६० साल पहले...
कुछ लोग खडे थे
कश्तियों के इंतज़ार में
कश्तियाँ आती थी
पर उन्हें बिठाती न थी
बस ललचा के
गुजर जाती थी..
ये उचित न था..
हाँ न था...
६० साल बाद..
ये मेहनतकश लोग
बिना कश्तियों के
पार जाते है सागर
पर किनारे नहीं लग
पाते......
"कुछ लोगों" के अधिकार
अब ज्यादा है....
कश्तियाँ भी डूबती जा
रही है..
ये भी तो उचित नहीं है
हाँ नहीं है...
यूनिकवयित्री- दिव्या श्रीवास्तव
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
दिव्या,बहुत अच्छा लिखा है.
यही परिवर्तन है?है तो--
गहरे भाव लिए हुए
यह कविता भी अच्छी प्रस्तुति है.
कुछ लोगों" के अधिकार
अब ज्यादा है....
कश्तियाँ भी डूबती जा
रही है..
बहुत सुंदर दिव्या !
लेखनी को विराम मत देना और अपनी पैनी दृष्टि को आज के तथा कथित समता के नाम पर विसमता मूलक समाज का निर्माण करने वाले इन भेडियों पर इसी तरह गडाये रखना
स्नेह
ये भी तो उचित नहीं है
हाँ नहीं है...
"बहुत खूब , बडा अच्छा लगा गहरे भाव पड़ कर "
Regards
bahut sundar divyaji,parivartan hi jeevan hai,apne sahi bayan kiya hai.
दिव्या जी,
व्याकर्णिक पक्ष में कमजोर मगर भाव पक्ष से मजबूत रचना है..
बिताठी = बिठाती
ये मेहनतकश लोग
बिना कश्तियों के
पार जाते है सागर
पर किनारे नहीं लग
पाते......
ये मेहनत्कश लोग
बिना कश्तियों के
सागर पार जाते हैं
पर किनारे नही लग पाते
दिव्या जी,
अच्छा परिवर्तन
अब और पहले के वो 60 साल
बहुत खूब, बे-मिशाल..
कमाल जी कमाल
लिखते रहें.. वर्तनीगत अशुद्धियों को ध्यान रखें
शुभ-कामनायें
दिव्या जी एक बार फ़िर अच्छी प्रस्तुति, बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
दिव्या जी
क्या उचित है और क्या नहीं यह बस कुछ लोग ही सोचते हैं और जो सोचते हैं वो भी कुछ अधिक नहीं कर पाते । एक कवि इस ओर संकेत करे तो समाज में जागृति अवश्य आती है । जागृति का संदेश देने के लिए बधाई ।
"कुछ लोगों" के अधिकार
अब ज्यादा है....
कश्तियाँ भी डूबती जा
रही है..
ये भी तो उचित नहीं है
हाँ नहीं है...
दिव्या जी,
बहुत हीं सही लिखा है आपने। आपकी लेखनी में धार जान पड़ता है, इसे कमतर न होने दीजिएगा।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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