एक पंखुड़ी का आलिंगन करती
भारी भरकम काया
लो चील ने फैला दिये अपने डैने
मंडराया अंधियारे का साया
निर्दयी सांपों की तरह घेरते
तमाशबिनों का नाच
रोती चिल्लाती लज्जा से
दरिंदे पाते आंच
खिलखिलाहट करती प्रेतात्मायें अब
मौत का इश्तिहार टांगती
जीती जागती लाश से
उसके लहू-मांस का हिसाब मांगती
चोंट के निशान से क्षतविक्षत शरीर
अंधियारे ढंक रहे घाव
तरस खाकर दुर्गन्ध करती
शरीफ नजरो से बचाव
क्या लेना देना किसी से ?
क्यों इन मच्छरों को लाश पर से भगाना !
मुनासिब नहीं दुनियांदारी से बाहर
कोईं बेकार की बला गले लगाना (??)
- हरिहर झा
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
खिलखिलाहट करती प्रेतात्मायें अब
मौत का इश्तिहार टांगती
जीती जागती लाश से
उसके लहू-मांस का हिसाब मांगती.....waah harihar ji...bahut khoob...
रचना मेरे लिए नवीन लगी |
सुंदर...
अवनीश तिवारी
क्या लेना देना किसी से ?
क्यों इन मच्छरों को लाश पर से भगाना !
मुनासिब नहीं दुनियांदारी से बाहर
कोईं बेकार की बला गले लगाना (??)
हरिहर जी, आपकी रचना गहरी चोट करने में सक्षम है। बहुत सशक्त बिम्बों के माध्यम से कही गयी बेहद गंभीर रचना...
*** राजीव रंजन प्रसाद
हरिहर जी,
एक पंखुड़ी का आलिंगन करती
भारी भरकम काया
लो चील ने फैला दिये अपने डैने
मंडराया अंधियारे का साया
निर्दयी सांपों की तरह घेरते
तमाशबिनों का नाच
रोती चिल्लाती लज्जा से
दरिंदे पाते आंच
बड़ा ही वीभत्स चित्रण है आपकी रचना में
चोंट के निशान से क्षतविक्षत शरीर
अंधियारे ढंक रहे घाव
तरस खाकर दुर्गन्ध करती
शरीफ नजरो से बचाव
क्या लेना देना किसी से ?
क्यों इन मच्छरों को लाश पर से भगाना !
मुनासिब नहीं दुनियांदारी से बाहर
कोईं बेकार की बला गले लगाना (??)
" सही कहा , इन्सानीयत का बहुत मार्मिक और विचित्र चित्रण , कोई किसी की बला लेने को तैयार नही, "
Regards
बहुत खूब हरिहर जी ,
क्या लेना देना किसी से ?
क्यों इन मच्छरों को लाश पर से भगाना !
मुनासिब नहीं दुनियांदारी से बाहर
कोईं बेकार की बला गले लगाना (??)
अतिसुन्दर
हरिहर जी,
सशक्त बिम्बों का प्रतिबिम्ब लिये हुए ह्रदयेभेदी रचना है
खिलखिलाहट करती प्रेतात्मायें अब
मौत का इश्तिहार टांगती
जीती जागती लाश से
उसके लहू-मांस का हिसाब मांगती.....
इन पंक्तियो ने दिल को झंकझो्र दिया है बधाई हो
खिलखिलाहट करती प्रेतात्मायें अब
मौत का इश्तिहार टांगती
जीती जागती लाश से
उसके लहू-मांस का हिसाब मांगती
एक सच को बयान करती है आपकी यह रचना अच्छा लगा इसको पढ़ना हरिहर जी !!
सच्चाई को मुखरता से उभर है आपने
आलोक सिंह "साहिल"
मर्म को भेदती कविता हरिहर जी ....
बेहतरीन रचना है हरिहर जी।
एक-एक बिंब मर्मस्पर्शी है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
निर्दयी सांपों की तरह घेरते
तमाशबिनों का नाच
रोती चिल्लाती लज्जा से
दरिंदे पाते आंच
बहुत खूब
मुनासिब नहीं दुनियांदारी से बाहर
कोईं बेकार की बला गले लगाना (??)
वाकई में वर्त्तमान स्थिति को स्पष्ट रूप में प्रदर्शित करने का प्रयाश किया है ....
क्या लेना देना किसी से ?
क्यों इन मच्छरों को लाश पर से भगाना !
मुनासिब नहीं दुनियांदारी से बाहर
कोईं बेकार की बला गले लगाना (??)
हरिहर जी, सशक्त रचना।
achchi kavita
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