भेड़ बिके, बकरी बिकी
बिके बैल और खच्चर
कुत्ते-बिल्ली, तोता-मैना
सजते हैं बाज़ार, बोलिए ऊँची बोली
ईमानों से बिक जाते बेजान जानवर..
बिके बैल और खच्चर
कुत्ते-बिल्ली, तोता-मैना
सजते हैं बाज़ार, बोलिए ऊँची बोली
ईमानों से बिक जाते बेजान जानवर..
भूखे गाते भजन तुम्हारा
गोपाला आँखों में पत्थर
दिल में सागर भर ले आया
रुपये पाँच सौ
अनजन्में उसके बच्चे का
इससे बेहतर दाम नहीं था।
सुखिया की आँखों का नूरा
नाम रंग दोनों का भूरा
उम्र पाँच के पार हुआ है
पेट ज़रा बाहर है लेकिन
है तो पट्ठा...
रुपये हजार, मुँह पे मार
ले जाता वह साहूकार
बार -बार यूं देख रहा है
जैसे महँगी हुई खरीद।
अभी कली थी रामकली
दस वसंत भी नहीं खिली
एक दिन मामा से बोली
मैने रेल नहीं देखी
फिर क्या था छुक-छुक करती
दिल्ली की बदनाम गली
पहुँचा कर वह मुस्काया
सौ के पंद्रह नोट..
एक महीने की दारू का
यह जुगाड़ था।
दो हजार की उँची बोली
सुन रज़िया नें आँखें खोली
उसकी इतनी ऊँची कीमत?
एक साथ इतने पैसे के
सपने भी उसने ना देखे
भूखी चुभती अंतडियों से
बेहतर नाखूनों के ज़ख्म..
खून के आँसू किसने देखे?
ज्यादा पीडा, बेहतर बोली
यह दौर आर्थिक क्रांति का है
और यह जो खबरें सुनता हूँ
कि करोडों में खरीदे गये क्रिकेटर
तो सोचता हूँ
कितनी बौनी है मेरी अक्ल!!!!
.....
और भी ग़म हैं ज़माने में..
*** राजीव रंजन प्रसाद
23.02.2008
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
21 कविताप्रेमियों का कहना है :
ज्यादा पीडा, बेहतर बोली
यह दौर आर्थिक क्रांति का है
और यह जो खबरें सुनता हूँ
कि करोडों में खरीदे गये क्रीकेटर
तो सोचता हूँ
कितनी बौनी है मेरी अक्ल!!!!
.....
और भी ग़म हैं ज़माने में..
" बहुत सुंदर अभीव्य्क्ती , सच khaa है की कितने गम हैं जमाने मे, प्रभावी रचना के अनुरूप बडा ही करुण चित्र "
Regards
"Ranjan Jee, date is 23\02\08 on ur post, i think it should be corrected"
Regards
राजीव जी कविता पढ़ते पढ़ते दिल दहलने लगा
मैने रेल नहीं देखी
फिर क्या था छुक-छुक करती
दिल्ली की बदनाम गली
पहुँचा कर वह मुस्काया
सौ के पंद्रह नोट..
एक महीने की दारू का
यह जुगाड़ था।
अच्छी कविता आपने इस मर्म को अपनी भावनाओं से पेश किया है। अगर इसे व्यंग्य के रूप में देखने चाहें तो मेरी रचना पर गौर फरमाएं। आभार
ज्यादा पीडा, बेहतर बोली
यह दौर आर्थिक क्रांति का है
और यह जो खबरें सुनता हूँ
कि करोडों में खरीदे गये क्रीकेटर
एक और आज के वक्त को बताती आपकी बेहतर रचना राजीव जी बधाई !!
कि करोडों में खरीदे गये क्रीकेटर
तो सोचता हूँ
कितनी बौनी है मेरी अक्ल!!!!
इन पंक्तियों में सारा का सारा व्यंग्य छिपा हुआ है। बहुत हीं बढिया रचना राजीव जी।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
तीखा कटाक्ष .....
पढ्ने मे बहुत आच्छा लगा बहुत बेहतर और सुध लीखते है। आपके बातो मे बहुत दम है।
रंजन जी के तुणीर का एक और तीर..
परंतु ये क्या पूर्व तीरों की भाँति यह भी अमोघ और तरकश अक्षय..
रचानाओं का बेहतर लक्ष हैं..
बेधा तो जायेगा ही..
सीमा जी,
राजीव जी की कवितओं में जो नीचे तारीख अंकित होती है वह तारीख रचाना सृजन की तारीख होती है ना कि पोस्ट करने की.. अतः तारीख सही है..
गहरे अवलोकन के लिये
धन्यवाद..
राजीव जी
और भी गम हैं ज़माने में क्रिकेटर्स की खरीद और बिक्री के साथ अपने जिन ज्वलंत मुद्दों को समेट है वह वास्तव में व्यंग्य की सामयिकता और साधन का सही उपयोग है शायद किसी का ध्यान आकृष्ट हो सके तो सार्थक हो सके ....
आज के जान बूझ कर अनदेखे किए जा रहे सच को दिखा रही है आप की कविता.
सही है ''और भी ग़म हैं ज़माने में'' ----
कहते हैं कि दिल पर छुरियाँ चलतीं हैं और दिमाग़ पर हथोड़े पड़ते हैं|पर आपकी कविताएँ पढ़ने पर तो सारी कहावते उल्टी हो जातीं है ..
दिल पर हथोड़े मारतीं हैं आपकी कविताएँ!आह निकलती है..झंझोड़ दिया इन पंक्तियों ने..
"दिल्ली की बदनाम गली
पहुँचा कर वह मुस्काया
सौ के पंद्रह नोट.."
"भूखी चुभती अंतडियों से
बेहतर नाखूनों के ज़ख्म..
खून के आँसू किसने देखे?"
सच कहा आपने..
ज्यादा पीडा, बेहतर बोली...
कुछ अलग बात होती है आपकी कविताओं में.. जो औरों से अलग करती है. जैसे कि..
"सुखिया की आँखों का नूरा
नाम रंग दोनों का भूरा"
"अभी कली थी रामकली
दस वसंत भी नहीं खिली
एक दिन मामा से बोली
मैने रेल नहीं देखी"
वाह राजीव जी.. बहुत खूब लिखा है आपने.. चेतना को झंझोड़ दिया ..
सिहर गए आपकी कविता पढ़कर,क्या कहूँ,क्या और किस तरह तारीफ करूँ समझ नहीं आता,बस बेहतरीन......... आलोक सिंह "साहिल"
सही चित्रण,सही विवरण,ज़माने के सरे गम सजा दिए कविता में ,बहुत मार्मिक भावुक बना देनेवाली कविता बधाई
आह! एक कटु सत्य को स्वर दिया है आपने।
और यह जो खबरें सुनता हूँ
कि करोडों में खरीदे गये क्रिकेटर
तो सोचता हूँ
कितनी बौनी है मेरी अक्ल!!!!
जिसने तस्वीर खींची, पहले उसे धन्यवाद।
यही है भारत।
आप जब सम-सामयिक विषयों पर लिखते हैं तो पूरे रंग में होते हैं राजीव जी। ये रंग यूं ही जगाए रखें।
बहुत सारे ग़म हैं ज़माने में...और आपकी बहुत जरूरत है।
और हाँ, यदि तस्वीर आपने नहीं खींची है तो नीचे उसका लिंक देकर आभार व्यक्त कर दिया करें। हर एक सृजन का सम्मान होना चाहिए।
ज्यादा पीडा, बेहतर बोली
यह दौर आर्थिक क्रांति का है
और यह जो खबरें सुनता हूँ
कि करोडों में खरीदे गये क्रीकेटर
तो सोचता हूँ
कितनी बौनी है मेरी अक्ल!!!!
.....
और भी ग़म हैं ज़माने में..
बहुत सुंदर व्यंग्य ...
बहुत सुंदर प्रभावी रचना .....
राजीव जी !
बधाई !
स-स्नेह
गीता पंडित
बहुत सुंदर,प्रभावी व बेहतरीन रचना, आप यकीनन बधाई के पात्र है राजीव जी
बहुत सुंदर,प्रभावी व बेहतरीन रचना, आप यकीनन बधाई के पात्र है राजीव जी
कहाँ से शुरू ...कहाँ से ख़त्म करूँ तारीफों का पुल !
राजीव जी ! वाह ! कविता ,पंक्ति,शब्द,अक्षर,ध्वनि के हक़दार ...एवं तस्वीर खींचने वाले ...
दोनों को बधाई !
सुनीता यादव
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)