मैं हर रोज़ जीता हूँ
अपने मन के संग्रहालय में
रखी किताब का एक पन्ना.....
हर सुबह
मेरे सपनों के पंख जल जाते हैं
यथार्थ के तपते सूरज को
छूने की कोशिश मे.....
हर दोपहर
उठाता हूँ शब्दों का हथौड़ा,
तर्क की छेनी
तोड़ता हूँ पोषित चट्टानों को
और बनाने की कोशिश करता हूँ
एक सड़क, प्यास से पानी तक.....
हर साँझ
उतारकर रख देता हूँ किनारे
थकान के कपड़े
और नहाता हूँ
हृदय के झरने में.....
हर रात
हवन करता हूँ कुछ जख्मी विचारों का
सूली चढ़ा देता हूँ सीने की आग को
जानते हुए भी
कि ये आग कल फ़िर जी उठेगी.....
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह... रविकांत जी सुंदर कविता है.....बधाई
हर रात
हवन करता हूँ कुछ जख्मी विचारों का
सूली चढ़ा देता हूँ सीने की आग को
जानते हुए भी
कि ये आग कल फ़िर जी उठेगी.....
" दिल और मन के मनोभावों का वेदना का सुंदर चित्रण"
Regards
हर दोपहर
उठाता हूँ शब्दों का हथौड़ा,
तर्क की छेनी
तोड़ता हूँ पोषित चट्टानों को
और बनाने की कोशिश करता हूँ
एक सड़क, प्यास से पानी तक.....
बहुत सुन्दर
रवि जी
बहुत सुंदर लिखा है-
हर रात
हवन करता हूँ कुछ जख्मी विचारों का
सूली चढ़ा देता हूँ सीने की आग को
जानते हुए भी
कि ये आग कल फ़िर जी उठेगी.....
बधाई
बहुत बहुत सुंदर रचना |
अवनीश तिवारी
हर सुबह मेरे सपनों के पंख जल जाते हैं
यथार्थ के तपते सूरज को छूने की कोशिश मे....
सुंदर भाव पूर्ण रचना है रवि जी बधाई !!
रवि जी,
आपकी इस कविता की खासियत यह है कि आपने इसमें चुन-चुन कर शब्द पिरोये हैं।
हर रात हवन करता हूँ कुछ जख्मी विचारों का सूली चढ़ा देता हूँ सीने की आग को जानते हुए भी कि ये आग कल फ़िर जी उठेगी.....
इन पंक्तियों में आपकी रचना उफान पर है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
बहुत ही शानदार कविता,हर शब्द,हर पंक्ति ऐसी की जिसे अलग से विभूषित नहीं किया जा सकता,बधाई हो सर जी
आलोक सिंह "साहिल"
अति सुंदर रचना.
रविकांत जी !
शब्दों का हथौड़ा, तर्क की छेनी तोड़ता हूँ पोषित चट्टानों को और बनाने की कोशिश करता हूँ एक सड़क, प्यास से पानी तक.....
हर रात
हवन करता हूँ कुछ जख्मी विचारों का
सूली चढ़ा देता हूँ सीने की आग को
जानते हुए भी
कि ये आग कल फ़िर जी उठेगी.....
सुंदर .....
बधाई
स-स्नेह
गीता पंडित
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