सातवें स्थान के कवि अक्षय शर्मा पहली बार शीर्ष १० में अपनी जगह बना पाये हैं। अक्षय कुमार शर्मा अलीगढ़ के पास के एक क़स्बा गवाँ, जिला बदायूं के निवासी हैं। ये सनोफी-अवेंतिस फार्मा कम्पनी में प्रतिनिधि के तौर पर कार्यरत हैं। कविता लिखना इनका शौक है और इस अपनी जिंदगी में एक नयापन महसूस करते हैं। ये हिन्द-युग्म के आभारी हैं जिसने हिन्दी भाषा के प्रोत्साहन के लिए एक सशक्त माध्यम का निर्माण किया है। साथ ही इनका यह प्रयास रहेगा कि ये हिंद युग्म के माध्यम से अपनी कविताओं को आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर सकें।
पुरस्कृत कविता- ग़ज़ल
हर सुबह हर शाम से सीखो तो सीखो ये सबक
जिन्दगी बिन चाँद और सूरज के भी रुकती नहीं
गर कोई झुकता है आज तुच्छ न समझो उसे
फूल और फल के बिना एक शाख भी झुकती नहीं
नींव के पत्थर को मत समझो कि वो है दब गया
मंजिलें बुनियाद के बिन भी कभी टिकती नहीं
हारता है जो जहाँ में समझो मत हारा उसे
हार के बिन जीत की रौनक कभी दिखती नहीं
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ६, ५॰२, ६॰५
औसत अंक- ५॰९२५
स्थान- छठवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ५, ४, ५॰९२५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ४॰७३१२५
स्थान- सातवाँ
पुरस्कार- डॉ॰ रमा द्विवेदी की ओर से उनके काव्य-संग्रह 'दे दो आकाश' की स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
बेहद ख़ूबसूरत रचना के लिए बधाई ...
हिंद युग्म पे आपका स्वागत है !!
दिव्य प्रकाश
अक्षय जी,
बहुत ही प्रभावी कथ्य ले कर आप उपस्थित हुए है।
गर कोई झुकता है आज तुच्छ न समझो उसे
फूल और फल के बिना एक शाख भी झुकती नहीं
नींव के पत्थर को मत समझो कि वो है दब गया
मंजिलें बुनियाद के बिन भी कभी टिकती नहीं
वाह!!!
***राजीव रंजन प्रसाद
aबहुत सही | छोटी , सुंदर रचना |
- अवनीश तिवारी
वाह अक्शय भाई, बहुत खूब...
"नींव के पत्थर को मत समझो कि वो है दब गया
मंजिलें बुनियाद के बिन भी कभी टिकती नहीं "
ऐसे ही लिखते रहिये,हिन्द्युग्म आपका स्वागत करता है...
धन्यवाद,
तपन शर्मा
हारता है जो जहाँ में समझो मत हारा उसे
हार के बिन जीत की रौनक कभी दिखती नहीं
अक्षय जी बहुत अच्छी लगी यह पंक्तियाँ |बधाई
अक्षय जी
बहुत सुन्दर गज़ल लिखी है आपने-
नींव के पत्थर को मत समझो कि वो है दब गया
मंजिलें बुनियाद के बिन भी कभी टिकती नहीं
वाह
गर कोई झुकता है आज तुच्छ न समझो उसे
फूल और फल के बिना एक शाख भी झुकती नहीं
हारता है जो जहाँ में समझो मत हारा उसे
हार के बिन जीत की रौनक कभी दिखती नहीं
वैसे तो पूरी गजल ही सुन्दर है, पर ये दो शे'र दिल को छू गये..
और एक बात और है ये गजल शे'र से शुरु हुई है इस मे मतला नही है क्या मै सही हूँ ?
एक बात और है अंतिम शे'र मे दिखती की वजह से काफिया बिगड गया।
सुमित भारद्वाज।
क्योकि यहा पर काफिया कती था जो अंत मे खती हो गया
akshay ji,ham aapki jitni tarif karein utni hi kam hogi,lajwaab rachna.badhai swikar karein
ALOK SINGH "SAHIL"
डा. रमा द्विवेदी said...
अक्षय जी,
बहुत खूब लिखते हैं आप...ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगी....सातवां स्थान पाने के लिए हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं...
नींव के पत्थर को मत समझो कि वो है दब गया
मंजिलें बुनियाद के बिन भी कभी टिकती नहीं
हारता है जो जहाँ में समझो मत हारा उसे
हार के बिन जीत की रौनक कभी दिखती नहीं
"हर सुबह हर शाम से सीखो तो सीखो ये सबक
जिन्दगी बिन चाँद और सूरज के भी रुकती नहीं "
... बहुत सुंदर , लिखते रहिएगा !
बहुत अच्छी रचना है. मैं ग़ज़ल की तकनीक के बारे मैं जानकारी नहीं रखता पर मुझे आपकी ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी.
अक्षय जी ,
बहुत खूब लिखा है,
गर कोई झुकता है आज तुच्छ न समझो उसे
फूल और फल के बिना एक शाख भी झुकती नहीं
नींव के पत्थर को मत समझो कि वो है दब गया
मंजिलें बुनियाद के बिन भी कभी टिकती नहीं
बहुत अच्छा लगा आपकी रचना पढ़कर , बधाई
^^पूजा अनिल
अक्षय जी!
आपने एक महान दर्शन को बहुत खूबसूरती से ग़ज़ल में पिरोया है. ऐसे ही लिखते रहें.
नींव के पत्थर को मत समझो कि वो है दब गया
मंजिलें बुनियाद के बिन भी कभी टिकती नहीं
हारता है जो जहाँ में समझो मत हारा उसे
हार के बिन जीत की रौनक कभी दिखती नहीं
बहुत ही ख़ूबसूरत,बधाई
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