अब हम उन कविताओं की ओर बढ़ते हैं जो अंतिम चरण में स्थान नहीं बना पाईं। इस शृंखला की पहली रचना एक ऐसी कवयित्री ममता गुप्ता ने रची है जोकि हिन्द-युग्म को पढ़ने के नाम पर तो स्थाई हैं, लेकिन प्रतियोगिता में पहली बार हिस्सा ली हैं।
कविता- गीली रेत
प्रचंड वेग
और उद्दाम पुकार बन कर
आती है तुम्हारी लहरें
ना वेग संहालते बनता है
ना पुकार अनसुनी
करते बनता है
मेरा अस्तित्व
तुम्हारे सम्मोहन से घिर
तिनका-सा--
तुम्हारी लहरों पर
डोलने लगता है
तुम्हारी इच्छा की
अनुगामिनी बनकर
जो तुम कहते हो
जो तुम चाहते हो
वही सब करती जाती हूँ
जी भर अपनी बाँहों में
अठखेलियाँ कराते हो
अपनी गहराइयों में डूबाते हो
आकण्ठ तृप्त कर देते हो
और फिर चुपचाप
छोड़ जाते हो
मुझे मेरे तट पर
मैं हतप्रभ सी
सोचती रह जाती हूँ
जो अभी-अभी गुज़रा
वो सच था ना ?
मेरे आस-पास की
भीगी रेत
मुझे अहसास दिलाती है
कि--
तूफान की तरह ही
तुम्हारा आना
ही सच था
तभी तो रेत
अभी तक गीली है
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰७
स्थान- सत्रहवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰४, ७॰१, ७॰७ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰०६६७
स्थान- तीसरा
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी- सामान्य भाव की किसी पर समर्पित कविता।
कथ्य: ४/२ शिल्प: ३/१॰५ भाषा: ३/१॰५
कुल- ५
स्थान- तेरहवाँ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
11 कविताप्रेमियों का कहना है :
ममता जी
एक स्तरीय प्रस्तुति.... लगता है सुनीता यादव के बाद अभी दूसरी प्रस्तुति फ़िर उसी रंग में ...... सुन्दर रचना
मेरे आस-पास की
भीगी रेत
मुझे अहसास दिलाती है
कि--
तूफान की तरह ही
तुम्हारा आना
ही सच था
तभी तो रेत
अभी तक गीली है
" भावनाओं की सुंदर अभीव्यक्ती "
बहुत कुछ कहती है आपकी कविता
बडी ही बारीक दृष्टि...
तुम्हारे सम्मोहन से घिर
तिनका-सा--
तुम्हारी लहरों पर
डोलने लगता है
तुम्हारी इच्छा की
अनुगामिनी बनकर
जो तुम कहते हो
जो तुम चाहते हो
वही सब करती जाती हूँ
जी भर अपनी बाँहों में
अठखेलियाँ कराते हो
अपनी गहराइयों में डूबाते हो
आकण्ठ तृप्त कर देते हो
और फिर चुपचाप
छोड़ जाते हो
मुझे मेरे तट पर
मैं हतप्रभ सी
सोचती रह जाती हूँ
-सागरीय गहराई हैं कविता में..
mamta ji kuch antarang ki gehrai napti taulti sundar kavita hai,badhai
(मंथन)
हँस लो गा लो,
खुशी मना लो ।
मानस तन मुशकिल से मिलता,
छढ़ -छढ़ मूल्य चुकालो ।।
मनोभावनाओ का मंथन ,
जीवन सागर हलचल ।
समस्याये सी सौगाते है,
खुशियो सा अमृत जल ।।
मिल जुल इनको पा लो ।
हँस लो ----------------
जीवन दिवस समान,
उदित हुआ आया अवसान ।
पल-पल खुशियां भर दो,
अमिट रहे सदा मुसकान ।।
ऐसा ध्येय बना लो ।
हँस लो --------------------
जग में ऐसा कोई नही ,
जो मानस ना कर पाये ।
निरजीव पाषान तरासे,
सजिवता ले आये ।।
ऐसा नाम कमा लो ।
हँस लो --------------------
नूतन बर्ष की नव बेला में,
उदित प्रभा का बंदन ।
हो मन की इच्छाये पूरी,
करते है अभिनंदन ।।
मंजिल अपनी पा लो ।
हँस लो --------------------
सुंदर भावों की अति सुंदर अभिव्यक्ति,सदर मुबारकबाद
आलोक सिंह "साहिल"
एक सुंदर भावनात्मक रचना
अवनीश तिवारी
सुन्दर रचना।
तूफान की तरह ही
तुम्हारा आना
ही सच था
तभी तो रेत
अभी तक गीली है
इसमे दो बार ’ही’ का प्रयोग थोड़ा खटकता है।
मेरे आस-पास की
भीगी रेत
मुझे अहसास दिलाती है
कि--
तूफान की तरह ही
तुम्हारा आना
ही सच था
तभी तो रेत
अभी तक गीली है
-अच्छा लिखा है ममता जी.
मेरे आस-पास की
भीगी रेत
मुझे अहसास दिलाती है
कि--
तूफान की तरह ही
तुम्हारा आना
ही सच था
तभी तो रेत
अभी तक गीली है
सुंदर प्रस्तुति....
ममता जी !
ममता जी,
मैंने आज ही कवयित्री दीप्ति मिश्र का काव्य-संग्रह 'है तो है' पढ़ा। वहाँ भी इस तरह की अनुभूतियों के दर्शन हए। अच्छा लिख लेती हैं आप, शायद इसलिए क्योंकि आप लम्हातों को जीती हैं।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)