है ज़मीं ये जल रही
आसमाँ ये जल रहा
घर पड़ोसी का नहीं ये
देश मेरा जल रहा
आज अरि के हाथ में कुछ सुत हमारे खेलते हैं
घात करके मातृभू संग ये अधम धन तोलते हैं
आज उन सब के लिये न्याय का प्रतिकार दो
विंहसता है कुटिल अरि अब युद्ध में ललकार दो
नीर आँखों का हुआ है व्यर्थ सब
और अब तो क्षीर शोणित बन रहा
घर पड़ोसी का नहीं ये
देश मेरा जल रहा
आग ये किसने लगाई क्यों लगाई किस तरह
राष्ट्र के सम्मुख खड़े कुछ यक्ष प्रश्न इस तरह
किस युधिष्ठिर की चाह में राष्ट्र के पाँडव पड़े हैं
प्रतीक्षा में कृष्ण की हम मूक जैसे क्यूँ खड़े हैं
क्यों कारगिल की राह में
सैनिक हमारा छल रहा
घर पड़ोसी का नहीं यह
देश मेरा जल रहा
अरि हमें ललकारता है मातृभू ललकारती है
महाकौशल के लिये फिर जन्म भू पुकारती है
उठो जागो सत्य सिन्धु सजीव मानस
कर गहो गाँडीव फिर से बनो तापस
रक्त अब राणा शिवा का हर शिरा में उबल रहा
शीष लेकर हाथ में ‘कान्त’ इस पथ चल रहा
घर पड़ोसी का नहीं ये
देश मेरा जल रहा
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
शानदार कविता जी काफ़ी समय बाद वीर रस से भरी इतनी अच्छी कविता पढी..
.,वाह! श्रीकांत मिश्री , जवाब नही आप का बहुत सुंदर लिखा है आपने .बहुत दिनों बाद देश - भक्ति पर ऐसी सुंदर रचना पढी मैंने मजा आ गया
राजीव रंजन जी, आप की रचना मुझे बहुत पसंद आई
बहुत ही अच्छा विषय चुना है आपने और उससे भी अच्छा आपने देश - भक्त , "भगतसिंह'' पर अपने विचार लिख कर रचना मे
चार चाँद लगा दिए हैं
धन्यवाद
कमाल है भाई ! बहुत ही अच्छी कविता. मन प्रसन्न हो गया. बधाई ....
उठो जागो सत्य सिन्धु सजीव मानस
कर गहो गाँडीव फिर से बनो तापस
--- देशभक्ति का सन्देश देती रचना. शुभकामनाएँ
अच्छी रचना है. कम शब्दों मे अपने काफ़ी कुछ लिख दिया.
आज अरि के हाथ में कुछ सुत हमारे खेलते हैं
घात करके मातृभू संग ये अधम धन तोलते हैं
आज उन सब के लिये न्याय का प्रतिकार दो
विंहसता है कुटिल अरि अब युद्ध में ललकार दो
बहुत सुन्दर! श्रीकांतजी
देश की हालत का सही चित्र!
नीर आँखों का हुआ है व्यर्थ सब
और अब तो क्षीर शोणित बन रहा
घर पड़ोसी का नहीं ये
देश मेरा जल रहा
" बहुत सुंदर देश भक्ती पर एक भावपूर्ण रचना"
एक रक्षा अधिकारी की कलम से निकले सच्चे जज्बात...
वीर रस की सुंदर कविता
घर पड़ोसी का नहीं ये
देश मेरा जल रहा
क्या खूब कहा श्री कान्त जी आपने
वास्तव में देश को जागने की जरोरत है इस वक्त
उन्हें यह सब बताने की... भूल गए है लोग
आपकी यह कविता लोगों तक पहुंचे ताकि लोग देश को जलने से बचा सके
जय हिंद
अंजू गर्ग
श्रीकांत जी,
कर शब्द चुन-चुन कर प्रयुक्त हुआ तथा ओजस्वी है। इस रस की रचना में जो प्रवाह बन पडा है वह विलक्षण है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बड़ा योज और तेज लिए है रचना |
अवनीश तिवारी
अरि हमें ललकारता है मातृभू ललकारती है
महाकौशल के लिये फिर जन्म भू पुकारती है
उठो जागो सत्य सिन्धु सजीव मानस
कर गहो गाँडीव फिर से बनो तापस
बहुत जोश से भरी और अच्छी रचना लगी श्रीकांत जी !!
डा. रमा द्विवेदीsaid...
सुन्दर भाव, कुशल शब्द संयोजन और ओज से परिपूर्ण आपकी कविता बहुत अच्छी लगी....साधुवाद स्वीकारें....
कान्त जी, अच्छी रचना। आपकी राष्ट्र-चेतना वंदनीय है। शब्दों का सटीक प्रयोग। हाँ एक प्रश्न है मन में-
घर पड़ोसी का नहीं ये
देश मेरा जल रहा
इससे आपका क्या मंतव्य है? क्योंकि पड़ोसी का घर जलना भी उतना ही दुःखदायी है।
प्रशंसनीय रचना है, जोश-खरोश एवं होश से भरपूर। बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
sachch kaha aapne apanaa hi desh jal rahaa hai ,aur ham hi tamaashaa dekh rahe hai...seema
बन्धु रविकांत पाण्डेय जी !
आपकी बात से मैं पुरी तरह सहमत हूँ कि घर किसी का भी जले परन्तु अंततः विनाश सभी का होता ही है इसलिए इस विचार से पड़ोसी का घर सदैव हमारे लिए उतना ही महत्वपूर्ण होना चाहिए जितना कि हमारा स्वयम का. किंतु इस रचना में मैंने पड़ोसी शब्द का प्रतीकार्थ जिस सन्दर्भ में लिया है वह सर्वविदित है और स्वयम कि सुरक्षा बिना किसी का अहित चिंतन किये प्रत्येक का कर्तव्य और उत्तरदायित्व भी है.
दूसरी बात पड़ोसी यदि पड़ोसी के धर्म का मर्म जनता और मानता है तो ..... और उसके विपरीत आचरण करने वाले पड़ोसी के लिए ही 'पड़ोसी का घर' एक मुहावरे के रूप में भी प्रयुक्त होता है.
वस्तुतः आप सब को यह रचना अच्छी लगी इसके लिये सभी मित्रों का धन्यवाद
वाह! श्रीकांत जी सुन्दर भाव, कुशल शब्द संयोजन, ओजपूर्ण रचना के लिये मुबारकबाद
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