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Thursday, February 21, 2008

साहिल की हकीकत


१६वें स्थान के कवि आलोक सिंह साहिल हिन्द-युग्म के सक्रियतम पाठक हैं और हिन्द-युग्म पाठक सम्मान २००७ भी जीत चुके हैं। अब इनकी कविता पढ़कर बतावें कि ये कविता करने में कितने सफल हैं?

कविता- हक़ीकत

आस थी कि जहाँ को हिला देंगे हम,
हिल गए हम जहाँ की चुभन मात्र से,
नफ़रतों की कवायद जलाने गए,
जल गए नफरतों की तपन मात्र से;
बहते दरिया को ख़ुद में समेटेंगे हम,
चंद बूंदों में ख़ुद ही उफनने लगे,
रोशनी तो दिखाने गए अंधे को,
ख़ुद अंधेरों में घिरकर ही डरने लगे;
सांच को आंच क्या जानते थे मगर,
सुन हकीकत को ख़ुद ही सिहरने लगे.

निर्णायकों की नज़र में-


प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰२
स्थान- पच्चीसवाँ


द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ४॰८, ६॰७, ७॰२ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰२३३३
स्थान- सत्रहवाँ


तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी- निराशावादी रचना।
कथ्य: ४/२ शिल्प: ३/१॰५ भाषा: ३/१॰५
कुल- ५
स्थान- तेरहवाँ


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15 कविताप्रेमियों का कहना है :

Sajeev का कहना है कि -

अच्छी कोशिश है साहिल भाई

रंजू भाटिया का कहना है कि -

जल गए नफरतों की तपन मात्र से;
बहते दरिया को ख़ुद में समेटेंगे हम,

अच्छी कोशिश है आलोक आपकी ...यह पंक्तियाँ बहुत पसंद आई !!

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

साहिल भाई,
क्या सोचा था(?) कि देंगे कम्पीटिशन कवियों को,
पर दूर तलक धुन्ध ही धुंध है दिखाई देने को।।
बड़ी मेहनत करनी है अभी!!
लगे रहिये :-)

Anita kumar का कहना है कि -

मुझे तो आप की ये कविता बहुत अच्छी लगी, शुभकामनाएं

seema gupta का कहना है कि -

रोशनी तो दिखाने गए अंधे को,
ख़ुद अंधेरों में घिरकर ही डरने लगे;
सांच को आंच क्या जानते थे मगर,
सुन हकीकत को ख़ुद ही सिहरने लगे.
" ह्म्म तो आपका भी नंबर आ गया , अच्छी शुरुआत है, अच्छा शीर्षक है, ये पंक्तियाँ अच्छी लगी , आगे के लिए दिल से बहुत सारी शुभकामनाएं "
REGARDS YA

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

सांच को आंच क्या जानते थे मगर,
सुन हकीकत को ख़ुद ही सिहरने लगे.

साहिल जी, अच्छी रचना है।

*** राजीव रंजन प्रसाद

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

भले ही कविता निराशावादी हो, परंतु अंतर के भाव को शब्दों मे व्यक्त करना ही कविता है.. अगर भाव आशावान हैं तो आशावादी कविता फूटती है और मन में छुपी डर या निराशा से निराशावादी..

कविता कविता की लीक मैं है.. बहुत अच्छी कोशिश.. पहल कर रहे है.. थोड़ा डर तो सबको लगता है.. :) और जिस दिन डर गया ( मेरा मतलव डर भाग गया ) तो कविता कुछ हूँ हो जायेगी..

जहाँ की चुभन रेत है हाथ का
अब तो जहाँ को हिलाकर ही दम लेंगें
ये तपन नफरतों क्या कुछ कर सके
हम कवायद तक इसकी जला देंगे
चन्द बूंदों मे फिसलें! अरे छोड़ दो
हम तो दरिया को बन्दी बना लेंगे
बात डरने की गहरे अंधेरों से क्या,
अपनी आखों में सूरज बसा लेंगे
सांच को आंच क्या जानते हैं अरे
ये हकीकत जहाँ को बता देंगे..

- सहिल जी लगे रहो बहुत बढिया..

mehek का कहना है कि -

बहुत सुंदर

Anonymous का कहना है कि -

अच्छे भावों की सुंदर अभिव्यक्ती है

जल गए नफरतों की तपन मात्र से;
बहते दरिया को ख़ुद में समेटेंगे हम,

Anonymous का कहना है कि -

एक तुच्छ से प्रयास को सराहा इसके लिए सभी पाठक साथियों का आभार
आलोक सिंह "साहिल"

RAVI KANT का कहना है कि -

साहिल जी, अच्छा प्रयास है। लगे रहिए।

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

साहिल भाई, तुच्छ मत कहिये। यही कलम राजीव जी, सजीव जी व अन्य सभी वरिष्ठजनों के लिये अच्छा खासा कम्पीटिशन खड़ा कर सकती है। आप बस लिखते रहिये। फिर देखिये।

SahityaShilpi का कहना है कि -

हुस्ने-दरिया-ए-नगमात में यूँ फँसे
कि साहिल भी साहिल को ढूँढा किये
चाँद तारों को कब तक पुकारा करें
ये अँधेरा मिटेगा किरन मात्र से

साहिल साहब! अच्छी रचना है मगर आपसे और बेहतर की उम्मीद है!

गीता पंडित का कहना है कि -

आस थी कि जहाँ को हिला देंगे हम,
हिल गए हम जहाँ की चुभन मात्र से,


अच्छी कोशिश है...

शुभकामनाएं |

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

मेरे हिसाब से तो यह कविता भी नहीं है।

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