हलचल है...
अंदेशा है...
एक वक्त में
हर वक्त में
जिए जाने का ढकोसला है
शहर ऐसे हैं
और
उनके पहचान भी
ऐसे ही हैं
हर रोज बढ़ता है हलचल
हर रोज
बढ़ रहा है अंदेशा
जमीं कम पड़ रही है
अजी शहर बढ़ रहे हैं...
जिन्होंने खो दिये थे माँऐं
उन्होंने ढूँढ़ ली है
माँ की आँखें
अपनी महबूबा की आँखों में
अब उनका क्या हो
जिनके बाप न हों
या जो यतीम हो?
वे किनकी आँखों में
किन-किन को ढूँढ़ें
और एक गाली-सरीखी जिन्दगी जिए!
कवि- अभिषेक पाटनी
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
हर रोज
बढ़ रहा है अंदेशा
जमीं कम पड़ रही है
अजी शहर बढ़ रहे हैं...
बहुत सही अंदेसा है,और अनुमान भी ,बहुत अच्छे बधाई ,
मेहमूब के आँखों में म की छवि खोजना ,अच्छी लगी ये बात ..
जिन्होंने खो दिये थे माँऐं
उन्होंने ढूँढ़ ली है
माँ की आँखें
अपनी महबूबा की आँखों में
अब उनका क्या हो
जिनके बाप न हों
या जो यतीम हो?
वे किनकी आँखों में
किन-किन को ढूँढ़ें
और एक गाली-सरीखी जिन्दगी जिए!
" कमाल की रचना और सुंदर अभीव्य्क्ती "
पाटनी जी कमाल की कविता है,मजा आ गया.बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
अभिषेक जी
कथ्य अच्छा है किंतु प्रस्तुतिकरण न केवल भ्रामक है अपितु बाँधता भी नहीं...
*** राजीव रंजन प्रसाद
अभिषेक जी बहुत खूब लिखा आपने
शहर बढ रहे है , लोग बढ रहे है
अब उनका क्या हो
जिनके बाप न हों
या जो यतीम हो?
वे किनकी आँखों में
किन-किन को ढूँढ़ें
और एक गाली-सरीखी जिन्दगी जिए
अंत अच्छा और प्रभाव पूर्ण है
आप की कविता बहुत अच्छी है उर्वरा भी, देखिए उस की प्रतिक्रिया ने एक नयी कविता को जन्म दिया -
शहर शहर न हुए,
हो गए ब्लेक होल,
जो भी आता है नजदीक
खीच लिया जाता है उस के अन्दर।
हाँ रोशनी की किरन तक
उस के अन्दर।
नहीं निकलता कोई भी उस से बाहर
कभी नहीं।
क्या है,इस ब्लेक होल में?
कोई नहीं जानता है, या
जानता है कोई कोई।
अभी-अभी किसी बड़े विज्ञानी ने बताया
चन्द रोशनी की किरणें निकल पाती हैं
ब्लेक होल के बाहर
या फिर निकल पड़ता है सब कुछ ही बाहर
जब फट पड़ता है
अपने ही दबाव से ब्लेक होल।
फिर से बनते हैं सितारे, ग्रह, उपग्रह, क्षुद्रग्रह, पूंछ वाले तारे और उल्काएं भी।
न जाने और क्या क्या भी।
तो आओ तलाश करें उन किरनों को,
जो निकल आई हैं उस ब्लेकहोल के बाहर
और शहर, और शहरों के बाहर
पूछें उन से क्या है शहर के भीतर
कैसा लग रहा है,
शहर के बाहर?
और कितना है दबाव अन्दर
कि कब टूट रहा है ब्लेक होल?
कि कब बनेंगे?
नए सितारे, नए ग्रह, नए उपग्रह,
नए क्षुद्रग्रह, पूंछ वाले नए तारे
और नई उल्काएं।
जिन्होंने खो दिये थे माँऐं
उन्होंने ढूँढ़ ली है
माँ की आँखें
अपनी महबूबा की आँखों में
अब उनका क्या हो
जिनके बाप न हों
या जो यतीम हो?
वे किनकी आँखों में
किन-किन को ढूँढ़ें
और एक गाली-सरीखी जिन्दगी जिए!
क्या खूब लिखा आप ने ! यथार्थ की सुंदर अभिव्यक्ति ....
अब उनका क्या हो
जिनके बाप न हों
या जो यतीम हो?
वे किनकी आँखों में
किन-किन को ढूँढ़ें bahut hi badhiya bahv vyakt kar rahe hain....
badhai ho apko..
अभिषेक जी! क्षमा कीजियेगा परंतु क्या सिर्फ़ सच लिख देने से कविता बन जाती है? यदि ऐसा होता तो हरिश्चंद्र इतिहास के सबसे बड़े कवि होते. आपके प्रतिभा को देखते हुये आपसे एक अच्छी कविता की अपेक्षा की जाती है, टुकड़ों में लिखे गये गद्य की नहीं.
पटनी जी आप और बेहतर लिख सकते हैं....कविता में भटकाव है..... मुझे दिनेश जी का ब्लैक होल बेहद अच्छा लगा....
अभिषेक जी आप की पिछली कविता ज्यादा बेहतर थी .
यह कविता जल्दी में लिखी गयी लगती है.
*कविता में सोच अच्छी है.
अभिषेक जी,
कथ्य वासतव में अच्छा है और आपका मनन भी..
कविता अच्छी है मगर और भी अच्छी हो सकती थी
रंजन जी व अजय जी की बात पर ध्यान दें..
परस्तुति बहुत सुन्दर बन जयेगी..
बहुत बहुत साधूवाद्
हर रोज बढ़ता है हलचल
हर रोज
बढ़ रहा है अंदेशा
जमीं कम पड़ रही है
अजी शहर बढ़ रहे हैं...
अब ये कोई नही कह सकता कि कवि कल्पनाजीवी होते हैं !
अभिषेक जी आपकी कविता बहुत हे मर्मस्पर्शी है यथार्थ का सजीव चित्रण है आप यकीनन बधाई के पात्र हैं
अभिषेक जी आपकी कविता बहुत हे मर्मस्पर्शी है यथार्थ का सजीव चित्रण है आप यकीनन बधाई के पात्र हैं
अभिषेक जी ,
शहर की क्रुरता पर अच्छा लिखा है आपने।
"पहचान और हलचल" शब्दों के प्रयोग स्त्रीलिंग में
होने चाहिए। व्याकरण दोष दूर करने का प्रयास करें,
कविता अच्छी लगी ।
patni ji...kheton ko bhent kar hum bana rahe hain ghar
vrikshon ko kaatkar hum saza rahe hain ghar...
global warming..ek bhayanak sach..iski taraf dhyan aakarshit karne ke liye badhai..
2050 tak wo haal hoga ki humare chehre bhayanak ho jaayenge...deewaron ko hath nahin laga sakenge...itni tap chuki hongi wo...vikrit chehre dikhayi denge ...kitne ..ye nahin pata..par ye sach hai...
yateemon ko isse jodna mujhe uchit nahin laga...do concept ko alag alag likhna tha...par likha bahut sunder hai...ye meri soch hai...har shayar ki apni soch ho sakti hai.use seema mein nahin bandha ja sakta....isliye badhai sweekar karein.
a good poem on some of the close relationships.
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