प्रतियोगिता की २२वीं कविता के रूप में कवयित्री गरिमा सिंह की एक कविता प्रस्तुत है।
कविता- शीर्षक उपलब्ध नहीं
तुम हो तमस के उस पार,
मैं भटक रही,
मिले कोई रश्मि बिंदु,
जो भोर से चटक रही,
तो पार हो अंधेरे की नदी.
पंथ क्या चुन लूँ मैं,
क्या पंथ चलूं मैं,
लक्ष्य भी आँधियारे में छिपा है,
पहुँचूँगी वहाँ, कैसे जानूँ मैं,
क्या है, उसे नहीं मैं चिन्हती.
अपने कर बढ़ाकर
थाम लो यह पतवार,
मैं भटक रही
लेकर अपनी जर्जर नैय्या,
उसे लगा दो पार.
बहुत हुई यह आँख मिचौली,
चेतना ने आँखें खोलीं
स्मरण हुए जो उजियारे बिसराए,
मेरे मन मैं जब तुम आए
आख़िर कब तक आँधियारे में भटकती
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
गरिमा जी कविता तो अच्छी है किंतु मुझे ऐसा लगता है जेसे स्पष्ट रूप से जो आप कहना चाहती थी कह नही पाई
अधूरी सी लगती है
शीर्षक भी अगर आप दे तो अच्छा होगा
गरिमा जी बहुत अच्छी कविता लगी पर शायद थोड़ा विरोधाभास सा है| जहाँ तक में समझ पा रहा हूँ कविता की पंक्तियाँ..
"लक्ष्य भी आँधियारे में छिपा है,
पहुँचूँगी वहाँ, कैसे जानूँ मैं,"
तथा
"अपने कर बढ़ाकर
थाम लो यह पतवार,
मैं भटक रही
लेकर अपनी जर्जर नैय्या,
उसे लगा दो पार."
कुछ विपरीत सी बात करती प्रतीत होती हैं इसे आशावादिता कहें या निराशावदिता ? बात तो तब होती जब किससे को पुकारने की बजाय खुद ही निश्चय किया जाता लहरों से लड़कर किनारे लगने का ! जो अर्थ मैने निकाला उसके हिसाब से कह रहा हूँ आपने कुछ और सोचा हो तो स्पष्ट करें ..
तुम हो तमस के उस पार,
मैं भटक रही,
मिले कोई रश्मि बिंदु,
जो भोर से चटक रही,
.....................
क्या पंथ चलूं मैं,
लक्ष्य भी आँधियारे में छिपा है,
...................
भावाभिव्यक्ति में विरोधाभास नजर आती है ...
पर
बहुत हुई यह आँख मिचौली,
चेतना ने आँखें खोलीं
स्मरण हुए जो उजियारे बिसराए,
मेरे मन मैं जब तुम आए
आख़िर कब तक आँधियारे में भटकती
ये पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगी ........................
गरिमा जी विपुल जी व अंजू जी से सहमति जताते हुये यही कहना चाहुँगा की विरोधाभास के चलते स्पष्टता नहीं आ पायी है..
बहुत हुई यह आँख मिचौली,
चेतना ने आँखें खोलीं
स्मरण हुए जो उजियारे बिसराए,
मेरे मन मैं जब तुम आए
आख़िर कब तक आँधियारे में भटकती
ये पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगी
-- बहुत सुंदर है |
शीर्षक नही है ???
अवनीश तिवारी
Bahut khoobsurat kavita.. badhayee..
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