आठवीं कविता के रचनाकार दिव्य प्रकाश दुबे एक उम्दा कवि हैं। कई बार इस प्रतियोगिता में भाग लिये हैं और लगभग हर बार ही प्रकाशित हुए हैं।
जन्म- 8 नवम्बर 1981 वाराणसी
शिक्षा- इंजीनियरिंग स्नातक (कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, रूड़की), वर्तमान में Symbiosis Institute of Business management, Pune में अध्यनरत।
रुचियाँ- हिन्दी, अंग्रेज़ी साहित्य पठन में रुचि। कॉलेज के दौरान कई नाटकों में काम किया और लिखे। वाद-विवाद प्रतियोगिता मैं अक्सर ही विपक्ष मैं बोलने की आदत |
फलसफा-
कबीरा जब हम पैदा भये ,जग हँसा हम रोये
ऐसी करनी कर चलो ,हम हँसे जग रोये ||
पता : A-3/6 पेपर मिल कालोनी, निशात गंज ,लखनऊ 226006
ईमेल- dpd111@gmail.com
पुरस्कृत कविता- आंसू को रोना आया
एक बार सब धर्म जाके आंसू से मिले ,
कुछ बतलाया
कुछ समझौते की बात कही
वो बोले बाहर की दुनिया को देखो
हमने रंगीन फ़िजा बनायी है
लोगो को हमने रंगों के ढंग पे मोड़ लिया
जो केसरिया तिलक है माथे पे ये पहचान हमारी है
और हरियाली देखो झंडे की
अल्लाह की शान निराली है
अब तुम भी मानो बात हमारी
ये रंगहीन तन छोड़ो
हिंदू के बच्चे से निकलो केसरिया गुलाल सा
और हरा अबीर आँखों मैं भरकर मुस्लिम आँखों से रुक्सत हो
वो बोले ये बिना रंग का आंसू हमको अन्दर तक दहलता है
और बाहर से पोते मन को मानव की याद दिलाता है
सुनकर ये सारी अभिलाषा
कुछ पल को आंसू रो ही दिया
और बोला
मैं बन भाव किसी के अंतस से ,
इंसा की जुबां में कहता हूँ
मिलन झील सा हो जाता,संग विरह के रहता हूँ
और झूट ने ओढी हो चादर लाल हरी
मैं तो नग्न सत्य सा बहता हूँ
इस रंग बिरंगी दुनिया मैं मैं बेरंगा ही ढंग का हूँ.....
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰३
स्थान- पच्चीसवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ५॰४, ६, ७॰३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰२३३३
स्थान- सत्रहवाँ
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-कथ्य अच्छा है पर थोड़े निखार की जरूरत है।
कथ्य: ४/२॰५ शिल्प: ३/१॰५ भाषा: ३/२
कुल- ६
स्थान- पाँचवाँ
अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
अच्छे मनोभाव अभिव्यक्त हुए हैं, कुछ बिम्ब प्रभावशाली हैं।
कला पक्ष: ६॰५/१०
भाव पक्ष: ७॰५/१०
कुल योग: १४/२०
पुरस्कार- सूरज प्रकाश द्वारा संपादित पुस्तक कथा-दशक'
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
15 कविताप्रेमियों का कहना है :
बधाई हो दिव्यप्रकाश जी,बहुत मार्मिक रचना है,आंसू कसारिया,या हरे नही,रंगहीन ही अच्छे
नए और मौलिक बिम्ब हैं कविता में...
दिव्यप्रकाश जी,
बहुत ही विशिष्ट लगी आपकी कविता..
साधूवाद
हिंदू के बच्चे से निकलो केसरिया गुलाल सा
और हरा अबीर आँखों मैं भरकर मुस्लिम आँखों से रुक्सत हो
वो बोले ये बिना रंग का आंसू हमको अन्दर तक दहलता है
और बाहर से पोते मन को मानव की याद दिलाता है
सुनकर ये सारी अभिलाषा
कुछ पल को आंसू रो ही दिया
" आंसुओं को भी रोना आया , क्या बात कही है ,कमाल है , बहुत बहुत बधाई "
Regards
कविता की गहराई से अच्चम्भित हुआ मैं ,
शब्दों का कुशल प्रयोग किया गया है ! “रूकसत” “गुलाल” जैसे शब्दों का सही समय पर बहुत ही सटीक उपयोग किया है !
मेरे विचार से दिव्य तुम्हारी लिखी हुई कविताओं में से यह आपकी सबसे आक्रषक कविता लगी मुझे ये !! ”” इस रंग बिरंगी दुनिया में, मैं बेरंगा ही ढंग का हूँ “”
यह पंक्ती उत्कृष्ट है !! बधाई के पात्र हो आप
दर्शन मेहरा
सर्वप्रथम हार्दिक बधाई ... कुछ हद तक सही ही कहा है आपने, क्यूंकि भाषा, रहन-सहन और संस्कृति पर तो धर्म और जाति के रंग चढ़ ही चुके हैं, अब आंसुओं की ही बारी है...सोचता हूँ अब इसके बाद अगली बारी किसकी होगी !
as always its a masterpiece..
tumhari ek purani bat yad hai mujhe aaj tumhe hi kahna chah raha hun...
" ye khayal UD sakte hain, inhe udane do ab"
बधाई हो दिव्य ..
आशा करता हूँ , जल्द ही हिन्दी कविता एक नए सितारे को चमकता देखेगी.. बस ऐसे ही लिखते रहिये...
Maulikta aur rachnatmakta, divyaprakash ki visheshta hai.
Par shabd itne sadhe hue nahin lagte........shayad professionalism ki kami hai ye.
Par ye ek achchha paksh bhi mana ja sakta hai......the rawness of the poetry......jaise koi adhpaka fal: pure, true, raw and growing.
Jeevan wahan samapt ho jayega jahan sudhar ki gunjaish khatm ho jayegi........jeevan abhi baki hai, Divya Prakash ko abhi bahut kuchh kehna baki hai
बहुत उम्दा लेखन का परिचय |
अवनीश तिवारी
Bhai mere tere bhawanau ko padhkar mere maan main bhi khayal aatah hain jo ashu ke bareme tum likhte ho woh tu main socha karta hun par tune to sahi dhang se ushe ek naye andaz main dhall diya.isliye tumhe dhere sari bhdhiya dete hoe es rang manch ke bahar niklata hun aur apne man me ek khayal lete hoye jata hun ki phir koi bhawana merei dekhne milege tere bhawanao main.nice work
''बिना रंग का आंसू हमको अन्दर तक दहलता है
और बाहर से पोते मन को मानव की याद दिलाता है''
इन पंक्तियों में कविता का मर्म छिपा दिखता है.
बहुत ही गहरी सोच है.
अच्छी रचना है.
आठवां स्थान पाने के लिए बधाई.
लिखते रहिये.
दिव्य प्रकाश जी!!!
बहुत ही मर्मिक और भिन्न रचना है....
हार्दिक बधाई!!!
*************************
जो केसरिया तिलक है माथे पे ये पहचान हमारी है
और हरियाली देखो झंडे की
अल्लाह की शान निराली है
अब तुम भी मानो बात हमारी
ये रंगहीन तन छोड़ो
और झूट ने ओढी हो चादर लाल हरी
मैं तो नग्न सत्य सा बहता हूँ
इस रंग बिरंगी दुनिया मैं मैं बेरंगा ही ढंग का हूँ.....
दिव्य प्रकाश जी!!!
बहुत ही मर्मिक और भिन्न रचना है....
हार्दिक बधाई!!!
*************************
जो केसरिया तिलक है माथे पे ये पहचान हमारी है
और हरियाली देखो झंडे की
अल्लाह की शान निराली है
अब तुम भी मानो बात हमारी
ये रंगहीन तन छोड़ो
और झूट ने ओढी हो चादर लाल हरी
मैं तो नग्न सत्य सा बहता हूँ
इस रंग बिरंगी दुनिया मैं मैं बेरंगा ही ढंग का हूँ.....
मैं बन भाव किसी के अंतस से ,
इंसा की जुबां में कहता हूँ
मिलन झील सा हो जाता,संग विरह के रहता हूँ
और झूट ने ओढी हो चादर लाल हरी
मैं तो नग्न सत्य सा बहता हूँ
इस रंग बिरंगी दुनिया मैं मैं बेरंगा ही ढंग का हूँ.....
सही कहा...सुन्दर भाव।
दोस्त,
कविता के बीच में सही दिशा में जा रहे थे, लेकिन बहुत ही जल्दी अंत कर दिया। फिर भी नये तरह की सोच लेकर आये हो।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)