इच्छायें
कुण्डली ग्रस्त, सर्पो जैसी
जब फन फैलाकर
खड़ी हो जाती हैं
शान्ति का निस्सीम आकाश
आँधीग्रस्त हो उठता है
फड़फड़ा उठते हैं
सभी विचार
भयत्रस्त परिन्दों की तरह
स्मृतियों के छप्पर
उड़ने लगते हैं
उजड़े हुये नगर जैसा
अंतस्
वीरान हो उठता है
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कुण्डलीग्रस्त सर्पो जैसी
जब फन फैलाकर
खड़ी हो जाती हैं
शांति का निस्सीम आकाश
आँधीग्रस्त हो उठता है
कुण्डली ग्रस्त, सर्पो जैसी
जब फन फैलाकर
खड़ी हो जाती हैं
शान्ति का निस्सीम आकाश
आँधीग्रस्त हो उठता है
फड़फड़ा उठते हैं
सभी विचार
भयत्रस्त परिन्दों की तरह
स्मृतियों के छप्पर
उड़ने लगते हैं
उजड़े हुये नगर जैसा
अंतस्
वीरान हो उठता है
इच्छायें
कुण्डलीग्रस्त सर्पो जैसी
जब फन फैलाकर
खड़ी हो जाती हैं
शांति का निस्सीम आकाश
आँधीग्रस्त हो उठता है
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
सही कहा आपने इच्छाए जब फन उठाकर कढ़ी हो जाती है
आंधियां ही आती है,गर वो हासिल ना हो.मो की दुनिया है.बहुत सुंदर कविता.
श्रीकांत जी
अपने बहुत सही चित्रण किया है . सचमुच कभी कभी ऐसा ही होता है -
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कुण्डलीग्रस्त सर्पो जैसी
जब फन फैलाकर
खड़ी हो जाती हैं
शांति का निस्सीम आकाश
आँधीग्रस्त हो उठता है
इतना सुंदर चित्रण करने के लिए बधाई
यथार्थवादी रचना है़। बहुत सुंदर ।
स्मृतियों के छप्पर
उड़ने लगते हैं
उजड़े हुये नगर जैसा
अंतस्
वीरान हो उठता है...
अच्छी लगी आपकी यह रचना ..सच के बहुत करीब है !!
इच्छायें
कुण्डलीग्रस्त सर्पो जैसी
जब फन फैलाकर
खड़ी हो जाती हैं
waah
इच्छायें
कुण्डलीग्रस्त सर्पो जैसी
जब फन फैलाकर
खड़ी हो जाती हैं
शांति का निस्सीम आकाश
आँधीग्रस्त हो उठता है
" सही मे इच्छायें व्यापक होती हैं उनकी कोई सीमा नही होती, बहुत अच्छी प्रस्तुती .
Regards
बिल्कुल सही है |
जीता जागता उदाहरण है मुम्बई मी
बहुत खूब | सुंदर रचना |
क्या यह रचना साथ के चित्र को देख कर लिखा गया है ?
अवनीश तिवारी
" पिछले टिप्पणी मी सुधार इस तरह है - "
बहुत खूब | सुंदर रचना |
क्या यह रचना साथ के चित्र को देख कर लिखा गया है ?
अवनीश तिवारी
श्रीकान्त जी मुझे लगता है कविता ग्रस्त से त्रस्त हो गई है और कुण्डली ग्रस्त सर्पो का प्रयोग भी समझ में नहीं आया. सर्प कुण्डली से ग्रस्त कैसे हो सकता है.
श्रीकांत जी,
बहुत ही गहरी बात कम शब्दों में..
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कुण्डली ग्रस्त सर्पो जैसी
जब फन फैलाकर
खड़ी हो जाती हैं
शान्ति का निस्सीम आकाश
आँधीग्रस्त हो उठता है
फड़फड़ा उठते हैं
सभी विचार
भयत्रस्त परिन्दों की तरह
स्मृतियों के छप्पर
उड़ने लगते हैं
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कुण्डलीग्रस्त सर्पो जैसी
जब फन फैलाकर
खड़ी हो जाती हैं
शांति का निस्सीम आकाश
आँधीग्रस्त हो उठता है
श्रीकांत जी,
आपकी पूरी रचना इन्हीं शब्दों में समायी हुई है।लेकिन मुझे शीर्षक समझ नहीं आया। क्या यह रचना अधूरी है, इसलिए क्रमश: लिखा गया है। कृप्या शंका का समाधान करें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
जितनी गहरी कविता उतना ही विस्मयकारी चित्र-आप की कल्पना शक्ति अद्भुत है श्रीकांत जी शब्दों ही नहीं varan रंगों और चित्रों के भी 'कवि ' हैं आप-
badhayee-
नमस्कार मित्रो !
आप सब जितने ध्यान से मुझे पढ़ रहे हैं यह अभिभूत करने वाला है. अस्तु क्रमश: के सम्बन्ध में क्रमश: ही उत्तर
1- सीमा जी सबसे पहले यूनीपाठिका रूप में युग्म के पटल पर आपका स्वागत. कई बार आप सबके लिए एक छंद लिखा परन्तु पोस्ट हैंग हो गई और नहीं प्रस्तुत हुआ चलो अब सही
सीमा नहीं सीमित यहाँ, आप हैं जब 'हिन्द' में
बस पाठिका ही हैं नहीं, हस्ताक्षर भी 'युग्म' में
2- भाई अवनीश एस तिवारी जी मैं कविता लिखने के उपरांत ही चित्र की परिकल्पना करता हूँ. आपकी सूचना के लिए संदर्भित चित्र में भी कहीं न कहीं आपका योगदान भी है. संभवतः आपकी जिज्ञासा का कारण भी यही है क्योंकि इस संयुक्त चित्र में आपके भेजे चित्रों को भी मैंने आंशिक रूप से प्रयुक्त किया है.
3- बन्धु अवनीश गौतम जी आपको मैं एक गंभीर टिप्पणीकार के रूप में लेता हूँ परन्तु एक बार पुनः इस कविता को पढ़ने का अनुरोध मैं आपसे करता हूँ. कई बार एक अल्प विराम प्रूफ में रह जाने से क्या हो जाता है. संभवतः आप अपना निष्कर्ष और अनुमान भी बहुत ही शीघ्र निकालते हैं. इस दृष्टि से एक पाठक और कवि दोनों का परिकल्प्नात्मक धरातल अलग भी हो जाता है. अतः दोनों ही स्वतंत्र हैं अपने स्थान पर एक लिखने के लिए दूसरा अर्थ निकालने के लिए. मेरे संप्रेषण को लेकर में जो भी सुझाव आते हैं उन्हें मैं अपने संज्ञान में लेता हुआ निरंतर आगे बढ़ता चलता हूँ. 'ग्रस्त' और 'त्रस्त' के सन्दर्भ में आपके कन्क्लुसिव विचार के बाद मैं नहीं समझता कि मैं कुछ भी कहूँ. आपकी टिपण्णी के लिए धन्यवाद
4- मित्र विश्वदीपक 'तन्हा' जी आपकी शंका का समाधान यह है कि इच्छाओं के सुषुप्तावस्था से जाग्रत होने के उपरांत अंतस में होने वाली एक के बाद एक प्रक्रियाओं की पृष्ठ भूमि में इस कविता का शीर्षक मैंने क्रमश: रखा.
अंत में आप सब मित्रों का प्रोत्साहन हेतु मेरा हार्दिक आभार. कृपया इसी प्रकार स्नेह बनाये रखें आप हैं तो हम हैं ...
धन्यवाद
श्रीकांत जी, अच्छी रचना लेकिन एक छोटी सी शंका मन में उठ रही है। "इच्छायें" और "स्मृतियों के छप्पर" इस संदर्भ में मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इच्छा हमेशा भविष्य को ख्याल में रखकर होती है जैसे मैं ये कर लूँ, वो खा लूँ इत्यादि जबकि स्मृति हमेशा अतीत की होती है। सुतरां भविष्य की सोच और अतीत का स्मरण इनमें उलझकर वर्त्तमान चूक जाता है क्या ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है?
श्रीकांत जी
सुंदर कविता.
इच्छायें
कुण्डलीग्रस्त सर्पो जैसी
जब फन फैलाकर
खड़ी हो जाती हैं
सुंदर चित्रण करने के लिए
बधाई
मुझे लगता है कविता में बस इतना ही है-
इच्छायें
कुण्डलीग्रस्त सर्पो जैसी
जब फन फैलाकर
खड़ी हो जाती हैं
शांति का निस्सीम आकाश
आँधीग्रस्त हो उठता है
एक क्षणिका के बराबर के कथ्य को बेवजह विस्तारित किया गया है। और बात भी नई नहीं कही गई। बस लुभावने शब्दों का मायाजाल है इस कविता में।
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