तुम्हारी देह,
पोंछ सकता मेरी आस्तीन से
तो पोंछ देता...
सर्पिल-सी बांहों के स्पर्श में,
दम घुटने लगा है....
सच जैसा कुछ भी सुनने पर
बेचैन हो जाता है भीतर का आदमी....
जानता हूँ,
कि मेरी उपलब्धियों पर खुश दिखने वाला....
मेरे मुड़ते ही रच देगा नई साजिश...
मैं सब जानता हूँ कि,
आईने के उस तरफ़ का शख्स,
मेरा कभी नही हो सकता....
रात के सन्नाटे में,
कुछ बीती हुई साँसों की गर्माहट,
मुझे पिघलाने लगती है....
मेरे होठों पर एक मैली-सी छुअन,
मेरी नसों में एक बोझिल-सा उन्माद,
तैरने लगता है...
तुम, जिसे मैं दुनिया का
इकलौता सच समझता था,
उस एक पल सबसे बड़ा छल लगती हो....
मुझे सबसे घिन्न आती है,
अपने चेहरे से भी.....
धो रहा हूँ अपना चेहरा,
रिस रहे हैं मेरे गुनाह...
चेहरा सूखे तो,
बैठूं कहीं कोने में...
और लिख डालूँ,
अपनी सबसे उदास कविता....
निखिल आनंद गिरि
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
सर्पिल-सी बांहों के स्पर्श में,
दम घुटने लगा है....
सच जैसा कुछ भी सुनने पर
बेचैन हो जाता है भीतर का आदमी....
--- क्या ख़याल है |
अवनीश तिवारी
एक कड़वा सच कहा है आपने !
"मैं सब जानता हूँ कि,
आईने के उस तरफ़ का शख्स,
मेरा कभी नही हो सकता...."
बधाई हो, लिखते रहिएगा !
कवि की कल्पना
कवि की नींद टूट चुकी है। वह समझ नहीं पा रहा है िक उसने सपना देखा है सा हकीकत।
कवि पागलपन की हद तक कल्पना कर रहा है। अरे भाई सुना आपने कवि के भीतर ळी एक आदमी है।
हा हा। कवि महॊदस वॊ दॊ आदमियॊं से कैसे प्यार करती
सच जैसा कुछ भी सुनने पर
बेचैन हो जाता है भीतर का आदमी....
सुंदर रचना!
अवनीश जी, सतीश जी,
कविता पढ़कर प्रोत्साहित करने का शुक्रिया...
जालिम जी,
आपकी नींद कभी-कभार ही क्यों टूटती है आजकल...कहाँ हैं जनाब...कवि के भीतर का आदमी आपको ढूंढ रहा है...
मिलिए फ़िर बताता हूँ कि वो दो आदमियों से प्यार कैसे करेगी...
टिपण्णी का शुक्रिया....
इतना उदास नहीं हुआ करते निखिल भाई और सबसे उदास कविताओं को चेहरा सूखने की प्रतीक्षा मत करने दो :)
बहुत अच्छी कविता। लगे रहो...
निखिल जी कविता तो बहुत अच्छी बन पड़ी है पर कुछ उलझी हुई सी लगी...
सर्पिल सी बाहें एक बड़ा अच्छा प्रयोग लगा|वैसे आप ने अपनी उदासी सिर्फ़ "उस" तक सीमित रखी|अगर आप अपनी उदासी का कारण उस से बढ़कर "सब" बताते तो शायद कविता ज़्यादा खूबसूरत हो जाती ... वैसे मैं तो यही समझ रहा था पर जब पढ़ा "उस एक पल सबसे बड़ा छल लगती हो...." तब बात समझ आई... | दूसरी बात कि आप कह रहे हैं
"धो रहा हूँ अपना चेहरा, रिस रहे हैं मेरे गुनाह..." यह बात आपने व्यंग्य में कही है क्या? क्योंकि पूर्व कथन था "सबसे बड़ा छल लगती हो...." |
शायद मैं मर्म तक नहीं पहुँच पा रहा हूँ क्योंकि प्रथम बार मैने कविता को दूसरे नज़रिए से पढ़ा|
खैर जो भी हो कविता निस्संकोच बहुत ही अच्छी बन पड़ी है.. बधाई स्वीकारिये..
सच जैसा ही कुछ कह कर बेचैन करने की सफल कोशिश. इस उम्दा रचना के लिया बधाई.
कवि की कल्पना तो देखिए-
सर्पिल-सी बांहों के स्पर्श में,
दम घुटने लगा है....
सच जैसा कुछ भी सुनने पर
बेचैन हो जाता है भीतर का आदमी....
बहुत अच्छे. क्या राज है बंधू इस उदासी का?
आलोक सिंह "साहिल"
सर्पिल-सी बांहों के स्पर्श में,
दम घुटने लगा है....
सच जैसा कुछ भी सुनने पर
बेचैन हो जाता है भीतर का आदमी....
निखिल जी, सच की कविता...बिल्कुल आसपास से गुजरती हुई।
निखिल भाई!
आपकी इस रचना की सबसे बड़ी खासियत यह है कि आपने इसमें इतनी गूढता डाली है कि आधा-अधूरा समझकर हीं वाह कहना पड़ता है।सच कह रहा हूँ...मैने इसे दो बार पढा, लेकिन पूरा नहीं समझ सका। लेकिन हाँ, जितना भी समझा, उससे यह कविता भाव और शिल्प दोनों के दृष्टिकोण से अच्छी लगी। नए बिंबों का प्रयोग आपने खूबसूरती से किया है।
बधाई स्वीकारें।
हाँ, गौरव की बात मानें और ज्यादा उदास न हों। :)
-विश्व दीपक ’तन्हा’
"मैं सब जानता हूँ कि,
आईने के उस तरफ़ का शख्स,
मेरा कभी नही हो सकता...."
सुंदर रचना.,
Regards
निखिल जी,
काफ़ी खफ़ा लगते हैं आप जमाने के चलन से और खुद को भी कसूरवार ठहरा दिया.... सच ही कहा है आपने लेकिन इस बदमिजाज लम्पट दुनिया में कुछ कुछ अच्छा भी है जैसे रेत में से सोना निकाल लेते हैं.. जिन्हें चाह होती है...वही हमें भी करना है...तल्खियों को भुला कर इत्मनान को गले लगाना है...
सुन्दर रचना के लिये बधाई
चेहरा सूखे तो,
बैठूं कहीं कोने में...
और लिख डालूँ,
अपनी सबसे उदास कविता....
निखिल जी, बेहतरीन रचना...
*** राजीव रंजन प्रसाद
निखिल भाई
ना चाहते हुए भी किसी विषेश परिस्थिती की विवशता के चलते उलझे इंसान की मनोस्थिती लग रही है मुझे तो आपकी कविता में..
मैं भटक रहा हूँ इस आभास को लेकर या यही वास्तविकता का परिदृश्य हैं..
कविता सच में कुछ गूढ़ है..
निखिल जी कविता अच्छी है.कुछ शब्दों पर अगर थोडा काम और किया जाता तो और बेहतर बन जाती . कुल मिला कर बढिया कविता है. बधाई
जानता हूँ,
कि मेरी उपलब्धियों पर खुश दिखने वाला....
मेरे मुड़ते ही रच देगा नई साजिश...
मैं सब जानता हूँ कि,
आईने के उस तरफ़ का शख्स,
मेरा कभी नही हो सकता....
क्या बात कही है निखिल, जैसे जैसे कविता आगे खुलती है, भाव गहरे होते जाते हैं, बहुत खूब और अंत लाजावाब है
मुझे सबसे घिन्न आती है,
अपने चेहरे से भी.....
धो रहा हूँ अपना चेहरा,
रिस रहे हैं मेरे गुनाह...
चेहरा सूखे तो,
बैठूं कहीं कोने में...
और लिख डालूँ,
अपनी सबसे उदास कविता....
बहुत सुंदर!
कविता अच्छी लगी.
तुम, जिसे मैं दुनिया का
इकलौता सच समझता था,
उस एक पल सबसे बड़ा छल लगती हो....
सुन्दर रचना बधाई!!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)