प्रगति सक्सेना हिन्द-युग्म की यूनिकवि प्रतियोगिता में अक्सर भाग लेने वाली कवयित्री हैं। लगभग हर बार प्रकाशित होती हैं। इस बार भी इनकी एक कविता लेकर हम प्रस्तुत हैं, जो १७वें स्थान पर है।
कविता- यह कैसा जहाँ जिसके दो ध्रुव जुदा
किसी ने घूंघट खोला है कहीं खुशी का
तो किसी की पलकों में कैद आज नमी है
सुना है घर किसी का रोशन है बेपनाह ,
तो कहीं एक अहले दिल ज़ख्मी है ..
कहीं फ़सले गुल हर तरफ़ है फैला
तो कहीं बर्बादी कर रही 'सुनामी ' है
कोई उड़ रहा है अपने आसमां में
तो ज़लज़ले की कब्र बनी कहीं ज़मीं है
क्रिसमस की है खुशियाँ मन रहीं कहीं
तो ईद की निदा वहाँ धमाकों से थमी है
औरत चाँद के रथ पर है सवार आज
तो कहीं 'नसरीन' नज़रबंद सहमी है .
आज कोई खुशी से कहकहे लगा रहा है
तो किसी की आह में भी कुछ कमी है
खड़ी है मौत ज़िंदगी के सामने बेबस ,
तो कहीं सासों से ही मजबूर आदमी है .
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७॰६५
स्थान- इक्कीसवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४॰२, ६॰८, ७॰६५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰२१६६७
स्थान- उन्नीसवाँ
तृतीय चरण के जज की टिप्पणी- कथ्य ठीक है, संरचना कमजोर बन पड़ी है।
कथ्य: ४/२॰५ शिल्प: ३/१ भाषा: ३/१॰५
कुल- ५
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
औरत चाँद के रथ पर है सवार आज
तो कहीं 'नसरीन' नज़रबंद सहमी है .
-- अच्छा विरोधाभाष बताया है |
हाँ, संतुलन जरा हिला सा लगता है |
भेजते रहिये...
अवनीश तिवारी
खड़ी है मौत ज़िंदगी के सामने बेबस ,
तो कहीं सासों से ही मजबूर आदमी है .
'अच्छी तुलना है दो ध्रुवों की, ये पंक्तियाँ ज्यादा तुलनात्मक और अच्छी लगीं. "
गति प्रभावित हो रही है कई जगह। भाव सुन्दर हैं। थोड़ा सा प्रयास रचना को निखार सकता है।
साधारण सी कविता लगी.
लिखती रहिये.
भाव सुन्दर हैं।
स-स्नेह
गीता पंडित
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