आज छठवीं कविता की बारी थी लेकिन इस कविता के रचनाकार का परिचय अभी तक हमें प्राप्त नहीं हुआ, इसलिए हम सातवीं कविता प्रकाशित कर रहे हैं। गौरव जैन भी हिन्द-युग्म यूनिकवि एवम् यूनिपाठक प्रतियोगिता के टॉप १० में आने वाला बिल्कुल नया चेहरा है।
पिता का नाम : श्री प्रवीण कुमार जैन
माता का नाम : श्रीमती मंजु जैन
ये दो भाई एवं एक बहिन है। इनका जन्म ५ अप्रैल १९८४ को बड़ौत (उ॰प्र॰) में हुआ। ये लोग बड़ौत शहर के रहने वाले हैं और इनके पिता जी का अपना कारोबार बड़ौत शहर में ही है। इन्होंने अपनी ग्रेजुएशन कोमर्स से पूरी की है। इसके अलावा ये अब अपना खुद का व्यापार सम्बलपुर में कर रहे हैं और वहीं पर सेट्लड हैं।
पत्र-व्यवहार का पता-सुपर एग्रीकल्चरल कॉरपोरेशन
दिल्ली रोड, बड़ौर- २५०६११
उ॰प्र॰
पुरस्कृत कविता- दोस्ती और मजहब
आंगन में मेरे
बरगद का पेड़ खड़ा था
पोता मेरा
उसकी एक शाख पर चढ़ा था
देखके, उसको मन मेरा
बचपन की सैर कराने ले गया
वो पतली-पतली गलियाँ बचपन की
आज दिखाने ले गया
राह में बचपन की
कोहरा कुछ अब साफ़ हुआ
धूल तस्वीर से
कोई आके जैसे झाड़ गया
याद आते हैं मुझको
दोस्ती के वो मीठे किस्से
और दिन
मैं और रहीम साथ बिताया करते थे
कैसे हम
गोद में बरगद की खेला करते थे
अम्मा जब बुलाने आती
बरगद के पीछे छिप जाया करते थे
अम्मा, कान हमारा पकड़ के लाती
हाथों से अपने रोटी भी खिलाती
अब्बा रहीम के फिर घर आते
संग दिवाली के पटाखे लाते
बरगद के पास में जाके
हम दोनों खूब छुटाते
संग ईद की ग़ज़ल भी गाते
और होली पर खूब चिल्लाते
याद आता है मुझको
कैसे सावन में
बरगद पर झूला करते थे
ठण्ड लगे तो
तोड़ के टहनी हाथों को सेका करते थे
चुराके गन्ने खेतों से
कैसे हम चूसा करते थे
याद आता है मुझको
फिर हम कुछ बड़े हुए
लिखने पढ़ने स्कूल गये
अब वो बचपन भी हुआ खत्म
बरगद की टहनी की बनी कलम
उस कलम से
मै़ने सीखा राम बनाना
रहीम ने अल्लाह को जन्म दिया
मैंने ईद मनाना कम किया
उसने दिवाली सजाना बन्द किया
याद आता है मुझको
दोस्ती हमारी
मजहब के खड्डे में दफ़न हुई
चादर नफ़रत की उसका कफ़न हुई
घंटी मंदिर की बजती जब
उसको गुस्सा आता था
अजान नमाज की आती जब
खून मेरा खौल सा जाता था
फिर वो देश पर चोट हुई
फिर वो मजहब का लावा सुलगा
कहीं गीता जली कहीं कुरान फ़टा
जाने कितनों का लहु बहा
जाने कैसे हत्याओं का वो तूफ़ान रुका
कैसे जाने हत्यारों का हाथ झुका
नरमुंड का था ढ़ेर पड़ा
शव मानवता का सड़ा गला
तभी रहीम को मैने तड़पते देखा
पर मैं कायर
डर और नफ़रत के कारण
उसको वहीं पर छोड़ दिया
मुझे पुकार-पुकार
उसने भी दम अपना तोड़ दिया
तभी आवाज एक आती है
मै हड़बड़ा के जागता हूं
पोती पास में मेरे आती है
खाना खाने को ले जाती है
हाथ मेरे धुलवाती है
और कुछ लाली संग पानी के बहती है
शायद ये लाली रहीम के खून की है
जो बरगद से बात को अपनी कहती है
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के जजमैंट में मिले अंक- ९, ६, ५॰५
औसत अंक- ६॰८३३
स्थान- सातवाँ
द्वितीय चरण के जजमैंट में मिले अंक-५॰५, ६॰३८३३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰१६६६
स्थान- सातवाँ
तृतीय चरण के जज की टिप्पणी- साम्प्रदायिक सौहार्द पर लिखी हुई एक अच्छी कविता। ये कविता ये भी बताती है कि यदि हममें थोड़ा सा बच्चा बचा रहे तो झगड़े भी बच्चों जैसे ही आसान हो जायें। मूलतः कट्टरवाद हमारे सारे फ़साद की जड़ है।
मौलिकता: ४/॰५ कथ्य: ३/२॰५ शिल्प: ३/२
कुल- ५
स्थान- छठवाँ
अंतिम जज की टिप्पणी-
रचना की शैली मंचीय कविता की सी है। पाठक नयापन अथवा बिम्बगत कौशल तो नहीं पाता हाँ, कथ्य गंभीर है।
कला पक्ष: ६/१०
भाव पक्ष: ५॰५/१०
कुल योग: ११॰५/२०
पुरस्कार- ऋषिकेश खोडके 'रूह' की काव्य-पुस्तक 'शब्दयज्ञ' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
गौरव भाई ,
इतनी सुंदर रचना है कि यदि तुम मेरे पास होते तो मैं तुम्हारे हाथों को चूम लेता |
बधाई
--
अवनीश तिवारी
कोहरा कुछ अब साफ़ हुआ
धूल तस्वीर से
कोई आके जैसे झाड़ गया
याद आते हैं मुझको
दोस्ती के वो मीठे किस्से
और दिन
मैं और रहीम साथ बिताया करते थे
कैसे हम
गोद में बरगद की खेला करते थे
अम्मा जब बुलाने आती
बरगद के पीछे छिप जाया करते थे
अम्मा, कान हमारा पकड़ के लाती
हाथों से अपने रोटी भी खिलाती
अब्बा रहीम के फिर घर आते
संग दिवाली के पटाखे लाते
बरगद के पास में जाके
हम दोनों खूब छुटाते
संग ईद की ग़ज़ल भी गाते
और होली पर खूब चिल्लाते
याद आता है मुझको
कैसे सावन में
बरगद पर झूला करते थे
ठण्ड लगे तो
तोड़ के टहनी हाथों को सेका करते थे
चुराके गन्ने खेतों से
" good creation of beautiful memories of childhood,lovedyour poem"
Reagrds
गौरव जी, गम्भीर कथ्य के साथ अच्छा लेखन
सुन्दर.
बहुत बहुत बधाई
गौरव जैन जी लम्बी मगर बेहद सहज और प्यारी कविता.
बहुत शुभकामनाएं
आलोक सिंह "साहिल"
behad gehre bhav hai,bachpan ke din hi achhe,bachpan ke din hi sache.
गौरव जी
बहुत ही अच्छी लगी आपकी कविता । इसमें दिल को छू लेने की ताकत है और दिमाग को झंकृत करने की शक्ति ।
उसने भी दम अपना तोड़ दिया
तभी आवाज एक आती है
मै हड़बड़ा के जागता हूं
पोती पास में मेरे आती है
खाना खाने को ले जाती है
हाथ मेरे धुलवाती है
और कुछ लाली संग पानी के बहती है
शायद ये लाली रहीम के खून की है
जो बरगद से बात को अपनी कहती है
विस्तार कुछ ज्यादा लगा । सस्नेह
संस्मरणों को कविता के धागों में बांधने के काम में आप को सफलता मिली -बधाई.
* यादों को एक उद्देश्य के साथ इस रूप में प्रस्तुत करना सार्थक दिखायी देता है.
कविता में पढने वाले को बांधने की क्षमता है.साम्प्रदायिक सौहार्द विषय नया नहीं परन्तु आप की प्रस्तुति में जान है.
बधाई हो गौरव जी । आपकी रचना जितनी सोची थी पढ़कर उससे काफ़ी ज्यादा अच्छी लगी । पहले तो बड़ी कविता देखकर पढ़ने में कम जी लगा परन्तु जब कविता समाप्त होने लेगी तो लगा अरे यह इतनी जल्दी समाप्त कैसे हो गई, और आगे चलती रहती तो अच्छा रहता ।
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