आज हम फरवरी माह की यूनिकवि प्रतियोगिता से अंतिम कविता यानी ३०वीं कविता लेकर उपस्थित हैं, जिसके रचनाकार हैं सुनील प्रताप सिंह।
कविता- माफ करना बेटी मुझे
लहू जिगर का दिया तुझे,
दूध छाती का पिला न पाई।
माफ करना मेरी बेटी मुझे,
मैं तुझे तेरा हक दिला न पाई।।
नौ माह कारावास के बाद
वो तेरे आने का दिन
वो मौत की लोरी
वो तुझे गहरी
नींद सुलाने का दिन
कोख से अपनी
कोख तक धरती की
पहुँचाने का दिन
तुझे दफनाने का दिन ! !
वो दिन . . . .
वो दिन अब तक भुला न पाई
माफ करना मेरी बेटी मुझे
मैं तुझे तेरा हक दिला न पाई।।
कुछ खिलौने, चुने थे मैंने
कुछ मोज़े, बुने थे मैंने
आज कभी-कहीं कोने
में जब दिख जाते हैं
मुझे कमजोर होने
का अहसास दिलाते हैं
याद दिलाते हैं
तेरा मुझ पर कर्ज़
मेरा अधूरा फर्ज़
माँ होने का फर्ज़
वो फर्ज़ मैं निभा न पाई
तेरा कर्ज़ चुका न पाई
माफ करना मेरी बेटी मुझे
मैं तुझे तेरा हक दिला न पाई।।
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
वो मौत की लोरी
वो तुझे गहरी
नींद सुलाने का दिन
कोख से अपनी
कोख तक धरती की
पहुँचाने का दिन
तुझे दफनाने का दिन ! !
सुनिल जी दिल को छू गई आपकी कविता
बहुत ही मार्मिक कविता है,आसूं निकल दिए,बहुत बधाई
प्रिये सुनील जी
बहुत ही दिल को छूने वाली कविता , मुद्दा आम है मगर पेश बहुत ही खूबसूरत ढंग से किया गया है .
नौ माह कारावास के बाद
वो तेरे आने का दिन
वो मौत की लोरी
वो तुझे गहरी
नींद सुलाने का दिन
कोख से अपनी
कोख तक धरती की
पहुँचाने का दिन
तुझे दफनाने का दिन ! !
वो दिन . . . .
वो दिन अब तक भुला न पाई
सारा दर्द बयां करती हैं अगर मैं लिखूं की बधाई हो तो यकीन मानिये ये लफ्ज़ बहुत कम हैं दोस्त .. ये कविता एक ऐसी सच्चाई बयां करती है जिसे जानकर भी लोग नज़र अंदाज करते हैं . एक मन का दर्द , एक औरत का दर्द औरत के लिए बखूबी लिखा गया है.
शाहिद " अजनबी"
माफ़ करना बेटी..बहुत सम्वेदनशील रचना है.दिल को छूती है,वक्त बदल रहा है बेटियों के लिये भी सुनहरे दिनो की शुरुआत हो रही है अगर मुफ़लिसी में है आदमी तो क्या बेटी क्या बेटा तब कहना पड़ता है माफ़ करना मेरे बच्चो, माफ़ करना ऎ दुनिया!
डा.शीला सिंह,वाराण्सी
मर्म स्पर्शी रचना ..
सुनील जी मर्म उभरते उभरते रह गया,थोड़ा जोर और,
आलोक सिंह "साहील"
कुछ खिलौने, चुने थे मैंने
कुछ मोज़े, बुने थे मैंने
ये पंक्तियाँ बहुत कुछ कह जाती हैं
बढियां लिखा है
डा. रमा द्विवेदीsaid...
अत्यंत मार्मिक रचना है...सामाजिक कटु सत्य को चित्रित करती यह रचना बहुत सुन्दर बन पड़ी है...निम्नलिखित पंक्तियां हृदयस्पर्शी हैं....बधाई व शुभकामनाएं....
नौ माह कारावास के बाद
वो तेरे आने का दिन
वो मौत की लोरी
वो तुझे गहरी
नींद सुलाने का दिन
कोख से अपनी
कोख तक धरती की
पहुँचाने का दिन
तुझे दफनाने का दिन ! !
वो दिन . . . .
वो दिन अब तक भुला न पाई
माफ करना मेरी बेटी मुझे
मैं तुझे तेरा हक दिला न पाई।।
आप को और आपकी भावनाओं को नमन...
आपने बहुत ही मार्मिक कविता लिखी है माँ की ममता का बड़े ही वास्तविक रूप मे अभिव्यक्ति की है साथ मे उसकी लाचारी को भी प्रदर्शित किया है कविता की ये पंक्तियाँ की ..
कुछ खिलौने, चुने थे मैंने
कुछ मोज़े, बुने थे मैंने
आज कभी-कहीं कोने
में जब दिख जाते हैं
मुझे कमजोर होने
का अहसास दिलाते हैं
याद दिलाते हैं
कवित को गंभीर बनती हैं एवं पाठक के मन मे एक नई छाप छोड़ती हैं
एक नारी की मजबूरी और व्यथा को बखूबी बयान किया है आपने
मार्मिक रचना
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