"हो सुन्दरतम अपनी ये धरा..
हो हरी भरी यह वसुन्धरा...
माता का रूप धरती धरती
निज सुत सम ही पालन करती..."
है निहित सभी का हित इसमें
हो संतुलित, अपना पर्यावरण
रक्षित हों जीव जंतु नभ थल
प्रकृति, शैल, पताल, तरण.......
प्रकृति, शैल, पताल, तरण.......
क्यूँ पेड़ काटकर काट रहे ?
हम अपने पैरों को प्रतिदिन,
क्यूँ मिटा रहे सोन्दर्य स्वमं ?
वसुधा के अंगो से गिन गिन
क्यूँ रणभूमि में बदल रहे ?
आश्रयदायी सब अभ्यारण
है निहित ........................
नदियों की सांसे रुकीं रुकीं;
सागर प्यासे से खड़े हुए,
प्रकृति मौन हो विवश खड़ी
पेड़ों के शव जो पडे हुए,
क्यूँ बन दुःशासन अनुयायी?
करते धरती का चीर-हरण
है निहित ........................
तारों की धूमिल हुई चमक;
चिमनी के विषैले धुँए से,
चहल पहल खो गयी कहाँ ?
पूँछो इस अँन्धे कुँए से,
कब तक मन-मोर नचायें यूँ
आभासी ये सौन्दरीयकरण
है निहित .........................
पें-पें,टी-टी, हुर्र-हुर्र की
बस ध्वनि सुनाई देती है,
दूर निगाहो तक उगती बस
कंकरीट की खेती है...
शेर, बया, दादुर, जिराफ
देने को रहे बस उदाहरण
है निहित ......................
हाय! कितने सारे बेल-फूल;
तत्पर करने को स्वमं दाह,
तिल-तिल कर मरने से अच्छा
हों एक बार में खत्म!!.. आह !
हाँ लुप्त प्राय हो गये बहुत,
बैबून, तुम्बी और घट-परण
है निहित ........................
लगता है मानव दानव से;
अब सब कतराते फिरते हैं,
अपने दाँतों के हित हाथी
हँसते हुये नही विचरते हैं,
छुप गये किताबों में जाकर
कुछ प्रजाती के सांप, हिरण..
है निहित .........................
है माघ पसीने में लथ-पथ;
अपनी अवनी अनमनी हुई,
मैं फिसल रहा दिवाली पर
क्यूँ राहें इतनी सनी हुई ?
अब गगन विचरते खग गिरते
गुम गये आशियाँ, कहाँ शरण ?
है निहित ........................
ओजोन छ्त्र भी क्षीण हुआ
हो रहे बहुत से बडे छेद,
तपता सीना, तपता माथा
हिम पिघल पिघल बह रहा स्वेद,
हों जागरूक अब यत्न करें,
क्यूँ नही बोलता अंत:करण...
है निहित सभी का हित इसमें;
हो संतुलित अपना पर्यावरण,
रक्षित हों जीव जंतु नभ थल;
प्रकृति, शैल, पताल, तरण.......
17-04-2008
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
भूपेंद्र जी पर्यावरण पर आपकी कविता बहुत अच्छी लगी ,आज समय की मांग है की हम अपनी जिम्मेदारीसमझे और पर्यावरण को संतुलित बनाने मी सहयोग दे
तारों की धूमिल हुई चमक;
चिमनी के विषैले धुँए से,
चहल पहल खो गयी कहाँ ?
पूँछो इस अँन्धे कुँए से,
कब तक मन-मोर नचायें यूँ
आभासी ये सौन्दरीयकरण
है निहित .........................
सोंचने और कुछ करने का
वक्त आगया है !
बहुत सुंदर.. बधाई..
good
Avaneesh
सही समय पर सही रचना ...
पर्यावरण पर लिखी आपकी यह कविता बहुत ही सुंदर लगी .राघव जी .जरूरत है इस वक्त ऐसी ही रचनाओं कि जो जन मानस में नव चेतना भर सके ..बधाई सुंदर रचना के लिए !!
राघव जी!
आप हर बार कुछ अलग-सा हीं ले आते हैं। और इस बार भी वही कहानी है। पर्यावरण पर लिखी आपकी यह रचना अच्छी लगी।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
//Pranam//
Hamesha ki tarah is baar bhi RaghavG ne Prayavaran par sahi chinta jatayii hai..
In khoobsooart shbd-bhaavo ke liye aapko Badhaii.
Regards,
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