यूनिकवि प्रतियोगिता के फरवरी २००८ अंक के परिणाम हमने कल ही प्रकाशित किये हैं। अब तो प्रतियोगिता की कविताओं की पदचाप आप पूरे महीने सुनेंगे। दूसरे स्थान के कवि पीयूष पण्डया हमारी इस प्रतियोगिता में पिछले वर्ष तीन बार भाग लिये थे। काफी दिनों से हिन्द-युग्म को भुला रखा था, अब फिर से हिन्द-युग्म को अपनी कविता से सजाने आये हैं। इस बार 'एक शख़्स था' कविता लेकर उपस्थित हैं।
इनका जन्म मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में 29 फ़रवरी 1988 को हुआ। पिता श्री अनिल भाई पंडया कृषि उपज मंडी में कार्यरत थे तथा माँ मधुरी बेन पंडया निहायत आध्यात्मिक गुजराती घरेलू महिला थीं। परिवारिक पृष्ठभूमि का दूर से भी साहित्य से कोई संबंध नहीं था, परंतु प्रोत्साहन सदैव मिला। पिता कहते थे-" हमेशा टशण में रहो पर इसके लिए तुम्हें यह पता होना ज़रूरी है कि तुम अपनी काबिलियत का यूज़ कैसे करते हो...इसके बिना तुमने अकड़ दिखाई तो मूर्ख कहलाओगे और यहाँ सभी में काबिलियत है सो सबका सम्मान करो पर तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम स्पेशल हो"। पीयूष कहते हैं- "मेरा परिवार अवस्थी परिवार (तारे ज़मीन पर) की तरह ही था। कला का पुट मुझमें माँ ने ही डाला और सच कहूँ तो कक्षा 7 तक मेरे जूते मुझे माँ ही पहनाया करती थीं। पिता का स्थानांतरण होता रहता था सो घूमने को बहुत मिला। गाँवों को, आदिवासियों को महसूस किया है। फिर आए होशंगाबाद यानी की नर्मादापुरम, नर्मदा की नगरी। 6 से 12 वी तक यहीं रहा। अनिला मैम और गुरु मैम से काफ़ी प्रोत्साहन मिला, अत: आभारी हूँ। इसके पश्चात महाविद्यालय में संपादक बनना बड़ी उपलब्धि थी। अब तक स्वयं के लिए लिखने वाला क्षेत्र व्यापक हो रहा था, और अब पीछे नहीं देखना था पीछे था पंकज पंडया दीवार की तरह, सहारा देने के लिए भी और जताने के लिए की वापस नहीं जाना है। वो बहुत ऊपर है और महान भी पर ईश्वर कह कर उससे नफ़रत नहीं करना चाहता"
पीयूष आगे कहते हैं- "जब मैं 13 साल का था तब माँ के देहावसान ने घर को तोड़ डाला। फिर 2 साल बाद पिता को भी ऊपर बुला लिया गया। ईश्वर से चिड़ होती थी कभी, अब नहीं होती ...... खैर इन सब ने मेरी कविता को जन्म दिया ....... . कविता लिखना अच्छा नहीं लगता .. बस मेरी पीड़ा है जिसे काग़ज़ पर विसर्जित करना मेरी मजबूरी। हृदय से मैं घोर नकारात्मक हूँ, यहाँ तक की मेरे हस्ताक्षर में भी बड़ा सा क्रॉस है। खैर मेरी रचनात्मकता जो सकारात्मक है और इस काले रंग का द्वंद्व सदैव चलता रहता है और मंथन से कुछ निकलना लाज़मी है सो वह मेरी कविता है। मेरी एक प्रशंसक-कम-मित्र ने मुझसे पूछा कि तुम हमेशा रिश्तों पर नकारात्मक ही क्यूँ लिखते हो? इस वाक्य ने मुझे बुरी तरह चौंका दिया क्यूँकि मैंने इस पर कभी ध्यान ही नहीं दिया था। खैर जो भी हो यह सही है पर क्यूँ है इसका जवाब मैं नहीं दे पाऊँगा"
पुरस्कृत कविता- एक शख़्स था
एक शख्स था......................
मैं उसके अंदर जीता था और वो
मेरे अंदर..
वो जहाँ रहता था वहीं से ........
कभी कपड़े तो कभी फल ला दिया करता था........
उससे कह दे कोई....
साँसें ख़त्म हो रही हैं....
मुट्ठी भर और दे जाए..
उस शख्स को ......
मैंने सिगरेट की तरह पिया.......
यादों की राख बाकी है......
कह दो उससे की ........
सिगरेट की लत बदतमीज़ है.... छूटती ही नहीं साली
दर्द का तो थान छोड़ गया था
सो रोज एक टुकड़ा फाड़ कुर्ता सी लेता हूँ...
वही ओढ़ लेता हूँ वही पी लेता हूँ...
क्यूंकि पानी भी नहीं बचा ...
नमक काफ़ी है आँखों में सो........
नमक न लाए...
हाँ एक और बात ....
सांस की कमी से
कीड़े कुलबुलाने लगे है...
विचारों के, खला के, अनुपस्थिति के,
मारना है....
सो
अगर साँसे ना लाए तो
थोड़ा ज़हर ही लेता आए................................................
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ५॰४, ७॰२५
औसत अंक- ५॰८८३३
स्थान- चौबीसवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ६॰३, ६, ५॰८८३३(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰०४५८३
स्थान- आठवाँ
अंतिम जज की टिप्पणी-
कवि की शब्दों और मनोभावों पर गहरी पकड प्रतीत होती है। रचना में सम्मोहन है।
कला पक्ष: ९/१०
भाव पक्ष: ८॰५/१०
कुल योग: १७॰५/२०
पुरस्कार- सूरज प्रकाश द्वारा संपादित पुस्तक कथा-दशक'
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
उस शख्स को ......
मैंने सिगरेट की तरह पिया.......
यादों की राख बाकी है......
कह दो उससे की ........
सिगरेट की लत बदतमीज़ है.... छूटती ही नहीं साली
पीयूष, ..... गजब लिखा है भाई...... आपका अंदाज़ लाजवाब है..... यूनिकवि चुने जाने की बधाई..
लगता है इस बार युग्म को तराशे हुए हीरे मिले हैं प्रतियोगिता से...
सांस की कमी से
कीड़े कुलबुलाने लगे है...
विचारों के, खला के, अनुपस्थिति के,
मारना है....
सो
अगर साँसे ना लाए तो
थोड़ा ज़हर ही लेता आए.
बधाई पीयूष जी
अगर साँसे ना लाए तो
थोड़ा ज़हर ही लेता आए, बहुत खूब.....दिल को छू लेने वाली लाईने हैं
पीयूष, आपको बधाई यूनिकवि बनने की. सुरिंदर रत्ती मुम्बई
दर्द का तो थान छोड़ गया था
सो रोज एक टुकड़ा फाड़ कुर्ता सी लेता हूँ...
वही ओढ़ लेता हूँ वही पी लेता हूँ...
क्यूंकि पानी भी नहीं बचा ...
नमक काफ़ी है आँखों में सो........
नमक न लाए...
_वाह !बहुत गहराई से भावों को जीया है आप की कलम ने इस कविता में पीयूष जी.
_दूसरे स्थान पर आने के लिए बधाई.
अगर साँसे ना लाए तो
थोड़ा ज़हर ही लेता आए,
यूनिकवि बनने की बधाई..
वाह.. बहुत बढिया... लिखते रहें
शुभकामनयें..
वाह.. बहुत बढिया... असीम दर्द का अहसास.......
दर्द का तो थान छोड़ गया था
सो रोज एक टुकड़ा फाड़ कुर्ता सी लेता हूँ...
वही ओढ़ लेता हूँ वही पी लेता हूँ...
कमाल की पंक्तिया........बधाई पीयूष जी
पीयूष भाई !
कविता में तीक्ष्ण मनोभावों की सफल अभिव्यक्ति तो हुई है किंतु मेरे ख्याल से बिम्व और प्रतीक सुग्राह्य नही हैं ! हालांकि कविता में आपकी शख्सियत काफी मुखर है !
बधाई !
उससे कह दे कोई....
साँसें ख़त्म हो रही हैं....
मुट्ठी भर और दे जाए..
उस शख्स को ......
मैंने सिगरेट की तरह पिया.......
यादों की राख बाकी है......
मुझे आपकी यह रचना बहुत पसंद आई पीयूष जी ..यूनिकवि चुने जाने की बधाई..!!
पीयूष भाई .. थोड़ा सा चूक गये ! खैर कोई बात नहीं,लगे रहो.. मंज़िल मिल ही जाएगी|
बहुत बहुत बधाई दूसरे स्थान के लिए!
इस बार की कविता सीधे दिल से निकली है|मज़ा आ गया पढ़कर|क्या खूब लिखा है ...
"उससे कह दे कोई....
साँसें ख़त्म हो रही हैं....
मुट्ठी भर और दे जाए.."
इन पंक्तियों ने तो कमाल कर दिया
"दर्द का तो थान छोड़ गया था
सो रोज एक टुकड़ा फाड़ कुर्ता सी लेता हूँ...
वही ओढ़ लेता हूँ वही पी लेता हूँ...
क्यूंकि पानी भी नहीं बचा ...
नमक काफ़ी है आँखों में सो........
नमक न लाए..."
मुझे पता है तुम और बेहतर लिख सकते हो| पर हाँ बेहतर लिखना जितना कठिन है लगातार बेहतर लिखते रहना उससे भी कठिन !
तुम ज़रूर मेरी आशाओं पर खरे उतरोगे ... ऐसा मेरा विश्वास है !
बधाई |
नवीन रचना लगी |
साली शब्द का प्रयोग ना होता तो औरअच्छा लगता |
अवनीश तिवारी
पीयूष जी आपको बहुत बहुत बधाई
आप बहुत गहराई से लिखते हैं
सांस की कमी से
कीड़े कुलबुलाने लगे है...
विचारों के, खला के, अनुपस्थिति के,
मारना है....
अति सुंदर
लिखते रहिये
आप लोगों की हौंसला अफजाई के लिए शुक्रिया ..............मानता हूँ की कविता थोडी विवादास्पद हो सकती है
इसके बिम्ब तथा प्रतीक थोड़े अलग है....पर विषय वही conventional ही है
और फिर बात यह भी है की कवी तो वही लिखेगा जो उअसके दिमाग में चल रहा होगा..........
कविता सोच समझ के लिखी जाने लगे तो वह कविता कैसी?
आप लोगो की टिप्पणियों का आभारी हूँ इससे मैं प्रोत्साहित ही होऊंगा तथा इस बार जो .५ अंक से चूका हूँ वह नहीं रहूँगा ........
एक दुःख का विषय यह है की जज ने कविता को भाव पक्ष में कम अंक दिए है जबकि आपलोगों की टिप्पणिया देखि जाये तथा मैं स्वयम भी कहूं तो कविता कलापूर्ण कम और भाव पूर्ण अधिक है........खैर.........
विपुल तुम्हे अगली बार मौका नहीं दूंगा बोलने का पर यह न पूछना की अगली बार कब आएगा...........
क्यूंकि कविता भोजन नहीं है की जब चाहा बना लिया....
अभी और आलोचकों की टिप्पणियाँ आने वाली है(गौरव जी, भारतवासी जी, राजीव जी, तथा अलोक जी. आदि ) वह आ जाएं तो फिर मैं खुल कर अपनी बात रख पाऊँगा.........
साली शब्द के लिए खेद है पर मैं स्वयम को रोक नहीं पाया ..........
आप लोगो के आशीर्वाद का प्रार्थी.............पीयूष पंड्या
दर्द का तो थान छोड़ गया था
सो रोज एक टुकड़ा फाड़ कुर्ता सी लेता हूँ...
वही ओढ़ लेता हूँ वही पी लेता हूँ...
क्यूंकि पानी भी नहीं बचा ...
नमक काफ़ी है आँखों में सो........
नमक न लाए...
बहुत गहरे भाव है,कुछ सोचने पर मजबूर करनेवाले,बधाई हो
सांस की कमी से
कीड़े कुलबुलाने लगे है...
विचारों के, खला के, अनुपस्थिति के,
मारना है....
सो
अगर साँसे ना लाए तो
थोड़ा ज़हर ही लेता आए
बेहतरीन रचना..
*** राजीव रंजन प्रसाद
पीयूष जी बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
पीञूष जी
बहुत सुन्दर बिम्ब पिरोये हैं -
दर्द का तो थान छोड़ गया था
सो रोज एक टुकड़ा फाड़ कुर्ता सी लेता हूँ...
वही ओढ़ लेता हूँ वही पी लेता हूँ...
क्यूंकि पानी भी नहीं बचा ...
नमक काफ़ी है आँखों में सो........
नमक न लाए...
आनन्द आगया । बधाई स्वीकारें ।
dard ka thaan...waah piyush...very nice....
waah piyush...dard ka thaan....
saanson ki kami se keede bulbulane lage hain...amazing...
उस शख्स को ......
मैंने सिगरेट की तरह पिया.......
यादों की राख बाकी है......
कह दो उससे की ........
सिगरेट की लत बदतमीज़ है.... छूटती ही नहीं साली
बहुत सही....आपसे उम्मीदें बढ़ गई हैं।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)