड़िया से,
वह खेल रहा है
’मत उड़ चिड़िया’,
चिड़िया को पसंद है
लाल तिनकों का घोंसला
जैसे उसे पसन्द हैं कविताएँ
एक लड़की ने फूल से कहा है
कि हँस रही है वह,
फूल मुरझा गया है।
उसके पिता कल परसों में
दायर करने वाले हैं
ज़िला कोर्ट में अपील
कि प्रतिबन्ध लगा दिया जाए
नीले दुख वाली कविताओं पर।
बेहद अच्छी लगी ये पंक्तियाँ , बधाई
^^पूजा अनिल
उसने चुन ली है नीली दीवार -----
-----------------
चिड़िया को पसंद है लाल तिनके का घोंसला---
--------------------
पहाड़ों पर मुट्ठियॉं धंसाकर चढ़ती
चिड़िया के लिए
रो रहा है वह-
किसी ने आकर उसकी आंख में
रख दी है लड़की---
-----------------
उसे लगता है कि उसे जल्दी शुरू कर देनी चाहिए शराब।
---जटिल बिंब के साथ एक सफल प्रयोग।--देवेन्द्र पाण्डेय।
बिम्बात्मक अभिव्यक्ति किसी कविता की शक्ति होती है परंतु मेरे विचार में बिम्ब इतने अधिक जटिल नहीं होने चाहिये कि सामान्य पाठक की पकड़ में ही न आयें. कविता जितने अधिक लोगों को प्रभावित करे उतनी ही सफल कहलाती है और अधिक जटिल बिम्ब-प्रयोग इस प्रभाव को बढ़ाते नहीं अपितु कभी-कभी कम ही करते हैं. आशा है कि आप मेरी बात को अन्यथा न लेते हुये इस विषय में विचार करेंगे.
राजीव जी, मेरे पंख आप देख पाए, इसके लिए आभार।
प्रशांत भाई, देवेन्द्र जी और भूपेन्द्र जी, आपको भी धन्यवाद।
पूजा जी, आपकी टिप्पणियाँ हौसला बढ़ाती हैं।
अजय जी, प्रशंसा सभी को पसन्द होती है और मुझे भी है। लेकिन प्रभावित लोगों की गिनती बढ़ाने के लिए मैं कविता नहीं लिखता। मेरे लिए वह सफलता है भी नहीं। यदि एक भी व्यक्ति पर उतना प्रभाव होता है, जितना मैंने लिखते हुए चाहा था तो मुझे वह कविता सफल लगती है।
साथ ही विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूं कि जटिल बिम्ब या कैसे भी बिम्ब जानबूझ कर नहीं डाले जाते। कविता की भावनात्मक और वैचारिक जरूरत
अपने माध्यम तय करती है।
जब भी आपको पढता हूँ,लगता hai कुछ अलग कहूँगा इसबार पर हर बार हार जाता हूँ,एक बार फ़िर बेहतरीन
आलोक सिंह "साहिल"
Samjh nahi aa raha ki kya likhun ...
aisa kuch b nahi laga ki nadi k bhaw mein bahne jaisa mahsoos ho sake ..
Kahin b koi Flow laga hi nahi....
aalochana uddeshya nahi hai parantu apni baat ko rakhna uddesya hai ...
darshan
गौरव जी आप ऐसे बिम्ब आप चुनते कहा से है......:)?बहुत ही सुंदर कविता
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)