इन्हें पता नहीं यह इन्कलाब किसलिए है,
सो रहे हैं हर पल तो ख्वाब किसलिए है?
जिंदगी के खोल में ये मौत पालते हैं,
जाने नकाबपोश का हिजाब किसलिए है!
अपनों के खून से हैं सने जुनून इनके,
तो हौसला है क्यूँकर, रूआब किसलिए है?
आँखों में जब्त इनके नाकामियाँ अनेकों,
फिर इन शेखियों का सैलाब किसलिए है!
दूजों की आस्तीन पे जमे हैं गर्द-से ये,
इनके यहाँ ईमान का हिसाब किसलिए है!
पत्थर परोसते हैं ये अंधों की फौज को,
इंसानियत की कब्र यूँ नायाब किसलिए है?
स्याही बिछाकर आसमां गूँथते हैं ये,
अब जाना, मुरझाया आफताब किसलिए है!
अपने हीं हाथों लूट लीं आबरू अपनी,
'तन्हा' इन निगाहों में आब किसलिए है!!
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
दूजों की आस्तीन पे जमे गर्द-से हैं ये,
इनके यहाँ ईमान का हिसाब किसलिए है!
-- बहुत खूब
अवनीश तिवारी
तन्हा जी , फ़ारसी के शब्दों में नुकता लगा दीजिये ।
कुछ और सुझाव :
जाने नकाबपोशों का हिजाब किसलिए है! में एक मात्रा अधिक है, लय में बाधा डालती है । अगर नकाबपोशों की जगह नकाबपोश लिखने से आपके वांछित भाव में कोई फ़र्क नहीं आता , तो 'नकाबपोश' लिखिये ।
"अपनों के खून से हैं सने जुनून इनके,
तो हौसला है क्यूँकर, रूआब किसलिए है?"
में लय एकदम पर्फ़ेक्ट है ।
"फिर इन शेखियों का सैलाब किसलिए है!" में 'इन' कहते समय लय में रुकना पड़ता है। अगर इसकी जगह 'जाने' लगा दें तो मेरे हिसाब से एक फ़्लो में पढ़ सकते हैं वैसे अभी वाले में भी 'फ़िर इन ' को 'फ़िरिन' पढ़ें तो लय सही हो जाती है ।
"दूजों की आस्तीन पे जमे गर्द-से हैं ये, "
की जगह "दूजों की आस्तीन पे जमे हैं गर्द-से ये," में लय बेहतर होगी ।
"त्थर परोसते हैं ये अंधों की फौज को,
इंसानियत की कब्र यूँ नायाब किसलिए है?"
परफ़ेक्ट है
यह सारे सुझाव मैं ने जिस तरह गज़ल की फ़्लो को पाया या पढ़ा , उसके हिसाब से दिये हैं । हो सकता है मैं गलत हूँ ।
पर आज जो आपकी गज़ल का स्तर है । वह यही बताता है कि कि आप मैच्योर की श्रेणी में शामिल हो चुके हैं । और वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब आप विशिष्ट की श्रेणी से भी उपर पहुँच जायें । बस , प्रगति की यही स्पीड बनाये रखिये ।
मुझे "
स्याही बिछाकर आसमां गूँथते हैं ये,
अब जाना, मुरझाया आफताब किसलिए है"
और
अपनों के खून से हैं सने जुनून इनके,
तो हौसला है क्यूँकर, रूआब किसलिए है?
बहुत पसन्द आयी ।
तन्हा भाई, गजल की एक एक पंक्ति झकझोरने मी सक्षम है, जब मैंने पढी तो लगा ये पंक्तियाँ बहुत ही धारदार हैं-
इन्हें पता नहीं यह इन्कलाब किसलिए है,
सो रहे हैं हर पल तो ख्वाब किसलिए है?
जिंदगी के खोल में ये मौत पालते हैं,
जाने नकाबपोश का हिजाब किसलिए है!
अपनों के खून से हैं सने जुनून इनके,
तो हौसला है क्यूँकर, रूआब किसलिए है?
फ़िर लगा ये पंक्तियाँ भी कमतर नहीं -
स्याही बिछाकर आसमां गूँथते हैं ये,
अब जाना, मुरझाया आफताब किसलिए है!
अपने हीं हाथों लूट लीं आबरू अपनी,
'तन्हा' इन निगाहों में आब किसलिए है!!
अंत मी लगता है की पुरी गजल ही दमदार है,
बहुत बहुत साधुवाद.
आलोक सिंह "साहिल"
जिंदगी के खोल में ये मौत पालते हैं,
जाने नकाबपोश का हिजाब किसलिए है!
वाह दीपक जी बहुत ही सुंदर और अच्छा लिखा है आपने ..
दूजों की आस्तीन पे जमे हैं गर्द-से ये,
इनके यहाँ ईमान का हिसाब किसलिए है!
बहुत खूब ..बधाई सुंदर गजल के लिए !!
zindagi ki schai darshati,sundar gazal,so rahe hai,to khwab kisliye hai.sahi.
'स्याही बिछाकर आसमां गूँथते हैं ये,
अब जाना, मुरझाया आफताब किसलिए है''
वाह! वाह! क्या बात कह दी आपने! बहुत अच्छा लिखा है--
बाकि सारे शेर भी काबिले तारीफ़ हैं. बहुत खूब!
अपने हीं हाथों लूट लीं आबरू अपनी,
'तन्हा' इन निगाहों में आब किसलिए है!!
बहुत खूब , सुंदर गजल ,काबिले तारीफ़ "
Regards
तन्हा जी,
गजल बढिया बन पडी है... सभी शेर दमदार है... किस लिए है ..को आपने खूब जिया है.
बधायी.
तन्हा जी,
बहुत ही सुन्दर गजल लिखी है, एक एक शेर लाजवाब..
आलोक जी की बात पर गौर करें..
-साधूवाद
इन्हें पता नहीं यह इन्कलाब किसलिए है,
सो रहे हैं हर पल तो ख्वाब किसलिए है?
स्याही बिछाकर आसमां गूँथते हैं ये,
अब जाना, मुरझाया आफताब किसलिए है!
अपने हीं हाथों लूट लीं आबरू अपनी,
'तन्हा' इन निगाहों में आब किसलिए है!!
ये शेर विशेष पसन्द आए। सही जा रहे हो। लिखते रहो :)
mujhe hindi ya phir ghazal ka khas koi gyan to nehi hai.. par ye zaroor kehna chahenge ki aapka yeh ghazal alag hai, unique. Specially saare doublets ke second lines mujhe bahut achhe lage. Badhai ho :)
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