अस्थिर हो जाता मन,
जब बालू-बाँध-सी पहरा देती
स्थिर दृष्टि ,बिदक जाती है ....
समय की आँखों में छिपा भविष्य
आँकता चित्र किसी
काल्पनिक बिम्ब में ....
जब सोहर गातीं भावी पीढ़ियाँ
करतीं स्वागत भास जीवन का
खिलती वल्लारियों से
डोलती पंक्तियों से
अनगढ़ वर्तमान के लिए .....
पर ...
समुद्र रहता न स्थिर
जब कि जलराशि है नील ,
चेतना रहती न चौहद्दी में
अवचेतन जब रचनाशील !
गर स्वर उसमें गुंजित हो,
स्नेह साँसों में संचरित हो,
आँखों में अल्प अनुग्रह हो,
इच्छाओं का पृथक परिधि गढ़ता
भंगूर समय हो,
चित्र में ,रेखा में
तुम्हारा अस्तित्व हो, तो..
हे अधिप !
क्या आँक दोगे रूप-कल्प ,
आत्मीयता की तूलिका से
स्थिर मन के लिए ...........?
तभी तो
लहरों को तोड़कर
स्थिर दृष्टि से भविष्य देखेगा
प्रत्येक प्रवाह को ....?
सुनीता यादव
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
सुनीता जी .. क्या कहूँ आप निश्चित ही असाधारण प्रतिभा की स्वामिनी हैं !
इतनी गहराई में जाने के लिए तो मुझे बरसों लगेंगे| बात कहाँ से शुरू हुई और ख़त्म किस मोहक अंदाज़ में हुई ! वाह..
एक बार में समझ ही नही आता है कुछ| जब तक २-३ बार ना पढ़ो ज़ेहन में नही उतरता पर जब थोड़ा सा कुछ समझ आता है तो बरबस ही मुँह से वाह निकलती है |
किसी एक पंक्ति को उल्लेखित करके बाकी कविता की अवहेलना मैं नही कर पाऊँगा ..
सुंदर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई !
क्या आँक दोगे रूप-कल्प ,
आत्मीयता की तूलिका से
स्थिर मन के लिए ...........?
अच्छी रचना सुनीता जी बधाई आपको
सुनीता जी
बहुत ही सुंदर लिखा है-
क्या आँक दोगे रूप-कल्प ,
आत्मीयता की तूलिका से
स्थिर मन के लिए ...........?
तभी तो
लहरों को तोड़कर
स्थिर दृष्टि से भविष्य देखेगा
प्रत्येक प्रवाह को ....?
बधाई
समुद्र रहता न स्थिर
जब कि जलराशि है नील ,
चेतना रहती न चौहद्दी में
अवचेतन जब रचनाशील !
(लेकिन ...)
क्या आँक दोगे रूप-कल्प ,
आत्मीयता की तूलिका से
स्थिर मन के लिए ...........?
वाह सुनिता जी बहुत गहराई है
आपकी रचना में
जब बालू-बाँध-सी पहरा देती
स्थिर दृष्टि
डोलती पंक्तियों से
अनगढ़ वर्तमान के लिए
कई बिम्ब नये, अनूठे और सषक्त है। अच्छी रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
क्या आँक दोगे रूप-कल्प ,
आत्मीयता की तूलिका से
स्थिर मन के लिए ...........?
तभी तो
लहरों को तोड़कर
स्थिर दृष्टि से भविष्य देखेगा
प्रत्येक प्रवाह को ....?
अच्छी रचना बधाई आपको
सुन्दर...
विवेचना अल्पज्ञ के बस में नहीं..
क्या आँक दोगे रूप-कल्प ,
आत्मीयता की तूलिका से
स्थिर मन के लिए ...........?
तभी तो
लहरों को तोड़कर
स्थिर दृष्टि से भविष्य देखेगा
प्रत्येक प्रवाह को ....?
वाह, स्थिर दृष्टि की चाह लाजावाब....
ले उड़ पतंग
रेशा रेशा
रेशम डोरी का
खोल दिया
दे तोड़ बंध
सब भावों का
शब्दों का शिल्प
नील अम्बर
प्रस्तर प्रकृति के साथ साथ
....... अब आगे कुछ नहीं कहूँगा. संयोग से आज नेट ठीक नहीं था. इसलिए मेरी टिपण्णी प्रातः नहीं आयी. अच्छा ही हुआ, नहीं तो आपकी रचना की वाट लग जाती ....... शुभकामनाएं
पुनश्च:
कोई मित्र यह बताये कहीं वाट शब्द का 'राज कापी राइट' तो नहीं है नहीं तो मेरी भी वाट लग जाए कापीराइट उल्लंघन दोष में ......
अच्छी रचना सुनीता जी ,
हे अधिप !
क्या आँक दोगे रूप-कल्प ,
आत्मीयता की तूलिका से
स्थिर मन के लिए ...........?
सुक्ष्म के प्रति स्थूल का यह आवेग कभी छायावाद की चिन्हित प्रकृति हुआ करता था ! कविता में संप्रेषित भावों को समझने में थोड़ी कसरत जरूर कानी पडी और सच कहूं तो महादेवी वर्मा के अनायास स्मरण ने ही इस प्रक्रिया को मेरे लिए सरल बनाया !
मुझे हार्दिक खुशी है की आज भी ऐसी कवितायें लिखी जा रही हैं !
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