चौथे स्थान की कवयित्री रेनू जैन वारविक, रोड आइलैंड (संयुक्त राज्य अमेरिका) में रहती हैं और सात समुन्दर पार से हिन्द-युग्म को पाठक के रूप में अपनी ऊर्जा देने वाली नई नवेली पाठिका हैं। इन्होंने महाराजा सयाजिराओ यूनिवर्सिटी, बड़ौदा (गुजरात) से भौतिक शास्त्र में एम.एस.सी. की पढ़ाई की है। साहित्य केवल स्कूल में पढ़ा, सदा से विज्ञान की छात्रा रही हैं। किन्तु कविताओं में रुचि सदैव से रही। साहित्य पढ़ने और जानने की बेहद इच्छा है। कविता लेखन कॉलेज के समय से ही कर रही हैं। मुम्बई में कवि-सम्मेलनों में भाग लिया है। नारी-दशा के प्रति काफी संवेदनशील हैं। इनकी अधिकतर कविताओं में नारी की दयनीय स्थिति एवं उनका अपने परिवार के लिए अथाह प्रेम झलकता है। इनका मानना है की साहित्य यदि आम लोगों तक पहुंचाना है, तो इसे आम लोगों की भाषा में ही पहुँचाना होगा।
पुरस्कृत कविता- बस कभी-कभी
प्रियम,
तुम मेरे अन्दर छुपी
उस सोलह साल की
अल्हड़, नादान लड़की को
क्यों नहीं देख पाते,
जो कभी-कभी तुमसे
बढ़ती उम्र के
पके बालों-सा
परिपक्व प्रेम नहीं,
बल्कि
कच्ची उम्र का
वो पहला
मदमस्त प्यार चाहती है,
जो मेरे
सिसकते सपनों को
फिर एक बार
सतरंगी रंगों से सजा दे,
जो मुझे
पंख फैला कर उड़ने को
खुला आसमान दे,
और
अपने-आप से ही
फिर
प्यार करना सिखा दे।
प्रियम,
मैं जानती हूँ,
अब हमारी वो उम्र नहीं रही,
मगर फिर भी,
तुम मेरे अन्दर छुपी
उस सोलह साल की
अल्हड़, नादान लड़की को
क्यों नहीं देख पाते
जो कभी-कभी चाहती है,
कि तोड़ कर सारे बंधन उम्र के,
एक बार तुम भी
चुरा कर कुछ लम्हे ज़रा वक़्त से
बचाकर दोस्तों से नज़र,
मेरी ओर देखो
यूँ शरारत से,
कि दिल की धड़कन
सुनाई दे तुमको भी,
मेरे झुर्रिदार चेहरे पे
आ जाए एक चमक,
ओर मैं शरमा कर
यह कहती हुई उठ जाऊं,
कि लगता है
दरवाज़े पर कोई आया है.
प्रियम,
मैं मानती हूँ,
तुमसे अच्छा हमसफ़र
और कोई नहीं मेरे लिए,
मगर फिर भी,
तुम मेरे अन्दर छुपी
उस सोलह साल की
अल्हड़, नादान लड़की को
क्यों नहीं देख पाते
जो कभी-कभी,
बस कभी-कभी,
यह चाहती है,
कि तुम और मैं
जीवन की सारी
रस्में तोड़ कर
उम्र के इस कसते
दायरे को छोड़ कर,
बस एक-दूसरे में
इस कदर खो जाएं,
कि हमारा परिपक्व प्रेम कभी
बूढ़ा न होने पाए.
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ३॰५, ६॰९, ६, ५॰७
औसत अंक- ५॰५२५
स्थान- चौदहवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ६, ५, ५॰५२५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰१३१२५
स्थान- चौथा
पुरस्कार- डॉ॰ रमा द्विवेदी की ओर से उनके काव्य-संग्रह 'दे दो आकाश' की स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत ही लाजवाब कविता...बहुत खूबसूरती से एक बुजुर्ग महिला के दिल के अरमानों और उसके अन्दर छिपी अल्हड़ किशोरी को प्रस्तुत किया है!
रेणू जी आपकी कविता उस सच्च को बयान करती है जो हमारे मन मी सदैव पलता रहता है ,हम भले ही उम्र मी कितने बड़े क्यो न हो जाएं लेकिन वो कच्ची उम्र का प्यार और चुलबुलापन सदैव चाहते है ,एक अच्छी रचना के लिए बधाई ...सीमा सचदेव
रेनू जी, सच को इतनी सुंदर अभिव्यक्ति देने के लिए बधाई , यह जान कर और भी अच्छा लगा की आप सात समुन्दर पार रहते हुए भी हिन्दी साहित्य से ना सिर्फ़ स्वयम जुड़ी हुई हैं बल्कि आम लोगों की भाषा में इसे आम लोगों से भी जोड़ना चाहती हैं, इस शुभ कार्य में आप हमें भी अपने साथ जानिए. ढेरों शुभकामनाओं के साथ
^^पूजा अनिल
बहुत ही सुन्दर कविता रेनू जी
सुन्दर अति सुन्दर रचना।
कि हमारा परिपक्व प्रेम कभी
बूढ़ा न होने पाए.
-- अरे वाह बहुत अच्छे |
स्वागत है युग्म पर |
अवनीश तिवारी
रेनू जी
कविता बहुत ही प्यारी और भाव- विभोर कर देने वाली है। आनन्द आगया पढ़कर-
प्रियम,
मैं मानती हूँ,
तुमसे अच्छा हमसफ़र
और कोई नहीं मेरे लिए,
मगर फिर भी,
तुम मेरे अन्दर छुपी
उस सोलह साल की
अल्हड़, नादान लड़की को
क्यों नहीं देख पाते
दिल की बात को इतनी सहजता से कह देने में आप बहुत कुशल हैं। बधाई स्वीकारें।
renu ji bahut bahut bahut hi sundar kavita hai,padh kar man allad solah saal ka ho gaya,man ke dibbi mein band khayal bahut khubsurati se piroye hai aapne,sundar.
रेनू जी,
बहुत ही बेहतरीन कविता है..
एक बार तुम भी
चुरा कर कुछ लम्हे ज़रा वक़्त से
बचाकर दोस्तों से नज़र,
मेरी ओर देखो
यूँ शरारत से,
कि दिल की धड़कन
सुनाई दे तुमको भी,
मेरे झुर्रिदार चेहरे पे
आ जाए एक चमक,
ओर मैं शरमा कर
यह कहती हुई उठ जाऊं,
कि लगता है
दरवाज़े पर कोई आया है.
उम्र के पडावों को पार करती महिला के अन्दर हमेशा बनी रहने वाली किशोरी को शब्दो में उतारती आपकी व्यवस्थित कवित-शब्दावली बहुत ही सराहनीय है.. वास्तविकता के अत्यंत करीब है आपकी कविता बहुत बहुत बधाई
रेणू जी बहुत ही प्यारी कविता, भावों का प्रवाह उत्तम है
अतिशय हीं सुंदर एवं भावपूर्ण रचना है।
रेणू जी, बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
रेणू जी
बहुत ही अच्छी कविता |
श्रद्धा, शिकायत और समर्पण का अनूठा मेल |
vinay k joshi
रेनूजी-आपकी कविता असंख्य महिलाओं के भीतर छुपी संवेदना को दर्शाने वाली प्रतिनिधि कविता है। आपकी कविता पढ़कर मेरी श्रीमती कहती हैं--मेरी तरह और भी लोग सोचते हैं यह जानकर मन को तसल्ली हुई। कवियत्रि ने मेरी ही भावनाओं को कलम बंद किया है।------
सात समुंदर पार से भी आप अपने देशवासियों के चेहरे पर मुस्कान बिखेरने में सफल रही हैं । --------शायद कविता की सार्थकता इसी को कहते हैं।------बधाई।
डा. रमा द्विवेदी said....
रेणू जी,
प्रथम तो आपको बेहतरीन व हृदयस्पर्शी कविता के लिए बधाई एवं शुभकामनाएं...
आपसे हमें और भी अपेक्षाएं हैं,अपनी रचनाएं यूँ ही भेजते रहिइएगा....ये पंक्तियां दिल को छू गईं...पूरी कविता का सार भी यही पंक्तियां हैं...पुन: मुबारकवाद...
क्यों नहीं देख पाते
जो कभी-कभी,
बस कभी-कभी,
यह चाहती है,
कि तुम और मैं
जीवन की सारी
रस्में तोड़ कर
उम्र के इस कसते
दायरे को छोड़ कर,
बस एक-दूसरे में
इस कदर खो जाएं,
कि हमारा परिपक्व प्रेम कभी
बूढ़ा न होने पाए.
रेणू जी,सुंदर रचना,बधाई स्वीकार करें
आलोक सिंह "साहिल"
bahut khoob Renu Ji. Bahut achhe se abhivyakt kiya hai aapne bhaavo ko !
payari Renu,
बहुत ही लाजवाब कविता. Dill ko chhoo gaya.
Maa Sarawati aapko lekhni main aur takat de.
Bhaiya, (Arvind)
renu ji aapki ye kavita dil ko choone wali hai....bahut hi kubsurat hai....Ekta
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