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दो बैल
नदी के दो किनारों की तरह
सड़क के किनारों को मिलाते हुए
पुट्ठों पर ढोते हुए वजन
गाड़ी का ,कोचवान के डंडों का;
पसीने से
सड़क की धूल गूँथते हैं -
उनका देश
सड़क की धूल फ़ाँकता है ।
कड़ी दुपहर में
नंगे बदन
अपने
और धरती के
फ़टे होठों पर
जीभ फ़िराता किसान -
जो अब तक यही समझता है,
कि उसकी तस्वीर लिखते वक्त
खुदा कोई रंग भरना भूल गया ;
जो हर दिन
पेड़ की डाली पर लटकी रस्सी
और घर जाने वाली सड़क
से एक चुनने में एक जीवन बिता देता है,
और फ़िर भी बच्चों की आँखों
में आधी रोटी की चमक नहीं देख पाता -
उसका देश
भूखे पेट सोता है ।
आलीशान दफ़्तरों में
दरवाज़ों पर सलामी दागते,
चेहरे पर मुस्कान का पोस्टर लगाये
स्वागत करते ,
ए टी एम का दरवाज़ा खोलते,
गाड़ियों के शीशे पोंछते,
घरों के दरवाजे पर खड़े
गार्ड-
जिनके जीवन की कोई भी चीज़ सिक्योर नहीं है -
न जान,
न वर्दी,
न नींद-
उनका देश
लम्हे गिनता है ।
सीमा पर
बूढ़े होते जवान,
देश के लिये मरने की
घर की छत , यादो की मरम्मत की
बच्चों को स्कूल ले जाने की,
घर लौटकर , दरवाजा खोलती बीवी को देख मुस्कुराने की,
ख्वाहिश लिये जीते हैं -
उनका देश
मरता है, शहीद नहीं होता ।
जाने वह कौन सा देश है,
जो लाल किले पर झंडा फ़हराता है ।
-आलोक शंकर
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
आलोक जी
आपकी कविता दिल
को छू जाती है
जो हर दिन
पेड़ की डाली पर लटकी रस्सी
और घर जाने वाली सड़क
से एक चुनने में एक जीवन बिता देता है,
और फ़िर भी बच्चों की आँखों
में आधी रोटी की चमक नहीं देख पाता -
उसका देश
भूखे पेट सोता है ।
बहुत भावुक बना दिया आपकी कविता ने ,हर शब्द एक तिस छोड़ जाता है दिल में ,बहुत बढ़िया लिखा है और सच भी.
जाने वह कौन सा देश है,
जो लाल किले पर झंडा फ़हराता है ।????
सही सवाल
अवनीश तिवारी
आलोक जी,
इस कविता के हरेक शब्द दिल को छू लेने वाले हैं। बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
आलोक जी
बहुत ही सुंदर चित्र खींचा है देश का -
आलीशान दफ़्तरों में
दरवाज़ों पर सलामी दागते,
चेहरे पर मुस्कान का पोस्टर लगाये
स्वागत करते ,
ए टी एम का दरवाज़ा खोलते,
गाड़ियों के शीशे पोंछते,
घरों के दरवाजे पर खड़े
साधूवाद
आलोक जी! हमेशा की तरह इस बार भी आपकी सोच ने लाजवाब कर दिया. पर आपके स्तर को देखते हुये रचना में काव्यात्मकता कम लगी. यदि रचना को गद्य की तरह लिखा जाता तो एक अच्छा लेख बन सकती थी. फिर भी आप अपनी बत पाठक तक पहु~म्चाने में सफल रहे हैं.
२६ जनवरी के बाद से आपकी कविता का सरोकार बदल गया है...आप अलग लगने लगे हैं..शब्द और सिमटे हुए होते तो कविता का मर्म और उभर पाता..
वैसे, इस विषय पर तो कुछ भी लिखा जाए, दाद होगी ही....
निखिल
आलोक जी
हृदयस्पर्शी .. !!
ऐसा प्रतीत होता है ..... रोज भोगते है हम सभी. परन्तु संवेदना ... ?
.... बस इससे आगे और कुछ नहीं
चिंतन बिल्कुल ईमानदार है, लेकिन कविता एकाध जगह कृत्रिम सी हो गई। हो सकता है कि वह अनायास ही हुआ हो, लेकिन इस विषय पर इतना कुछ लिखा जाता है कि अलग दिखने के लिए और मेहनत की आवश्यकता थी।
बहुत खूब आलोक जी.. चेतना को झकझोरने में सफल रहे आप.. हर पैरा का अंत चुभता सा है | शब्दों मे अपनी वेदना को बखूबी ढाला है आपने ..
हाँ शब्द कुछ कम होते तो और निखार आ जाता शायद कविता में ... बधाई स्वीकारिये..
आलोक जी,सहमत हुँ आपके विचारों से।
जाने वह कौन सा देश है,
जो लाल किले पर झंडा फ़हराता है
सुन्दर रचना।
बेहतरी,बेहतरीन......आलोक जी,एक एक शब्द मानो फुरसत से तराशे गए हों,आनंद आ गया.
बधाई हो सर जी
आलोक सिंह "साहिल"
बधाई आलोक शंकर जी,
सचमुच आपकी कविता देश की दशा को सोचने पर मजबूर करती है । हर क्षेत्र में कितनी चिन्तनीय दशाएँ हैं, सारी तो कहना ही सम्भव नहीं है । इन दुर्दशाओं में से जितना भी हम कम कर सकें, हमें करना चाहिए । माना कि एक व्यक्ति सब कुछ नहीं कर सकता है पर बूँद बूँद से घट भर सकता है ।
अलोक जी बहुत सुंदर रचना !!
आलोक जी,
इस कविता हृदयस्पर्शी दिल को छू लेने वाले हैं। Wonderful.
Regards
आलोक जी,
बैल न हो, किसान न हो, जवान न हो...तो देश कहां बचता है.. फ़िर भी हर कोई अपने लिये कुछ न कुछ करते हुए अन्जाने में देश के लिये कुछ न कुछ कर रहा है...
सवाल गम्भीर हैं मगर जबाब भी हमें ही देने हैं
भाव भरी सुन्दर रचना के लिये बधाई
आह!!!
यही तो कविता है, और क्या है.....
"जाने वह कौन सा देश है,
जो लाल किले पर झंडा फ़हराता है ।"
*** राजीव रंजन प्रसाद
सुन्दर कविता अलोक जी..
बहुत बहुत साधूवाद..
अच्छी कविता.
कई सवाल जो हर बार बिना उत्तर रह जाते हैं....फ़िर भी हर बार पूछे जाते हैं क्योंकि उनका उत्तर तलाशना है..आप की कविता भी दिमाग के तारों को झकझोर जाती है..और सोचने पर मजबूर करती है---अच्छी रचना है.
ek imandaar koshish hai yeh kavita...alok ji badhaai
यादो- यादों
अच्छी कविता है आलोक जी। आपने कविता की कई विधाओं को बेहतर जिया है।
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