शीत सरकते माह माह में
करने दिल्ली की सैर चले,
बँधी टोंट बर्फीली हवा से
करके हिम्मत खैर चले,
गधे के सर के सींग के जैसे
आसमान बिन सूरज के,
हालांकि इस वक्त घड़ी में
बीस मिनट थे दो बजके,
धुन्ध और कोहरे की चादर
हाथ से हाथ नहीं दिखता था,
दो पेड़ों का झुन्ड दूर से
इंडिया-गेट सा लगता था,
तभी अचानक नज़र पड़ी
मनो दुर्वासा ऋषि आये,
पतली पतली निरवस्त्र भुजा
शंकर के अम्बर लटकाये,
ढ़कने के नाम पर बाजू पर
बस टेंटू लगे भुजंगों के,
घुटनों के उपर तंग वस्त्र
पायचे भी भिन्न भिन्न रंगों के,
एक हाथ कमंडल पर्स लिये
दूजे सिगरेट का दम भरती,
मस्तक पर भी बिन्दी नागिन
आई एक दम फूँ-फूँ करती,
बोली एक्सक्यूज मी मिस्टर
व्हेअर इज दिस नागलोई,
गलती से मैं आ गयी यहाँ
क्या मिलेगी यहाँ से बस कोई,
मैं बोला नागलोई में ही तो
आप खड़ी हो मैडम जी
मेरी बातों को सुन झटकी !
बोली एकदम, नहीं समझी!
बोली इंडिया-गेट है यह तो
राष्ट्रपति का भवन यहाँ,
हाईकोर्ट दिख रहा पास में
नागलोई यहाँ आयी कहाँ,
मैं बोला, मैडम जी देखो
झूठ बात मैं नहीं करता,
नाग लपेटे तुम फिरती हो
और,लोई लपेटे मैं फिरता..
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25 कविताप्रेमियों का कहना है :
हाहाहहाहाहाा मज़ेदार ...........
बोली इंडिया-गेट है यह तो
राष्ट्रपति का भवन यहाँ,
हाईकोर्ट दिख रहा पास में
नागलोई यहाँ आयी कहाँ,
मैं बोला, मैडम जी देखो
झूठ बात मैं नहीं करता,
नाग लपेटे तुम फिरती हो
और,लोई लपेटे मैं फिरता
"हा हा हा हा अती सुंदर , हास्य से भरपूर रचना
:):) :)
हा हा, भूपेन्द्र जी, मजा आ गया। खूब हँसाया आपने। पिछली बार भी शायद आपकी ही कविता ने हँसाया था।
पहले मैंने सोचा कि आपने "नाँगलोई" को "नागलोई" क्यों लिखा है। पर आखरी दो पंक्तियों में समझ आया।
वैसे आप भी क्या नाँगलोई में ही रहते हैं? :-)
अच्छा हास्य बन पडा है राघव जी...मजा आने लगा तो रचना समाप्त हो गई...प्यासे रह गये.
आपकी कविता पड़कर बहुत मज़ा आया
बहुत अच्छी रचना है
आपकी कविता पड़कर बहुत मज़ा आया
बहुत अच्छी रचना है
सब ठीक है |
लेकिन यार दुर्वासा ऋषि के नाम से ही मुझे डर लगता है |
मेरे लिए डरावनी रचना है |
अवनीश तिवारी
bahut badiya
nagloyi
kya jawab diya aapne
भाई वह ....पुरी कविता मी एकरसता बनी हुई है, एक ही साँस मे पढ़ गया ,आम तौर पर हिन्दी कविताये बीच बीच मे कही बिखर जाती है पर आप सचमुच ......
लिखते रहिये
अच्छा हास्य है,आजकल साहित्यिक हास्य बहुत कम देखने को मिलता है आप यकीनन बधाई के पात्र हैं
क्या बात है भूपेन्द्र जी!
युग्म पर हास्य के कभी-कभार हीं फुहारे पड़ते हैं। हर विधा की तरह इस विधा को भी युग्म पर स्थान मिलना चाहिए। इस नाते आप बधाई के पात्र हैं। व्यंग्य से सनी आपकी यह हास्य-रचना मुझे बेहद पसंद आई।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
http://hemantgoyalambikapur.blogspot.com/
bahut hi mazadar raha ye padhna:):)
भूपेन्द्र जी! इस रचना को पढ़ना भी बहुत अच्छा लगा परंतु निश्चय ही आपकी आवाज़ में इसे सुनना बेहतर अनुभव था.
वाह भूपेन्द्र जी बड़ी अच्छी तरह फैशन कि अति पर व्यंग्य कसा है । पर व्यंग्य से अधिक इसमें मनोरंजन दिखता है । जैसे भाव कविता में हैं उसके लिए वह प्रवाह होना बिल्कुल जरूरी है जैसा इस कविता में देखने को मिला ।
धीरे धीरे बढ़ती मुस्कराहट रचना के अंत तक ठहाके में परिवर्तित हो गयी...वाह..
नीरज
राघव जी कमाल की हास्य रचनाएँ लिखते हैं आप, ये तो सचमुच लाजावाब है, कुछ ऐसी जो लंबे समय तक गुद्गुदाएगी
मजा आ गया राघव जी,आपने तो दुर्वाषा साहब की शाश्वत नींद में भी खलल दाल दी होगी.हा हा हा हा .......खैर,मैं अजय जी के इस बात से बिल्कुल सहमत हूं की काश! इस बेहतरीन हास्य को आपके मुख से सुनने को मिलता तो इस हास्य का मजा कई गुना बढ़ जाता,बहुत बहुत शुभकामनाओं सहित
आलोक सिंह "साहिल"
राघव जी, सुन्दर रचना है। मैं भी इस बात से सहमत हुँ कि इसे आपकी आवज़ में सुनना और ज्यादा प्रीतिकर होगा।
बहुत अच्छा हास्य!! बधाई स्वीकारें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
हा हा हा हा
सुंदर ....,
हास्य से भरपूर रचना...
बहुत सुन्दर हास्य रचना...मजा आ गया...
एसे ही लिखते रहें हमेशा...
भूपेन्द्र जी,
आप अपनी रचनात्मकता को संकीर्ण दायरों में लगा रहे हैं। रचनाकार को अपनी सोच अत्यधिक विस्तारित रखनी होती है। ये आपके जीवनशैली पर जो आरोप-प्रत्यारोप-आक्षेप-कटाक्ष हैं, वो सोच के संकुचित दायरे में आते हैं। मैं आपसे एक स्तरीय हास्य की उम्मीद करता हूँ।
आपकी कविता बहुत देर से पडी ,इसके लिए क्षमा चाहती हूँ , पर सचमुच बहुत मज़ा आया, हँसी का आना स्वाभाविक है , बधाई स्वीकार करें
पूजा अनिल
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