तुम्हारा रिश्ता
जैसे सूखा कुँआ ….
और उजाड़ पनघट
चिलचिलाती दोपहर में
रिसता है पल पल
शिवलिंग पर रखा घट
बस खाली होता हुआ
पार्वती की प्रतीक्षा में
पतझड़ के मौसम में
अमरबेल सा कोमल
और उलझाये कोई वृक्ष
नागफणी का फूल
और कंटक की फाँस
टिमटिमाते …
दीपक की रोशनी
और धूम धूसरित
कोई अँधेरा कक्ष
लू के थपेडों
से खिलते हैं
बांस के फूल
मन में …
छाने लगती हैं
अनजानी …
आशंकाओं की धूल
जैसे सूखा कुँआ ….
और उजाड़ पनघट
चिलचिलाती दोपहर में
रिसता है पल पल
शिवलिंग पर रखा घट
बस खाली होता हुआ
पार्वती की प्रतीक्षा में
पतझड़ के मौसम में
अमरबेल सा कोमल
और उलझाये कोई वृक्ष
नागफणी का फूल
और कंटक की फाँस
टिमटिमाते …
दीपक की रोशनी
और धूम धूसरित
कोई अँधेरा कक्ष
लू के थपेडों
से खिलते हैं
बांस के फूल
मन में …
छाने लगती हैं
अनजानी …
आशंकाओं की धूल
और तभी घुमड़ते हैं
अंतस में मेघ
उफनता है …
आवेग का ज्वार
झरने लगती है …
काली घटा फ़िर कोई
नयनों की कोरों से
ला देती है सैलाब
स्मृति की बिजलियाँ
कौंधती हैं बार बार
निकल पड़ता हूँ मैं …
अनजानी डगर पर
भीगता ... सीझता ...
नीले पड़ते होंठ लेकर
अपलक ...
अनंत में घुलता हुआ
बीते पलों का
छाता ढूँढता हुआ
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत दिनों के बाद पुराने श्रीकांत जी मिले हैं आज कविता में, waah bahut sunder
स्मृति की बिजलियाँ
कौंधती हैं बार बार
निकल पड़ता हूँ मैं …
अनजानी डगर पर
भीगता ... सीझता ...
नीले पड़ते होंठ लेकर
अपलक ...
अनंत में घुलता हुआ
बीते पलों का
छाता ढूँढता हुआ
शुरू से लेकर अंत तक नये-नये बिंब और उपमानों से सजी हुई कविता .. मज़ा आया पढ़कर..
बहुत अच्छा लिखा है आपने श्रीकांत जी.. आपसे ऐसी ही कविताओ क़ी अपेक्षा रहती है...
सुंदर रचना के लिए बधाई !
निकल पड़ता हूँ मैं …
अनजानी डगर पर
भीगता ... सीझता ...
नीले पड़ते होंठ लेकर
अपलक ...
अनंत में घुलता हुआ
बीते पलों का
छाता ढूँढता हुआ
बेहद खूबसूरत लगी आपकी यह रचना श्रीकांत जी .बधाई सुंदर रचना के लिए !!
श्रीकांत जी,
आपके बिम्बों का कायल हुआ जा सकता है।
निकल पड़ता हूँ मैं …
अनजानी डगर पर
भीगता ... सीझता ...
नीले पड़ते होंठ लेकर
अपलक ...
अनंत में घुलता हुआ
बीते पलों का
छाता ढूँढता हुआ
बेहतरीन रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत दिनों बाद इतनी लाजवाब प्रस्तुति,मजा आ गया सर जी,बधाई हो,
आलोक सिंह "साहिल"
बहुत ही सुंदर भाव है कविता के बधाई
वाह ............! बंधी रह गयी ...! बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ...
अंतस में मेघ
उफनता है …
आवेग का ज्वार
झरने लगती है …
काली घटा फ़िर कोई
नयनों की कोरों से
ला देती है सैलाब
स्मृति की बिजलियाँ
कौंधती हैं बार बार
निकल पड़ता हूँ मैं …
अनजानी डगर पर
भीगता ... सीझता ...
नीले पड़ते होंठ लेकर
अपलक ...
अनंत में घुलता हुआ
बीते पलों का
छाता ढूँढता हुआ.............
सुनीता यादव
'भीगता ... सीझता ...
नीले पड़ते होंठ लेकर
अपलक ...
अनंत में घुलता हुआ
बीते पलों का
छाता ढूँढता हुआ'
'सुंदर लिखा है !
*प्रस्तुत रचना में भावों की अभिव्यक्ति में बहुत खूबसूरती दिखती है.
निकल पड़ता हूँ मैं …
अनजानी डगर पर
भीगता ... सीझता ...
नीले पड़ते होंठ लेकर
सुंदर अभिव्यक्ति ,खूबसूरत रचना श्रीकांत जी .बधाई !
Regards
बहुत सुन्दर।
कविता मन के तारों को झंक्रत कर गयी। बहुद दिनों के बाद कोई ऐसी कविता पढने को मिली है।
बहुत-बहुत बधाई।
बहुत सुन्दर रचना। अनूठे बिम्ब हैं। पढ़कर आनंदित हो उठता है मन।
बहुत अच्छा लगा आप की कविता देखकर..
आपसे मिलने का सौभाग्य भी मिला..बहुत खुशी हुई..
श्रीकांत जी
रचना बेहद खूबसूरत बन पड़ी है. बिम्ब भी बहुत अच्छे बन पड़े हैं. एक एक दृश्य आँखों के सामने लाकर रख दिया है.
स्मृति की बिजलियाँ
कौंधती हैं बार बार
निकल पड़ता हूँ मैं …
अनजानी डगर पर
भीगता ... सीझता ...
नीले पड़ते होंठ लेकर
अपलक ...
अनंत में घुलता हुआ
बीते पलों का
बस कहीं पर मुझे पलायन भी दिखाई दिया है.किंतु बिम्बों का जवाब नहीं.
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति.....
भीगता ... सीझता ...
नीले पड़ते होंठ लेकर
अपलक ...
अनंत में घुलता हुआ
बीते पलों का
छाता ढूँढता हुआ
श्रीकांत जी !
बधाई !
स-स्नेह
गीता पंडित
लू के थपेडों
से खिलते हैं
बांस के फूल
मन में …
छाने लगती हैं
अनजानी …
आशंकाओं की धूल
bahut khoob
wah shrikant ji
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