उन्हें चाहत तो है मुझसे, ऐतबार नहीं है
होगी हासिल ये मंजिल, उस्तुवार नहीं है
वो जब चाहें पलट जायें अपनी जुबान से
हमको मगर इतना भी, इख्तियार नही है
सब्र तलबी कब तक जमाने तू ही बता दे
सब कुछ तो है बस सिर्फ़, करार नहीं है
वाकिफ़ हूं खूब मैं उन कलियों के दर्द से
आई हिस्से में जिनके कोई, बहार नहीं है
शबनम-ए-हयात खो जायेगी धुआं बन के
ये इल्तजा-ए-दिल है कोई, गुब्बार नहीं है
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चाहत = प्यार, ऐतबार = भरोसा, उस्तुवार = पक्का भरोसा
जुबान =बातों, इख्तियार = कब्जा या कंट्रोल,
सब्र-तलबी = मन मारना
करार = चैन, वाकिफ़ = जानकारी,
शबनम-ए-हयात = ओस सी जिन्दगी,
इल्तजा-ए-दिल = दिल की याचना
गुब्बार = हवा में उडती हुई धूल
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
सब्र तलबी कब तक जमाने तू ही बता दे
सब कुछ तो है बस सिर्फ़, करार नहीं है
बहुत खूब ....
वाकिफ़ हूं खूब मैं उन कलियों के दर्द से
आई हिस्से में जिनके कोई, बहार नहीं है
अतिसुन्दर..बहुत पसन्द आई आपकी यह गजल मोहिंदर जी ..इसको अपनी आवाज़ दे और भी खूबसूरत लगेगी !!
शबनम-ए-हयात खो जायेगी धुआं बन के
ये इल्तजा-ए-दिल है कोई, गुब्बार नहीं है
गज़ल तो अच्छी है ही साथ में उर्दू की कोचिंग भी आपने खूब दी है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अच्छी गजल,चौथा और पांचवां शेर विशेष पसंद आया,
आलोक सिंह "साहिल"
वाह वाह...क्या बात है मोहिन्दर भाई.
kabile-tareef
सब्र तलबी कब तक जमाने तू ही बता दे
सब कुछ तो है बस सिर्फ़, करार नहीं है
वाह॒! वाह! बहुत ही उम्दा गज़ल है मुबारक हो मोहिंदर जी
शबनम-ए-हयात खो जायेगी धुआं बन के
ये इल्तजा-ए-दिल है कोई, गुब्बार नहीं है
बहुत बढ़िया
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर |
जो साथ मी छायाचित्र है बहुत ही रोचक है |
अवनीश तिवारी
'सब्र तलबी कब तक जमाने तू ही बता दे
सब कुछ तो है बस सिर्फ़, करार नहीं है'
बहुत खूब!
साथ दिया चित्र भी अच्छा है.
उन्हें चाहत तो है मुझसे, ऐतबार नहीं है
होगी हासिल ये मंजिल, उस्तुवार नहीं है
बहुत खूब मोहिन्दर भाई
वाकिफ़ हूं खूब मैं उन कलियों के दर्द से
आई हिस्से में जिनके कोई, बहार नहीं है
बहुत खूब, अच्छी गजल.
Regards
वो जब चाहें पलट जायें अपनी जुबान से
हमको मगर इतना भी, इख्तियार नही है
सब्र तलबी कब तक जमाने तू ही बता दे
सब कुछ तो है बस सिर्फ़, करार नहीं है
वाकिफ़ हूं खूब मैं उन कलियों के दर्द से
आई हिस्से में जिनके कोई, बहार नहीं है
वाह मोहिंदर जी वाह, सभी एक से बढ़कर एक उन्दा शेर कहे हैं आपने
वो जब चाहें पलट जायें अपनी जुबान से
हमको मगर इतना भी, इख्तियार नही है !
वाकिफ़ हूं खूब मैं उन कलियों के दर्द से
आई हिस्से में जिनके कोई, बहार नहीं है !!
इरशाद ! माशा अल्लाह !!
रुमानियत के साथ दर्द का सुंदर मिश्रण !!
सब्र तलबी कब तक जमाने तू ही बता दे
सब कुछ तो है बस सिर्फ़, करार नहीं है
सुन्दर प्रस्तुति।
मोहिंदर जी
सुंदर ग़ज़ल लिखी है-
वाकिफ़ हूं खूब मैं उन कलियों के दर्द से
आई हिस्से में जिनके कोई, बहार नहीं है
अति सुंदर .
शबनम-ए-हयात खो जायेगी धुआं बन के
ये इल्तजा-ए-दिल है कोई, गुब्बार नहीं है
बहुत खूब ....
शुभ-कामनाएं |
सस्नेह
गीता पंडित
मार डाला, मार डाला....
तेरी लेखनी ने ये क्या लिख दिया है
तेरा शुक्रिया है तेरा शुक्रिया है....
सब्र तलबी कब तक जमाने तू ही बता दे
सब कुछ तो है बस सिर्फ़, करार नहीं है
बहुत खूब !
सुनीता यादव
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