इस शहर में सबकुछ सही होता है
ये पुतलों का शहर है
पुतलों के शहर में
हर काम सही वक़्त पर होता है
पुतले
आनाकानी नहीं करते थकान से
यहाँ सब रोते हैं अपना-अपना हिस्सा
किसी के मरने पर
पर किसी को दुःख नहीं होता
पढ़ाया नहीं जाता पुतलों के स्कूल में
दुःख
इस शहर में जो खुश हैं
वे मुस्कुराते नहीं जरुरत से ज्यादा
फेक्टोरिओं में
लगाया जाता है हँसने का रेगुलेटर
पुतलों में
वैधानिक चेतावनी के साथ
यहाँ गीत नहीं गए जाते
कहा ना
ये पुतलों का शहर है
यहाँ इंसान नहीं पाए जाते
सड़कों पर
जलाये जाते हैं वे प्रदर्शनों में
या
मिलते हैं खड़े चौराहों पर
स्थिर
पुतलों की तरह
रचनाकाल- वर्ष २००५
रचनाकार- पावस नीर (मार्च २००८ के यूनिकवि)
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
यहाँ सब रोते हैं अपना-अपना हिस्सा
किसी के मरने पर
पर किसी को दुःख नहीं होता
पढ़ाया नहीं जाता पुतलों के स्कूल में
दुःख
पावस जी आपकी कविता अच्छी है , आप पुतलो के माध्यम से और भी बहुत कुछ कह सकते थे ,और समाज मी फ़ैली बुराईओ को अच्छे से व्यक्त कर सकते थे ,अगर थोड़ा और प्रयास करते तो
अच्छी और यथार्थ रचना।
जड़ मानव
कुछ भी चेतन नही
सब जड़ है ।
यह धरा, यह आकाश
यह सृष्टि, प्राणी
मानव भी ।
बस गूंजता शोर है..
कारखानों की चिल्लाहट..
गाडियों की पों पों..
मशीनों की खड़खडा़हट है
वायु, ध्वनि प्रदूषण है ।
मानव बन गया मशीन है,
कारखानों में, फैक्ट्रियों में,
सड़कों पर, चौराहों पर,
हर तरफ मानव मशीनें हैं ।
सब जड़ है, अचेतन है ।..
मर्म स्पर्शी मगर बहुत कुछ सोचने पर मजूर करती बहुत ही अच्छी कविता बधाई
यहाँ इंसान नहीं पाए जाते
सड़कों पर
जलाये जाते हैं वे प्रदर्शनों में
या
मिलते हैं खड़े चौराहों पर
स्थिर
पुतलों की तरह
-आप के चिन्तनशील होने को दर्शा रही है यह कविता..
लिखते रहिये-शुभकामनाएं
पावस तुम्हारी कलम में गजब का जादू है, तुम्हारी हर कविता मुझे और विश्वास दिला देती है, कि हिंद युग्म को एक और नायाब हीरा मिल गया है , पर ये कविता शायद और बेहतर हो सकती थी.... जब तक रंग में आती है...खत्म हो जाती है...फ़िर भी सोच की खिड़कियाँ खोलने में समर्थ है... बधाई
पावस जी,
जन-प्रश्न के साथ एक सुन्दर कविता..
शुभकामनायें..
इंसान आज किस तरह मशीनी जिंदगी जी रहा है, इसका वास्तविक चित्रण है आपकी कविता , बहुत खूब पावस जी.
^^पूजा अनिल
अब मैं कहूँ भी तो क्या,बेहतरीन
आलोक सिंह "साहिल'
पावस भाई!
सही फरमाया है आपने। यह पूरी दुनिया हीं पुतलों का शहर है और हम लोग महज़ पुतले।
अच्छी रचना है। बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
behad sunder likha hai aap ne.....
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