वैसे तो होली जा चुकी है..लेकिन रंग अभी भी चढ़े हुए हैं...
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
रंग हैं चोखे पास
पास नही हमजोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
देवर ने लगाया गुलाल,
मै बन गई भोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
ननद ने मारी पिचकारी,
भीगी मेरी चोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
जेठानी ने पिलाई भाँग,
कभी हंसी कभी रो दी रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
सास नही थी कुछ कम,
की उसने खूब ठिठोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
देवरानी ने की जो चुहल
अंगिया मेरी खोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
बेसुध हो मै भंग में
नन्दोई को पी बोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूँ होली रे !
कवि कुलवंत सिंह
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छा है कवि कुलवंत जी
एक भारतीय परिवार का वर्णन किया
अच्छी रचना
:(
*** राजीव रंजन प्रसाद
अच्छा पारिवारिक वर्णन है |
अवनीश तिवारी
सुंदर लगी आपकी यह रचना कवि जी !!
हा हा हा .. बढिया .
होली इतनी जमकर होली
फिर भी रही शिकायती बोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मैं किससे खेलूँ होली रे..
कवि कुलवंत जी, आप की रचना होली के रंगो की तरह बहुत ही प्यारी और रंगीन है
बहुत खूब ,
बधाई
होली की मस्ती साफ़ झलकती है रचना में।
बहुत प्यारी सी कविता है.
सभी को याद कर लिया है गौरी ने --.चलिये होली के बहाने ही सही!
यह क्या है?
सुंदर रचना
Regards
होली के प्रवाह और रंग से सराबोर :|
कविता को भंग पीकर हीं पढा जा सकता है, नहीं तो निराश करती है। भंग पीने के बाद वैसे भी हरेक धुन होरी हीं लगती है । अच्छा है...... :)
-विश्व दीपक ’तन्हा’
लगता है आपने भांग पीकर यह कविता लिखी है , बुरा न मानो होली है .....सीमा सचदेव
हिन्दी युग्म में सारे एसे ही poets हैं क्या?
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