पिछले २ दिनों से हमने प्रतियोगिता से कोई भी कविता प्रकाशित नहीं की, क्योंकि नारी दिवस पर ढेरों कविताएँ हम एक साथ प्रकाशित कर रहे थे। हम पाठकों को थकाना नहीं चाहते थे। ७वें पायदान पर पावस नीर की कविता है 'धुआँ'। मूलतः गुमला (झारखण्ड) नवासी पावस पिछली बार भी यूनिकवि प्रतियोगिता में भाग ले चुके हैं। १०वीं तक की पढ़ाई इन्होंने गुमला से ही की और ११वीं-१२वीं पढ़ने डी॰पी॰एस॰, राँची आ गये। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में स्नातक और अख़बारों के लिए स्वतंत्र-लेखन कर रहे हैं।
पुरस्कृत कविता- धुआँ
शहर में हर ओर धुआं फैल रहा है
धुआं
स्याह
जहरीला
बिना चाँद की रात के अंधेरे-सा
लोग परेशां हैं
आखिर वज़ह क्या है इस धुएँ की
डरे हुए टकटकी लगाये देख रहे हैं
लोगों के आका ने बैठा दी जांच समिति
धुएँ के कारण ढूँढ़ रही है समिति
उलटती-पुलटती
गूंगे सबूतों को
समिति ने पूरी कर ली है अपनी जांच
पर वो चुप है
दिखा नहीं रही अपनी रिपोर्ट
कैसे कहे उन्हें दिखता है धुआं निकलता उसी आका की नाक से
शायद साइड इफ़ेक्ट है
लाखों डकार जाने का
या
फिर उन लाशों के ढेर से
जो बने थे पिछले दंगे में
जो इसी आका ने करवाए थे
इस बीच बढ़ता जा रहा है धुआं
कुछ ने धुएँ की सीढ़ी पकड़ कर थाम ली है आका की गर्दन
उसे उतारकर बैठा दिया है नया नायक
पर धुआं अब भी फैल रहा है
जांच समिति अभी भी चुप है
देख रही तमाशा
कैसे कहे
उन्हें दिखता है वही धुआं
निकलता
इस नए आका की नाक से भी
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक-५॰५, ५॰६, ६॰३५
औसत अंक- ५॰८१६६७
स्थान- उन्नतीसवाँ
च
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ५॰७, ६, ५॰८१६६७(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰८७९१६७
स्थान- नौवाँ
अंतिम जज की टिप्पणी-
यथार्थ को अच्छी तरह प्रस्तुत करती है रचना।
कला पक्ष: ७/१०
भाव पक्ष: ७/१०
कुल योग: १४/२०
स्थान- सातवाँ
पुरस्कार- सूरज प्रकाश द्वारा संपादित पुस्तक कथा-दशक'
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
फिर उन लाशों के ढेर से
जो बने थे पिछले दंगे में
जो इसी आका ने करवाए थे
इस बीच बढ़ता जा रहा है धुआं
कुछ ने धुएँ की सीढ़ी पकड़ कर थाम ली है आका की गर्दन
उसे उतारकर बैठा दिया है नया नायक
पर धुआं अब भी फैल रहा है
जांच समिति अभी भी चुप है
देख रही तमाशा
कैसे कहे
उन्हें दिखता है वही धुआं
निकलता
इस नए आका की नाक से भी
" बहुत अच्छी रचना के लिए बधाई"
Regards
पुरस्कृत कविता धुआं इतनी सशक्त है कि यह जान कर आश्चर्य हुआ इसे सातवां स्थान क्यों मिला है. इसे प्रथम तीन कविताओं में होना चाहिए था. स्वयं एक प्रतियोगी होते हुए भी ऐसा कह रहा हूँ इससे आश्चर्य चकित न हों. जो कवि आज की परिस्थितियों से स्वयं को दो चार करता है वो ही सच्चा कवि है. मैंने अपनी राय दे दी है. आशा है कोई बुरा नहीं मानेगा. प्रेमचंद सहज्वाला नयी दिल्ली
सही कहा आपने
शहर में हर ओर धुआं फैल रहा है
धुआं
स्याह
जहरीला
बिना चाँद की रात के अंधेरे-सा
लोग परेशां हैं
आखिर वज़ह क्या है इस धुएँ की
डरे हुए टकटकी लगाये देख रहे हैं
लोगों के आका ने बैठा दी जांच समिति
धुएँ के कारण ढूँढ़ रही है समिति
उलटती-पुलटती
गूंगे सबूतों को
समिति ने पूरी कर ली है अपनी जांच
पर वो चुप है
दिखा नहीं रही अपनी रिपोर्ट
कैसे कहे उन्हें दिखता है धुआं निकलता उसी आका की नाक से
यह धुआ इतना फ़ैल चुका है कि किस किस का नाम ले जाच समिती भी |बहुत पसंद आई आपकी कविता ,हार्दिक शुभकामनाए ......सीमा सचदेव
डा. रमा द्विवेदी said....
धुंआ कविता समकालीन यथार्थ को अभिव्यक्त करती है, कवि ने नवीन विषय पर लिखा, थोडा प्रस्तुतीकरण अगर और सुगठित कर पाते तो और भी अच्छा होता....कवि में अनेक संभावनाएं नज़र आ रही हैं....वे निश्चित ही बधाई के पात्र हैं...शुभकाअमनाओं सहित...
सामायिक लिखा है रचनाकार ने.. अच्छी प्रस्तुति
समिति ने पूरी कर ली है अपनी जांच
पर वो चुप है
दिखा नहीं रही अपनी रिपोर्ट
कैसे कहे उन्हें दिखता है धुआं निकलता उसी आका की नाक से
शायद साइड इफ़ेक्ट है
लाखों डकार जाने का
बढिया...
पावस नीर जी
आपकी कविता बहुत ही सुंदर बन पड़ी है-
समिति ने पूरी कर ली है अपनी जांच
पर वो चुप है
दिखा नहीं रही अपनी रिपोर्ट
कैसे कहे उन्हें दिखता है धुआं निकलता उसी आका की नाक से
शायद साइड इफ़ेक्ट है
लाखों डकार जाने का
बधाई
paawas neer ne jo aawaz uthayi hai...uske liye dhanyavaad....
धुएं से वर्तमान पर गहरा आघात करने का अनोखा प्रयाश कीया है जो की अतुलनीय है
पावस नीर जी आपकी यह कविता आज की वर्तमान स्तिथि को दर्शा रही है आज के नेता लोगो के जीवन ..
फैले करप्शन और घोटालों को आपने भली भांति दर्श्या है
बधाई
आखिर वज़ह क्या है इस धुएँ की
डरे हुए टकटकी लगाये देख रहे हैं
लोगों के आका ने बैठा दी जांच समिति
धुएँ के कारण ढूँढ़ रही है समिति
उलटती-पुलटती
गूंगे सबूतों को
बहुत बढिया बधाई
फिर उन लाशों के ढेर से
जो बने थे पिछले दंगे में
जो इसी आका ने करवाए थे
इस बीच बढ़ता जा रहा है धुआं
कुछ ने धुएँ की सीढ़ी पकड़ कर थाम ली है आका की गर्दन
उसे उतारकर बैठा दिया है नया नायक
पर धुआं अब भी फैल रहा है
जांच समिति अभी भी चुप है
देख रही तमाशा
कैसे कहे
उन्हें दिखता है वही धुआं
निकलता
इस नए आका की नाक से भी
पावस जी,सशक्त रचना,अभी और भी आयाम स्थापित करने हैं.लगे रहो
शुभकामना
आलोक सिंह "साहिल"
बहुत बढ़िया कटाक्ष है, बधाई स्वीकारें।
रचना कथ्य को पूरी तरह संप्रेषित तो करती है पर पाठक के हृदय को आंदोलित नहीं कर पाती. कई स्थानों पर अति-गद्यात्मकता अखरती है. कुल मिलकर अच्छी रचना है.
पावस नीर एक कवि के तौर पर बहुत सी उम्मीदें देते हैं, पिछली बार से हट कर इस बार भी उनकी प्रस्तुति बेहद दमदार है, जब कोई लगातार अलग अलग विषयों पर बेहद नए और निजी अंदाज़ में अपनी बात रखता है, तो समझिए उसमे प्रतिभा है, पावस इस कसौटी पर यकीनन खरे उतरते हैं.... बहुत बहुत बधाई पावस.... आगे भी इसी तरह लिखते रहें......
पावस नीर जी, आपसे उम्मीदें बढ़ गईं हैं। बहुत सुन्दर लिख रहे हैं आप।
आखिर वज़ह क्या है इस धुएँ की
डरे हुए टकटकी लगाये देख रहे हैं
लोगों के आका ने बैठा दी जांच समिति
धुएँ के कारण ढूँढ़ रही है समिति
उलटती-पुलटती
गूंगे सबूतों को
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)