मैं छूना चाहता हूँ तुम्हें,
महसूस करना चाहता हूँ, तुम्हारा दिल,
पर देखना तो दूर,
मैं सुन भी नही पाता हूँ तुम्हें,
तुम कहीं दूर बैठे हो,
सरहदों के पार...जैसे,
कुछ कहते तो हो जरूर,
पर आवाजों को निगल जाती हैं - दीवारें,
जो रोज एक नए नाम की,
खड़ी कर देते हैं "वो", दरमियाँ हमारे,
तुम्हारे घर की खिड़की से,
आसमां अब भी वैसा ही दिखता होगा ना...
तुम्हारी रसोई से उठती उस महक को,
पहचानती है मेरी भूख अब भी,
तुम्हारी छत पर बैठकर,
वो चांदनी भर-भर पीना प्यालों में,
याद होगी तुम्हें भी,
मेरे घर की वो बैठक,
जहाँ भूल जाते थे तुम, कलम अपनी,
तुम्हारे गले से लग कर रोना चाहता हूँ फ़िर मैं,
और देखना चाहता हूँ फ़िर, तुम्हें चहकता हुआ -
अपनी खुशियों में,
तरस गया हूँ सुनने को,
तुम्हारे बच्चों की किलकारियाँ, जाने कितनी सदियों से,
पर सोचता हूँ तो लगता है,
जैसे अभी कल की ही तो बात थी,
जब हम तुम पड़ोसी हुआ करते थे,
और उन दिनों हमारे घरों के दरमियाँ भी फ़कत,
एक ईट पत्थर की महीन सी दीवार हुआ करती थी...बस....
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
मैं छूना चाहता हूँ तुम्हें,
महसूस करना चाहता हूँ, तुम्हारा दिल,
पर देखना तो दूर,
मैं सुन भी नही पाता हूँ तुम्हें,
तुम कहीं दूर बैठे हो,
सरहदों के पार...जैसे,
कुछ कहते तो हो जरूर,
पर आवाजों को निगल जाती हैं - दीवारें,
वाह क्या बात है संजीव जी सच आज केहालत को बहुत ही उम्दा तरीके से चित्रित किया है इस मर्मस्पर्शी कविता के लिये बधाई
तुम्हारे घर की खिड़की से,
आसमां अब भी वैसा ही दिखता होगा ना...
तुम्हारी रसोई से उठती उस महक को,
पहचानती है मेरी भूख अब भी,
-- छू लेने वाली पंक्तियाँ है |
होली की शुभकामनाएं
-- अवनीश तिवारी
तुम्हारी रसोई से उठती उस महक को,
पहचानती है मेरी भूख अब भी,
तुम्हारी छत पर बैठकर,
वो चांदनी भर-भर पीना प्यालों में,
याद होगी तुम्हें भी,
बहुत खूब संजीव जी बढ़िया रचना है
होली के लिये बधाई
तुम्हारी रसोई से उठती उस महक को,
पहचानती है मेरी भूख अब भी,
तुम्हारी छत पर बैठकर,
वो चांदनी भर-भर पीना प्यालों में,
याद होगी तुम्हें भी,
बहुत सुंदर भाव हैं इस रचना के ..बधाई सजीव जी !
छूना चाहता हूँ तुम्हें,
महसूस करना चाहता हूँ, तुम्हारा दिल,
पर देखना तो दूर,
मैं सुन भी नही पाता हूँ तुम्हें,
तुम कहीं दूर बैठे हो,
सरहदों के पार...जैसे,
कुछ कहते तो हो जरूर,
पर आवाजों को निगल जाती हैं - दीवारें,
" बहुत ह्रदय स्पर्शी रचना , एक एक शब्द बोलता हुआ सा लगा "
Regards
सजीव जी
बहुत सुंदर भाव भरी रचना-
पर सोचता हूँ तो लगता है,
जैसे अभी कल की ही तो बात थी,
जब हम तुम पड़ोसी हुआ करते थे,
और उन दिनों हमारे घरों के दरमियाँ भी फ़कत,
एक ईट पत्थर की महीन सी दीवार हुआ करती थी...बस....
एक सच्ची अनुभूति के लिए बधाई
वाह, बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना, सुन्दर सजीव जी..
याद होगी तुम्हें भी,
मेरे घर की वो बैठक,
जहाँ भूल जाते थे तुम, कलम अपनी,
तुम्हारे गले से लग कर रोना चाहता हूँ फ़िर मैं,
और देखना चाहता हूँ फ़िर, तुम्हें चहकता हुआ -
अपनी खुशियों में,
तरस गया हूँ सुनने को,
बधाई..
अच्छा पड़ोसी प्रेम है सजीव जी
मगर आजकल ऐसे पड़ोसी कहाँ मिलते हैं
अब तो यह सब काल्पनिक ही रह गया है
अच्छी रचना
अच्छा लिखा है....एक बार को लगा कि मैंने लिखा है यह..क्या बात है..होली के मौके पर इतने गंभीर हो गए...अरे भाई, मस्त रहिये...
होली मुबारक,,...
निखिल
सजीव जी
बहुत ही मर्म स्पर्शी तथा सामयिक रचना
यह पंक्तियाँ मर्म छू गयीं
याद होगी तुम्हें भी,
मेरे घर की वो बैठक,
जहाँ भूल जाते थे तुम, कलम अपनी,
तुम्हारे गले से लग कर रोना चाहता हूँ फ़िर मैं,
और देखना चाहता हूँ फ़िर, तुम्हें चहकता हुआ -
अपनी खुशियों में,
तरस गया हूँ सुनने को,
.... बधाई
'तुम्हारी छत पर बैठकर,
वो चांदनी भर-भर पीना प्यालों में,
याद होगी तुम्हें भी,'
सुंदर कल्पना है ,
कविता में भाव उभर कर आते हैं.
उम्मीद है इस होली पर आप को आप का बिछड़ा पड़ोसी मित्र मिल जाए.
शुभकामनाएं!
तुम्हारे घर की खिड़की से
आस्मान अब भी वैसा ही दिखता होगा न .....
सच ही ये पंक्तियाँ दिल को छू गयी .....एक अच्छे दोस्त के दूर चले जाने से उसके संग गुज़री हर बात किस तरह याद आती है उसका सजीव जी आपने सही और सजीव चित्रण किया है....प्रस्तुतीकरण बहुत सहज है...दिल को छू लेने वाली कविता ......धन्यवाद...
कुछ कहते तो हो जरूर,
पर आवाजों को निगल जाती हैं - दीवारें,
जो रोज एक नए नाम की,
खड़ी कर देते हैं "वो", दरमियाँ हमारे,
तुम्हारे घर की खिड़की से,
आसमां अब भी वैसा ही दिखता होगा ना...
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तुम्हारी छत पर बैठकर,
वो चांदनी भर-भर पीना प्यालों में,
याद होगी तुम्हें भी,
मेरे घर की वो बैठक,
जहाँ भूल जाते थे तुम, कलम अपनी,
तुम्हारे गले से लग कर रोना चाहता हूँ फ़िर मैं,
और देखना चाहता हूँ फ़िर, तुम्हें चहकता हुआ -
अपनी खुशियों में,
तरस गया हूँ सुनने को,
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जब हम तुम पड़ोसी हुआ करते थे,
और उन दिनों हमारे घरों के दरमियाँ भी फ़कत,
एक ईट पत्थर की महीन सी दीवार हुआ करती थी...बस....
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वह ...बहुत खूब ...!
बिछड़ी संगिनी के प्रति उमड़े भावों को जिस सहृदयता से आप ने व्यक्त किया वह सराहनीय है
कविता पसंद आई।
दिल के करीब की बातों को आपने पंक्तियों में ढाला है,इसलिए कुछ ज्यादा हीं जुड़ाव महसूस कर रहा हूँ। कोई विशेष पंक्ति या छंद को उद्धृत नहीं मरूँगा , नहीं तो बाकियों के साथ अन्याय होगा।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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