शीर्ष २० कविताओं की अंतिम कविता अरूण मित्तल 'अद्भुत' की है। ये भी हिन्द-युग्म के लिए नया चेहरा हैं।
कविता- मैं अपने छंद सुनाता हूँ
जो आये थे इस धरती पर इक रह दिखा कर चले गए
जो सबको नवल रोशनी दे वो दीप जला कर चले गए
हाँ गूँज रहा हर और आज उद्बोधन उनका जन जन में
आँखें आँसू से भर उठती जगती उनकी श्रद्धा मन में
हो गए अमर दे प्राण दान माँ की बलिवेदी पर अपना
कर गए पूर्ण जो देखा था स्वर्णिम आजादी का सपना
कुर्बानी की राहों पर हाँ हिम्मत से चलने वालों पर
मैं अपने छंद सुनाता हूँ इतिहास बदलने वालों पर
जब नाम गूंजता है उनका श्रद्धा से सर झुक जाते हैं
शोणित की गति हो तेज़ उठे जब याद वीर वो आते हैं
इस भारत माता के सपूत योद्धा अतुलित बलिदानी थे
गोरों के घुटने टिकावाये अद्भुत अचूक सेनानी थे
वो अथक लडे बन शूरवीर करने को युग का परिवर्तन
इस मातृभूमि पर लुटा दिया उन वीरों ने सारा जीवन
रण में बन बिजली टूट पड़े भारत को छलने वालों पर
मैं अपने छंद सुनाता हूँ इतिहास बदलने वालों पर
जलती थी भारत की धरती अंग्रेजी अत्याचारों से
भारतवासी महरूम रहे सत्ता के सब अधिकारों से
लगता था मेरा देश, मुल्क कायरता और गुलामी का
सर झुका झेलते थे सारे हाँ ये कलंक बदनामी का
तब उदित हुए योद्धा विचित्र, चमके बनकर इक अंगारा
थर थर थर हिला दिया मिलकर अंग्रेजों का शासन सारा
क्या और लिखूं मैं आंधी- तूफानों में पलने वालों पर
मैं अपने छंद सुनाता हूँ इतिहास बदलने वालों पर
जय जय जय अमर शहीदों तुम भारत में जन जन के प्यारे
है नमन तुम्हे शत बार नमन चमके जग में सब से न्यारे
यह सारा भारत शीश झुकाता, ऐसे वीर सिपाही तुम
हाँ अमर रहोगे कुर्बानी के पथ के अनुपम रही तुम
बन प्राण धड़कते हो तन में, मन का विश्वास बने हो तुम
बस यही दुआ करता हरदम न हो प्रकाश ये किंचित गुम
तम दूर करें जो धरती का सूरज सा जलने वालों पर
मैं अपने छंद सुनाता हूँ इतिहास बदलने वालों पर
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक-६, ५॰२, ७॰१
औसत अंक- ६॰१
स्थान- सोलहवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक-४, ९, ५॰५, ६॰१ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰१५
स्थान- छठवाँ
अंतिम जज की टिप्पणी-
जिस रस को स्थापित करने का कवि ने यत्न किया है उसके लिये सटीक शब्द नहीं तलाश सका। रचना में क्रमिकता का अभाव है तथा गीत प्रवाह के लिये हर पंक्ति में दूसरी पंक्ति के मुकाबले वर्ण/शब्द कम या अधिक हैं।
कला पक्ष: ३॰९/१०
भाव पक्ष: ३/१०
कुल योग: ६॰९/२०
स्थान- बीसवाँ
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
अरूण जी, शुरुआत ठीक थी पर अंत में वाक्यों में शब्द कम होने लग गये। पर बड़े दिनों के बाद कोई ऐसी देशभक्ति की कविता पढ़ी तो अच्छा लगा। ऐसे ही हिन्दयुग्म में भाग लेते रहिये। जज की टिप्पणी पर ज़रूर ध्यान दीजियेगा।
बहुत खूबसूरत छंद है इन्हे हम पहले भी पढ़ चुके है...इस साईट पर http://rajeshchetan.blogspot.com/2008/02/blog-post_7090.html
बहुत जोश और देश भक्ति का जज्बा है आपमें...बहुत-बहुत बधाई...
हिन्द-युग्म को बहुत-बहुत बधाई...
रण में बन बिजली टूट पड़े भारत को छलने वालों पर
मैं अपने छंद सुनाता हूँ इतिहास बदलने वालों पर
बहुत सुन्दर! बधाई अद्भूत जी
थोडी सी और म्हणत की जरुरत थी कुछ बातें रह गई है फिर भी अच्छी रचना
अगर ये पहले भी किसी ब्लाग पर पोस्ट हुई है जैसा कि नीलकमल जी ने कहा और मैंनेभी उस ब्लाग पर जाकर पढ़ा है तो निस्संदेह ये नियमों का उल्लंघन है। ये सभी जानते हैं कि प्रतियोगिता में शामिल कवितायें महींने की ३१ तारीख तक किसी और जगह पर शामिल नहीं हो सकती हैं। फिर भी ऐसा हुआ है। आगे ऐसा न हो इस बाबत हिन्दयुग्म को कुछ कदम उठाने चाहियें।
हिन्द-युग्म की खोजी टीम हमेशा ही कविताओं का अप्रकाशित होना सुनिश्चित करती रहती है। लेकिन इसमें हिन्द-युग्म तभी सफल हो सकता है जब प्रतिभागी भी इसके प्रति सावधान और सजग रहें। हिन्द-युग्म ने कविता के शीर्षक के साथ गूगल-सर्च भी किया था लेकिन आज नीलकमल जी के सहयोग से पता चला कि अरूण ने इस कविता को उपर्यक्त लिंक पर किसी और शीर्षक के साथ प्रकाशित किया है। खैर इससे हमारी खोजी टीम को यह सीख मिली है कि कविता के पूरे कंटेंट को सर्च किया जाय।
अरूण जी,
आपकी इस कविता और हिन्द-युग्म का ज़िक्र मध्य प्रदेश से छपने वाले हिन्दी दैनिक 'दैनिक भास्कर' के २२ मार्च २००८ के अंक में हुआ है। हम आग्रह करेंगे कि किसी संस्था समूह के नियमों का सम्मान करना ना छोड़ें। यह बात तो तय है कि हिन्द-युग्म का पूरा पाठक वर्ग इतना सुधी है कि उनकी नज़रों से कविता की असलियत छिप पाना बहुत मुश्किल है।
अच्छी रचना है बहुत दिनों के बाद देशभक्ति की कविता पडने को मिली बधाई
राष्ट्र प्रेम के स्वर को मुखर करने वाली कविता ..अच्छी प्रस्तुति
अरुण जी,
अच्छी कविता है देश प्रेम पर, परंतु अप्रकाशित होती तो और भी अच्छी होती.. कहने का आशय आप समझ रहे होंगें..
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क्षमा चाहता हूँ प्रथम तो संवाद मे देरी के लिए . अंतर्जाल उपलब्ध न होने के कारण मैं दो तीन दिन तक हिन्दयुग्म नहीं देख पाया था.
कविता के अप्रकाशित न होने के विषय मे पढ़ा तो बहुत दुःख हुआ मेरा उद्देश्य कुछ भी छिपाना नहीं था यह सब भूलवश हुआ है मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ मुझे विश्वाश था की ये कविता कहीं भी पूर्व मे प्रकाशित नहीं हुई है जो लिंक नीलकमल जी ने दिया है वो भी मैंने आज ही देखा
खैर बिना किसी बहाने के मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूँ और हिन्दयुग्म टीम तथा सभी पाठकों एवं निर्णायकों से अपनी इस भूल की क्षमा मांगता हूँ और पुनः; दोहराता हूँ कि ये सब जानबूझकर नहीं किया गया भूलवश हुआ है और भविष्य मे कभी नहीं होगा.
अरुण मित्तल अदभुत
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