फिर रात हुई
पूरे दिन सारे संसार को आलोकित करता
मूल शक्ति स्रोत सूरज
धीरे धीरे ठंडा होता हुआ
बुझ गया
दूर उस मकान के पीछे बहती
अंधेरे की नदी में
एक मामूली से अंगारे की तरह!
यूँ तो
बुझने के कुछ बाद तक भी
उसकी यादों का उजाला था
पर वो भी कब तक साथ निभाता
और तब रात के उस सहमे सन्नाटे में
निकल पड़े चंद तारे
मिलजुल कर
अंधेरे का सामना करने
रात खत्म तो फिर भी नहीं हुई
पर उसकी भयानकता अब कुछ कम थी
संसार में अब भी रात है
विचारों की, भूख की, वैमनस्य की
क्यों न हम ही तारे बन जायें
जब तक कि कोई सूरज
इस रात को खत्म नहीं कर देता!
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
अजय जी,
कविता कई सवालों को जन्म देती है:
अ) क्या सूरज अंधेरे से हार गया? पर कैसे? धीरे धीरे क्यों ठंडा हुआ?
ब) तारे इकट्ठे तो हुए लेकिन केवल भयानकता कम हो सकी? मिल जुल कर तारे जीते नही या कि नहीं बन सके सूरज?
स) इतने पर भी फिर उसी सूरज से उम्मीद क्यों?
*** राजीव रंजन प्रसाद
संसार में अब भी रात है
विचारों की, भूख की, वैमनस्य की
क्यों न हम ही तारे बन जायें
जब तक कि कोई सूरज
इस रात को खत्म नहीं कर देता!
" एक अच्छी सोच और एक अच्छा संदेश , सुंदर कवीता"
Regards
ajay ji yahaa par to mera apani kavita likhane ko man kar raha hai........
हुआ क्या जो रात हुई
हुआ क्या जो रात हुई,
नई कौन सी बात हुई |
दिन को ले गई सुख की आँधी,
दुखों की बरसात हुई |
पर क्या दुख केवल दुख है,
बरसात भी तो अनुपम सुख है |
बढ़ जाती है गरिमा दुख की,
जब सुख की चलती है आँधी |
पर क्या बरसात के आने पर,
कहीं टिक पाती है आँधी|
आँधी एक हवा का झोंका,
वर्षा निर्मल जल देती |
आँधी करती मैला आँगन,
तो वर्षा पावन कर देती |
आँधी करती सब उथल-पुथल,
वर्षा देती हरियाला तल |
दिन है सुख तो दुख है रात,
सुख आँधी तो दुख है बरसात |
दिन रात यूँ ही चलते रहते ,
थक गये हम तो कहते-कहते |
पर ख़त्म नहीं ये बात हुई,
हुआ क्या जो रात हुई |
अजय जी!
तारा नहीं सूरज बनिये।
बस एसे ही हिम्मत बनाये रखिये.....
संसार में अब भी रात है
विचारों की, भूख की, वैमनस्य की
क्यों न हम ही तारे बन जायें
जब तक कि कोई सूरज
इस रात को खत्म नहीं कर देता!
-- सुंदर है |
अवनीश तिवारी
अजय जी,
अत्यन्त आशावादी कविता.....तारे क्यूं सूरज बनने का आवहन होना चाहिये....
राजीव जी के प्रश्नों के उत्तर मेरी नजर से :
१. असल में अन्धेरा कुछ होता ही नहीं.. सिर्फ़ रोशनी का अस्तित्व है जिसे हम साईंस से सिद्ध कर सकते हैं... अंधेरा तो रोशनी के न होने की स्थिति है. दूसरा शायद सूरज २४ घंटे भी चमक सकता है परन्तु फ़िर हमारा क्या होता :)
२. तारों का आगमन (लाखो सूरजों का आगमन) भले ही वह बहुत दूर हैं. चांद के साथ रात में एक सुखद अहसास है.
३. सूरज का लौट आना निश्चित.. एक सुखद अहसास
मोहिन्दर जी,
आपका उत्तर सटीक है और मैं निरुत्तर :)
मेरा अजय जी से केवल इतना ही कहना था कि कविता कहीं से भी आशावादी नहीं है। कविता तारे बन कर "एक सूरज का इंतजार करने की नसीहत देती है" जैसे हम पडोसी के घर में भगतसिंह होने की लम्बी प्रतीक्षा में हैं। तारे सूरज की प्रतीक्षा न करते और सूरज बनजाने को एक जुट खडे होते तो आशावादिता थी...हाँ यह साईंस की दृष्टि से असंभव है :)
*** राजीव रंजन प्रसाद
अजय जी एक बेहतरीन आशावादी कविता,बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
क्या कहना अजय जी
यूँ तो
बुझने के कुछ बाद तक भी
उसकी यादों का उजाला था
पर वो भी कब तक साथ निभाता
और तब रात के उस सहमे सन्नाटे में
निकल पड़े चंद तारे
पर क्या दुख केवल दुख है,
बरसात भी तो अनुपम सुख है |
बढ़ जाती है गरिमा दुख की,
जब सुख की चलती है आँधी |
पर क्या बरसात के आने पर,
कहीं टिक पाती है आँधी|
आँधी एक हवा का झोंका,
बहुत सुंदर बधाई
रचना को पढ़ने और इस पर अपने विचार रखने के लिये मैं आप सब का आभारी हूँ. कुछ मित्रों ने रचना को निराशावादी माना तो कुछ ने तारों की जगह सूरज बनने का आवाह्न चाहा. इस विषय में मेरा मानना है कि अच्छी दिशा में की गई कोई भी पहल अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण होती है और पहला कदम प्राय: छोटा ही होता है. भगतसिंह के राष्ट्रीय-पटल पर आने से पूर्व भी कई देशभक्त अपने प्राणों की बाजी लगाते रहे पर शहीदे-आज़म नहीं बन सके. पर इससे उनके योगदान को कमतर नहीं आँका जा सकता. यूँ भी भगतसिंह को इस मुकाम तक पहुँचाने में ऐसे देशभक्त वीरों की प्रेरणा कम बड़ा कारण नहीं थी.
इसी तरह करोड़ों तारों में से कोई एक-दो ही जीवनदायी सूर्य हो सकते हैं. अत: मैं मानता हूँ कि हमें तारों की तरह बनने का प्रयास करना चाहिये, क्या पता कल हम में से ही कोई इस रात के लिये सूरज बन जाये!
जुगनू बनिए , तारे बनिए.... या दीपक बन जल उठिए मकसद अँधेरा दूर करना है.... आप तो कलम उठा ही चुके है कविवर, बस आवाज़ और बुलंद कीजिये ....
अजय जी,
मैं आपके स्पष्टीकरण से पूर्णत: सहमत हूँ। बस यही बात कविता में दृष्टिगोचर नहीं हुई इस लिये टिप्पणी की थी। तारे को प्रतत्नशील होना चाहिये न कि प्रतीक्षारत। तारे दरअसल खुद में स्वयंभू सूरज ही तो हैं...
*** राजीव रंजन प्रसाद
अजय जी बहुत ही अच्छी रचना है ....
खास कर ये पंक्तिया
"संसार में अब भी रात है
विचारों की, भूख की, वैमनस्य की
क्यों न हम ही तारे बन जायें
जब तक कि कोई सूरज
इस रात को खत्म नहीं कर देता!"
राजीव जी , मोहिंदर जी और अजय जी के स्पष्टीकरण से मामला ख़त्म हो चुका है | कविता की आशावादिता पर मुझे संदेह नहीं बस उसे ठीक तरह से लेने की आवश्यकता है |
वरण करने योग्य संदेश है ..
संसार में अब भी रात है
विचारों की, भूख की, वैमनस्य की
क्यों न हम ही तारे बन जायें
जब तक कि कोई सूरज
इस रात को खत्म नहीं कर देता!
सुंदर रचना के लिए बधाई अजय जी....
शुरूआती पंक्तियों से लगा कि आप बहुत बढ़िया कविता कहने वाले हैं, लेकिन बहुत जल्द ही कमजोर पड़ गये, कविता को समेटने के चक्कर में एक साधारण कविता कह गये। दुःखी हुआ।
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