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Friday, March 21, 2008

गुम हुये होबिट


सोंचा था ईश्वर ने
दुनियां हो रंगीन
ना रहे कोई एकाकी
जानवर तो जानवर
फिर नर क्यों अकेला?
जैसे हाथी और घोड़ा
कबुतर और चिडि़या, बंदर और गुरिल्ला
आदमी के साथ करो कुछ फिट
पर लुप्त हो गये - गुम हुये होबिट ।

क्या अच्छा न होता कि
होमो-सेपियन के अलावा
एक दूसरी तरह का नाइंसान इंसान
जो इन्सान जितना जानवर न हो
पर इन्सानियत में कम न हो !
डर गया विधाता
एक बुद्धू - याने बुद्धिशाली आदमी
बना बैठा हिन्दू-मुसल्मां
बामन-शूद्र - अलगअलग नस्ल….
आगया जो दूसरी तरह का इंसान
फिर कैसे रोक पायेगा खुले आम
हत्या, मारपीट
बजेगी ईट से ईट
तो क्या होगा?
मानव पियेगा लहू
और होबिट खायेगा मीट
गुम हुये होबिट ।


होबिट ने सीखा खानापकाना
गुमसुम होकर
मानव के सामने सिर झुकाना
होबिट-मानव भाई-भाई
पड़ न जाय भारी कीमत चुकाना
बड़ी चालु चीज़ है आदमी - करेगा चीट
गुम हुये होबिट ।

मुख में बुद्ध
भीतर से क्रुद्ध
इंसान-इंसान में
होता विश्वयुद्ध
लाखों लोगों को
एटम की गर्मी में
भूनेगा
पकायेगा
खा पायेगा इतना !
सोंच कर यही मर जायगा होबिट
गुम हुये होबिट ।

वे संतुष्ट थे झोपड़ी में
जंगल में
समृद्धि के तनाव से मुक्त;
ये तो इन्सान चिढ़ गया
ऐसे भोलेपन पर
उदारता का ढोंग रच कर
जाने क्या लाद दिया
होबिट पर
कहती किंवदंतियां
वे थे “नरक के वासी”
न होबिटस्तान मांगा
न और कुछ
तीन या चार फिट के ये वामन -
नन्हे ठिगने बौने लोग
धरती छोड़ गये - विशाल
एक नन्हे ठिगने बौने दिल वाली
लालची नस्ल के लिये
बस गुम हुये होबिट।

- हरिहर झा

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14 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

क्या अच्छा न होता कि
होमो-सेपियन के अलावा
एक दूसरी तरह का नाइंसान इंसान
जो इन्सान जितना जानवर न हो
पर इन्सानियत में कम न हो !
डर गया विधाता
एक बुद्धू - याने बुद्धिशाली आदमी
बना बैठा हिन्दू-मुसल्मां
बामन-शूद्र - अलगअलग नस्ल….
आगया जो दूसरी तरह का इंसान
फिर कैसे रोक पायेगा खुले आम
हत्या, मारपीट
बजेगी ईट से ईट
तो क्या होगा?
मानव पियेगा लहू
और होबिट खायेगा मीट
गुम हुये होबिट ।

अच्छा विशय चुना है हरिहर जी और प्रस्तुत भी बहुत ही उम्दा तरीके से किया है रचना लंबी प्रतीत होती है पर बोझिल नही बधाई

seema gupta का कहना है कि -

संतुष्ट थे झोपड़ी में
जंगल में
समृद्धि के तनाव से मुक्त;
ये तो इन्सान चिढ़ गया
ऐसे भोलेपन पर
उदारता का ढोंग रच कर
जाने क्या लाद दिया
होबिट पर
कहती किंवदंतियां
वे थे “नरक के वासी”
न होबिटस्तान मांगा
न और कुछ
तीन या चार फिट के ये वामन -
नन्हे ठिगने बौने लोग
धरती छोड़ गये - विशाल
एक नन्हे ठिगने बौने दिल वाली
लालची नस्ल के लिये
बस गुम हुये होबिट।
" अच्छी रचना ,कुछ नई सी लगी, एक अलग ही विषय पर"

Regards

nesh का कहना है कि -

bahut khuboo likha hai apne.keep it.kuch tho baat rahi hogi,jo likha hai hakekat hui hogi

Gyan Dutt Pandey का कहना है कि -

इन्द्रजाल कॉमिक्स में बान्दर बौनों के बारे में पढ़ते थे। अच्छा लगता था। कालान्तर में कैल्कुलस और रसायन शास्त्रों के सूत्रों में होबिट पिघल कर लीन हो गये।
आज आपने याद दिलाई। बहुत अच्छा लगा।
शायद जटिल से सरल की ओर लौटने में आपकी कविता काम आये। फिलहाल तो सूचना और आंकड़ों के भीषण प्रक्षेपण को झेल रहे हैं।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

नई और अच्छी लगी आपकी रचना कुछ हट के है इस का विषय !

शोभा का कहना है कि -

हरिहर जी
अच्छी प्रस्तुति.-
होबिट ने सीखा खानापकाना
गुमसुम होकर
मानव के सामने सिर झुकाना
होबिट-मानव भाई-भाई
पड़ न जाय भारी कीमत चुकाना
बड़ी चालु चीज़ है आदमी - करेगा चीट
सच के बहुत करीब है. बधाई

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

एक अलग विषय पर उत्कृष्ट रचना,

होबिट ने सीखा खानापकाना
गुमसुम होकर
मानव के सामने सिर झुकाना
होबिट-मानव भाई-भाई
पड़ न जाय भारी कीमत चुकाना
बड़ी चालु चीज़ है आदमी - करेगा चीट

सुन्दर...

anju का कहना है कि -

मुख में बुद्ध
भीतर से क्रुद्ध
इंसान-इंसान में
होता विश्वयुद्ध
लाखों लोगों को
एटम की गर्मी में
भूनेगा
पकायेगा
खा पायेगा इतना !
अच्छी प्रस्तुति

Unknown का कहना है कि -

हरिहर जी !

मुख में बुद्ध
भीतर से क्रुद्ध
......

नन्हे ठिगने बौने लोग
धरती छोड़ गये - विशाल
एक नन्हे ठिगने बौने दिल वाली
लालची नस्ल के लिये
आपकी इन पंक्तियों में मानव सभ्यता की तथाकथित विकास प्रक्रिया के नाम पर लुप्त होती जा रही संवेदनशीलता पर करारा व्यंग्य है सभी यह बात समझते हैं .... काश यह बात हम समझने के साथ इसका निराकरण भी कर पाते .... अस्तु होली की शुभकामनाओं के साथ इतनी अच्छी प्रस्तुति के लिए ... प्रणाम

Alpana Verma का कहना है कि -

मुख में बुद्ध
भीतर से क्रुद्ध
इंसान-इंसान में
होता विश्वयुद्ध
लाखों लोगों को
एटम की गर्मी में
भूनेगा
पकायेगा
खा पायेगा इतना !
सोंच कर यही मर जायगा होबिट
गुम हुये होबिट ।
-अच्छी कविता है----एक गंभीर विषय और सोच.
होली के मौसम में ऐसी कविता का बीचों बीच आना फ़िर से वास्तविकता के धरातल पर ला पटकने जैसा है. पर सही भी है.
शुभकामनाएं!

Sajeev का कहना है कि -

अच्छी कविता है हरिहर भाई.....सच्चाई है आपके कथन में

shivani का कहना है कि -

हरिहर जी बहुत दिनो बाद आपकी रचना पढ़ने को मिली !बहुत अच्छी रचना......बधाई

Dr. sunita yadav का कहना है कि -

मुख में बुद्ध
भीतर से क्रुद्ध
................
बड़ी चालु चीज़ है आदमी - करेगा चीट
.................
एक नन्हे ठिगने बौने दिल वाली
लालची नस्ल के लिये
बस गुम हुये होबिट।
......................
एक बुद्धू - याने बुद्धिशाली आदमी
बना बैठा हिन्दू-मुसल्मां
बामन-शूद्र - अलगअलग नस्ल….
........................
बेहतरीन रचना ...

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

यह पलॉट नया नहीं है। हाँ शब्दों का जाल ज़रूर नया है।

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