मुझे बचपन में भ्रम होता
या शायद यह मेरे बचपने का भ्रम था
कि पूरब में
पौ फटने के साथ ही
तमाम परिन्दे भी
एक ख़ास दिशा से निकलकर
हर दिशा में
अपनी रोजी-रोटी के लिए
बिख़र जाया करते हैं
और शाम को
फिर ऐसा ही भ्रम होता कि
पश्चिम में
सूरज ढ़लने के साथ
तमाम पखेरू भी
एक ही ओर लौट रहें हों.....
किशोर होने पर
मेरे भ्रम में फ़र्क़ पड़ा
अब मुझे
वर्ग विशेष के परिन्दे
अलग-अलग दिशाओं से
आते और जाते लगते ?
जब युवा हुआ तो
भ्रम टूटने के बजाए
विशाल भ्रम-जाल सरीखा लगता है।
आज हर-एक पक्षी मुझे
अलग-अलग दिशा से
समय–काल के तमाम नियम से परे
आते-जाते दिखते हैं।
कभी आधी रात में
कौवे की काँव-काँव.....
तो कभी रात के दो बजे
कोयल की कूक सुनाई देती है
अपने कानों पर विश्वास करने को
जब भी मैं छत पर आता हूँ तो
हर दिशा से
पौ-फटने का भ्रम
मुझे और भ्रमित करता है
बार-बार घड़ी देखता हूँ
तब कहीं कुछ यकीन होता रात का
काश...
मुझे बचपन की तरह ही
हर उम्र में
वक्त पर नींद आती रहती
तो इतना फ़र्क़
मेरी ज़िन्दगी में कभी नहीं आता।
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
आप की कविता उम्र की तीन अवस्थाओं पर इंसान के बदलते नज़रिये को दर्शाती है.कविता में सच है.
बहुत ही सुंदर ,साफ ढंग से आपने इन भावों को प्रस्तुत किया है.
एक अच्छी रचना.
bahud achhi rachana hai,jaise hum bade hote hai,nazariya badal jata hai,shayad bachpan suhana,sare pakheru ek se dekhte hai,umar ke teno padavo ke vichar behad nazakat se pesh huye hai.badhai.
काश...
मुझे बचपन की तरह ही
हर उम्र में
वक्त पर नींद आती रहती
तो इतना फ़र्क़
मेरी ज़िन्दगी में कभी नहीं आता।
"a fantastic poem explaining the different phases of life. last paragraph has decsribe what the poet wanna say.really good"
Regards
अभिषेक भाई,
दुनिया गोल है और मानव की बुद्धि की भी सीमा है.. इस कारण भ्रम लाजमी है.. :)
वैसे आप इस रचना को और सशक्त रूप से जी सकते थे... मुझे लगा कहीं कहीं अभिव्यक्ति में कमी रह गई.
अभिषेक जी,
कविता आरम्भ और अंत में सशक्त है मगर बीच में कमजोर महसूस हुई.. मेरा अपना नज़रिया है..
शिल्पगत सुधार सम्भव है..
भाव-पक्ष सुन्दर है , वस्तुस्थिति को दर्शाती और पन के फर्क को उकेरती कविता के लिये बधाई स्वीकारें
पाटनी जी जीवन के यथार्थ को बड़े खूबसूरत अंदाज में पेश किया आपने.
बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
अभिषेक जी
आपकी कलम बहुत प्रभावी है । आप बहुत अच्छा लिखते हैं । बहुत सुन्दर लिखा है -
काश...
मुझे बचपन की तरह ही
हर उम्र में
वक्त पर नींद आती रहती
तो इतना फ़र्क़
मेरी ज़िन्दगी में कभी नहीं आता।
साधुवाद
अच्छी लगी, लेकिन अंत कुछ चौंकाने वाला होता तो और आनन्द आता।
काश...
मुझे बचपन की तरह ही
हर उम्र में
वक्त पर नींद आती रहती
तो इतना फ़र्क़
मेरी ज़िन्दगी में कभी नहीं आता।
अभिषेक जी,
बेहतरीन रचना है। उम्र के साथ मनोभावों में परिवर्त्तन को आपने बखूबी दर्शाया है।
बधाइ स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
An excellent poem describing the fact that as we grow and understand different things in depth, as our horizon of thinking widens, we have more worries and more complications to handle.
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