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Thursday, January 10, 2008

बहुत सा फर्क है


कल हमने यूनिकवि एवम् यूनिपाठक प्रतियोगिता का परिणाम प्रकाशित किया। आज हम दूसरी कविता लेकर प्रस्तुत हैं, इस स्थान पर भी एक कवयित्री काबिज हैं। अनुराधा शर्मा ने अक्टूबर माह की प्रतियोगिता में भी भाग लिया था, जिसमें इनकी कविता अंतिम २० में थी। इस बार इनकी कविता 'बहुत सा फ़र्क है' द्वितीय स्थान पर है।

२१ जून १९८४ को दिल्ली में जन्मी अनुराधा शर्मा को कविता-ग़ज़ल-नज़म आदि लिखने का बहुत शौक है। मानव संसाधन में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा करने के बाद वर्तमान में इंदिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में परास्नातक कर रही हैं।

स्थान- फ़रीदाबाद

पुरस्कृत कविता- बहुत सा फ़र्क है

बहुत सा फर्क है-
तुझमें और मुझमें
तेरी शतरंज के खाने
बस काले और सफेद हैं
चकोर, चार कोनों वाले हैं
मेरी ज़िन्दगी की शतरंज
रंगीन खानों वाली है
रिश्तों में उल्झे-आड़े टेढ़े हैं

बहुत सा-फर्क है
तुझमें और मुझमें
तू है सख्त कठोर सा
बहुत इक्ट्ठा वजूद है तेरा
मैं एक रेत हूँ बेहद सूखी
हर हवा के साथ बस उड़ती हुई बस
आँसू की नमी से जुड़ती हुई

बहुत सा फर्क है--
तुझमें और मुझमें
तू घरों को बनाता है
दीवारों को चीनता है
और दुनिया तलाशने निकल जाता है
मैं तेरे उन घरों को बसाती हूँ
दीवारों में उमर गुज़ार देती हूँ
और मरकर, एक दीवार बन जाती हूँ
बहुत सा-फर्क है
तुझमें और मुझमें

निर्णायकों की नज़र में-


प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰५, ६, ६॰८
औसत अंक- ६॰४३३
स्थान- पंद्रहवाँ


द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ५॰३५, ६॰४३३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰८९१६७
स्थान- तेरहवाँ


तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-एक स्त्री की नियति को सामने लाती हुई अच्छी रचना
मौलिकता: ४/२॰५ कथ्य: ३/२॰५ शिल्प: ३/२॰३
कुल- ७॰३
स्थान- प्रथम


अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
फर्क का विश्लेषण करती रचना बहुत प्रभावी बन पडी है, विषेशकर इसका अंत सकारात्मकता प्रदान करता है।
कला पक्ष: ६॰५/१०
भाव पक्ष: ६॰५/१०
कुल योग: १३/२०


पुरस्कार- ऋषिकेश खोडके 'रूह' की काव्य-पुस्तक 'शब्दयज्ञ' की स्वहस्ताक्षरित प्रति

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23 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

sach behtarin nagma,bahut farak hai tujh mein aur mujh mein,ek admi aur ek aurat ke bich ka farak ya premi premika ke dil ke jajbato ka farak,bekhubi bayan kiya hai apne,shataranj ke kone wali panktiyan badhiya hai.badhai ho aap ko.

seema gupta का कहना है कि -

बहुत सा फर्क है--
तुझमें और मुझमें
तू घरों को बनाता है
दीवारों को चीनता है
और दुनिया तलाशने निकल जाता है
मैं तेरे उन घरों को बसाती हूँ
दीवारों में उमर गुज़ार देती हूँ
और मरकर, एक दीवार बन जाती हूँ
बहुत सा-फर्क है
तुझमें और मुझमें
" अनुराधा जी आपको बहुत बधाई, बडा सी सही विषय चुना है आपने , आपकी रचना दिल को छु गई है.
Regards

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

बहुत सुंदर | सुंदर प्रस्तुति है |
और कुछ आगे लिखा जा सकता था |
बधाई
अवनीश तिवारी

dr minoo का कहना है कि -

anuradha...shatranj ke upar kavita..ati sunder

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

अनुराधा जी,

बहुत ही सुन्दर लिखा है.. छू जाने वाली रचना 'बहुत सा फर्क है'

बहुत बहुत बधाई व शुभकामनायें..

anuradha srivastav का कहना है कि -

नये स्वरुप में "फर्क"वाकई अच्छा बन पडा है।

Anonymous का कहना है कि -

आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया... आप लोगो के साथ बस चल रहे हैं ... आप सभी पढ़ा और समझा उसके लिए तहे दिल से आप सबकी शुकर गुज़ारा ह

Anonymous का कहना है कि -

अनुराधा जी दिल को छू लेने वाली एक बेहतरीन रचना.
साथ ही आपने दूसरा स्थान भी प्राप्त किया,
बहुत बहुत शुभकामनाएं
अलोक संघ "साहिल"

डाॅ रामजी गिरि का कहना है कि -

"मैं तेरे उन घरों को बसाती हूँ
दीवारों में उमर गुज़ार देती हूँ"

बहुत ही सटीक बयानी की है आपने नारी मन के मर्म का...

Unknown का कहना है कि -

Bahut hi achcha likha hai anu keep it up

कुश का कहना है कि -

bahut sundar Anu... badhaai swikar kijiye..

शोभा का कहना है कि -

अनुराधा जी
बहुत सुंदर लिखी है.
तू घरों को बनाता है
दीवारों को चीनता है
और दुनिया तलाशने निकल जाता है
मैं तेरे उन घरों को बसाती हूँ
दीवारों में उमर गुज़ार देती हूँ
बधाई

Shailesh Jamloki का कहना है कि -

अनुराधा शर्मा जी,
जानती है आपकी कविता का आखरी पद सबको ज्यादा क्यों पसंद आ रहा है?
१) अन्तिम पद मै आपने बहुत ही सरल शब्दों मै बात कह दी है.. जबकि पहले दो पदों मै आपने अप्रत्यक्ष रूप से कही है जैसे
(पहले पद मै आप कह रही है तुम शतरंज के खाने से हो जिसमे केवल दो रंग होते है.. और मेरी जिंदगी की शतरंज मै खाने ही नहीं है.. अजीब सी आक्र्तियाँ है आदि टेडी और उसमे हर रंग भर गया है.. ये आदि टेडी आक्रियाँ रिश्तो का जाल आपने मन है और ये आक्रितीय मुझे ऐसी लग रही है जैसे paint brush (computer program ) मै बच्चे ने आक्र्तिया बना कर रंग भरना सीख रहा हो....
इस पद का मतलब ये लगा की, तुम एक तरह से हां या ना वाले इन्सान हो.. जो आगे पीछे ज्यादा नहीं सोचता.... और मै इसके उलट ऐसी इंसान हू.. जिसे हर काम से पहले उसके अच्छा भला देखना होता है..
दूसरा पद मै इस तरह समझा हू की तुम सख्त पत्थर हो और मै सूखी रेत.. मतलब तुम भावुक इंसान कम हो.और मै बहुत ज्यादा हू..जैसे पत्थर को चोट मर कर टूट जाता है. लेकिन दबता नहीं.. और पानी मै मिलाओ तो घुलता नहीं ... पर रेत बिलकुल इसके उलट...
आपके तीसरा पद इसिलए सबको अच्छा लगा क्यों की इसमे कोई अप्रत्यक्ष अर्थ नहीं है.. .सब कुछ सीधा साधा सा अर्थ है
- आपकी कविता मै भाव पक्ष बहुत अच्छा है.. बहुत पसंद आया...
- शब्द चयन बस एक जगह सही नहीं लगा जैसे " दीवारों को चीनता है" चीनता के जगह कोई सही शब्द हो सकता था..
- आपके पद का शीर्षक भी अपने आप मै वाक्य है पर.. पढ़ने पर सही नहीं लगता ...
" बहुत सा फ़र्क है" या तो "बहुत फ़र्क है" सही है.. या "बहुत सारे फ़र्क है" (ये मेरी व्यक्तिगत राय है )
-इस इतनी सुन्दर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई...
सादर
शैलेश

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

अनुराधा जी,

आपकी यह कविता मुझे बेहद पसंद आई। विशेषरूप से दूसरा अंतरा। बहुत-बहुत बधाई।

Alpana Verma का कहना है कि -

अनुराधा शर्मा जी आप को पुरुस्कार के लिए बधाई .
नारी मन से निकली हुई बातें कविता रूप में पढने को मिलीं.
सीधे सादे शब्द और प्रवाह लिए ,हकीक़त बयां करती कविता है.
आखरी पद आप की सकारात्मक सोच दर्शा रहा है जो काफी असरदार है.

Anonymous का कहना है कि -

मैं उन टिप्पणीकारों से सहमत नहीं हूँ जो ये कह रहे हैं कि इसका अंत सकारात्मक है। कविता का अंत सकरात्मक बिलकुल भी नहीं है, ये नकारात्मक भी नहीं है। ये बेहद त्रासद, दुःखदायी है और यथार्थपरक है। एक स्त्री अंत में सिर्फ दीवार बन जाती है, पुरूष जो उन स्त्रियों के घरों के मालिक होते हैं, स्त्रियाँ उनके घरों को धूप, धूल, हवा और आघातों से बचाने वाली मूक दीवारों में तब्दील हो जाती हैं, और पुरूष इस बात को रियलाइज़ भी नहीं करते।

वो तो बस इन दीवारों पर अपने कपड़े टाँगते हैं, कीलें ठोंकते हैं, अपने पुरखों और अपने देवताओं के चित्र टाँगते हैं। दीवारें जब गंदी हो जाती हैं, तो उन्हें वो नये रंगों में रंगवा देते हैं और कभी-कभी यदि उनके कपड़ों पर दीवार का कोई रंग या धूल लग जाती है तो इसे झाड़कर अपने कपड़े पहनकर कहीं बाहर चले जाते हैं, और दीवारें चुपचाप देखती रह जाती हैं। बेहद त्रासद अंत, बेहद सच्चा अंत, कैसे आपलोगों ने सकारात्मकता देख ली?

Alpana Verma का कहना है कि -

अवनीश जी,
आप ने दीवार को जिस रूप में देखा है..मैंने नहीं-
- वैसे मैंने भी सोचा था कि यहाँ दीवार की जगह-'मील का पत्थर कहा होता' तो बेहतर होता.लेकिन फ़िर गौर किया कि क्यों कवियत्री ने दीवार सोचा.

'***मैं तेरे उन घरों को बसाती हूँ
दीवारों में उमर गुज़ार देती हूँ
और मरकर, एक दीवार बन जाती हूँ
इन पंक्तियों में सकारात्मक सोच इस लिए लगी-
'क्योंकि यहाँ कवियत्री बता रही है.
स्त्री अपना महत्व जानती है और समाज भी जान ले कि वह 'घर 'बसाती है-
*यह पंक्ति बहुत व्यापक है और positive भी.
दूसरा-- उम्र गुजार देती है-वह श्रध्दा और समर्पण का उदाहरण है.त्याग की मूरत है.उसका आदर इसीलिए भारतीय समाज में है.और इसलिए भारतीय समाज में अभी भी संकृति और सभ्यता बाकी है.इसका अर्थ यह नहीं है की वह घर में घुट कर जीवन गुजरती है-इसका अर्थ मुझे लगा कि वह हर जगह अपने घर-परिवार को प्राथमिकता देती है चाहे वह working हो या एक साधारण गृहिणी. और इस रूप को स्वीकारने या जताना भी नारी के हक में है.
-रही बात दीवार से तुलना कि-तो मैंने उसे दीवार के रूप में इसलिए स्वीकार किया क्योंकि मैं यह समझती हूँ कि वह दीवार बन कर घर का एक जरुरी हिस्सा बन गयी -न भूल सकने वाली याद -घर में सदा अपनी उपस्थिति दर्ज करती हुई..और ..जिस से उस अधूरे घर का एक कमरा पूरा होता है यानि एक वंश बनता है.ऐसी दीवार मजबूत है उसका आशीर्वाद है और उस पर घर की छत टिकी होती है.यह दीवार सब को देखती है निहारती है और सब की बाहरी मुसीबतों से भी रक्षा करती है-
दीवार पर खूंटी आज कल कोई नहीं लगाता न ही कपड़े टाँगे जाते हैं- बिल्कुल उसी तरह जैसे नारी की स्थिति भी आज ,पहले समय से बेहतर है.और ''दीवार पर खूटी लगाने वालों के घरों ''में ऐसी नारियाँ आज के समय में सारी उम्र नहीं गुजार सकतीं न ही घर बसा सकेंगी.क्यूंकि घर बसाने का संक्षीप्त मतलब सारे परिवार को सफलता,समृद्धिकी राह ले जाना.

Alpana Verma का कहना है कि -

और आगे आपने जो कहा -तो सुनिये मेरे विचार---दीवारों पर पुरखों के चित्र या देवता के चित्र टांगना कोई ग़लत नहीं क्योंकि इस से उस दीवार का मान है.रोज उस के सामने दीपक जलेगा और आरती होगी.उसका स्थान सच में ईश्वर के बराबर हो गया.
दीवार पर रंग करवाने का अर्थ तो भाई उस की देखभाल हुई.न की उपेक्षा.
और रंग भी आज कल '''पक्के '' आते हैं जो कपडों में लगते नहीं है और वैसे भी मैंने कहा ''दीवार कपड़े टांगने की खूंटी लगाने वाले के घर'' में आज की जागरूक नारी उम्र नहीं गुजारेगी.आशा है मैं अपना पक्ष साफ कर पाई हूँ.dhnywaad-

anu का कहना है कि -

मैंने अपनी कविता को विशेय दिया था mars vs venus मगर यहाँ हिन्दी के कारन विशेय बदलना पड़ा था, मैंने अपने तजुर्बे के मुताबिक फर्क रखा हैं और ये मैंने काफी अरसा पहले लिखी थी, मानव अधिकारों की पढ़ाई के दोरान काफी कुछ पढ़ा था औरत पर विकास पर और समाज की सचाई पर टू मेरी सोच नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पक्षों को साथ लिए चलती हैं

anu का कहना है कि -

मैंने सत्रंज के खानों वाली पड़ मैं औरत के भावनाओं सोच चिंता तरीके को दर्शाने की कोशिश की हैं, आप लोग धयान दीजियेगा मैं औरत और मर्द के फर्क खेल तरीके मैं किसी को भी कम या जायदा नही कहा हैं, दोनों की अपनी अपनी सोच होती हैं उसी केअनुसार दोनों करे करते हैं,

दिवाकर मिश्र का कहना है कि -

पहले तो अनुराधा जी को विजयी होने की बधाई । मैने आपकी कविता पढ़ तो परसों ही ली थी पर टिप्पणी नहीं लिखी । यहाँ चल पड़ी चर्चा में रुचि जागी तो मैं भी आ गया ।

शैलेश जी, कविता के शीर्षक के बारे में तो वैसे आपने कह दिया है कि यह आपकी व्यक्तिगर राय है परन्तु फिर भी कहना चाहता हूँ कि "बहुत सा फ़र्क है" शीर्षक पढ़ने में कुछ गलत नहीं लगता । "बहुत फ़र्क है" शीर्षक भी अच्छा हो सकता है, परन्तु "बहुत सारे फ़र्क हैं" शीर्षक उतना अच्छा नहीं हो सकता या कहें कि वह प्रभाव नहीं डाल सकता जो अन्य दो डालते हैं । कारण कि "बहुत सारे" शब्द उनके लिए प्रयुक्त हो सकते हैं जिन्हें इकाइयों के रूप में गिना जा सके । परन्तु यहाँ जो फ़र्क बताया जा रहा है उसमें मात्रात्मकता या गुणात्मकता का महत्त्व है न कि संख्यात्मकता का । मुझे लगता है आप भी इस बात से सहमत होंगे ।

मैं तेरे उन घरों को बसाती हूँ
दीवारों में उमर गुज़ार देती हूँ
और मरकर, एक दीवार बन जाती हूँ

जैसाकि स्वयं कवयित्री ने कहा कि उसकी सोच सकारात्मक और नकारात्मक दोनों का मिश्रण होती है । इन तीन पंक्तियों मे दोनों बातें दिख जाती हैं । पहली पंक्ति मुझे सकारात्मक दिखती है और तीसरी निराशात्मक (नकारात्मक कहना ठीक नहीं लगा) । बीच की पंक्ति में अपनी अपनी प्रवृत्ति के अनुसार दोनों ही पक्ष देखे जा सकते हैं ।
नकारात्मक- वह बन्धन का अहसास करती है और उसे उन्मुक्तता की कमी खलती है ।
सकारात्मक- वह अपने त्याग का अहसास कराती है अपना महत्त्व बताते हुए । अब कहें यह सकारात्मक कैसे हो सकता है ? इसके लिए एक उदाहरण है होमर के महाकाव्य इलियड का अनुवाद करने वाले चैपमैन का । उनका कहना है कि मैने अपना सारा जीवन होमर का अनुवाद करने में बिता दिया और मैं समझता हूँ कि इससे अच्छा जीवन हो ही नहीं सकता था ।

dr minoo का कहना है कि -

अरस्तु ने कहा है कि..''यदि पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वह देवता बन जाता है और यदि नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वह
दानवी बन जाती है.''.मेरे विचार में दोनों को एक दूसरे का पूरक होना चाहिए और नारी का प्रथम कर्तव्य घर को सुचारू व्यवस्थीकरण है ...कैसे ?
यह उस पर निर्भर है..युवा नारी आत्मनिर्भर है उसे पुरुष कि प्रगति में बाधा बनने कि कोशिश नहीं करनी चाहिए...यदि वह घर की देखभाल नहीं करती है या भावी पीढ़ी के लालन पालन से उदासीन है तो यह समाज के लिए हानिकारक है .
नारी आज दफ्तरों में काम करने लगी है ..वह ठीक है पर यह प्रतिस्पर्धा का रूप नहीं होना चाहिए ...स्वतंत्रता का उद्देश्य सिर्फ आत्मोन्नति
होना चाहिए ..कोमलता और नैसर्गिकता को खोना नहीं ...स्त्री पुरुष के संबंधों की मधुरता ख़त्म नहीं होनी चाहिए ..आज भावनात्मक
धरातल ख़त्म होता जा रहा है ..और स्त्री में अंहकार आता जा रहा है ..घर में वृद्धों की सेवा लोक लाज की खातिर ही करती हैं
स्वतंत्रता ठीक है पर विवेक जागृत रहना चाहिए
केवल स्वच्छंदता सुप्तावस्था में जीना है
गावों में नारी का अंतर्द्वंद अभी जारी है ..इसमें शिक्षा का बहुत बड़ा हाथ है ''चाक '' मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास इसे दर्शाता है ...पहली
पंक्ति....''काश यह मेरी मौत होती ''नायिका का पुरुष के साथ संघर्ष
''बेटी जन्मी है तो इसे ख़बरदार भी करती रहना इसकी जननी कि इसको कितने और कहाँ तक पावँ बढाने हैं ''
...चाक चलता रहेगा जैसे समय चक्र और घूम घूम कर स्त्री को नया रूप देता रहेगा
चित्रा मुद्गल का ''एक जमीन अपनी '' में अंकिता को सुधांशु हमेशा ताड़ता रहता है ..यह ठीक नहीं .
मेरे विचार में इस कविता में अनुराधा ने नारी त्रासदी को व्यक्त करना चाहा है
उपन्यास की
''अंकिता का कहना कि ''हरगिज़ अलग नहीं होती अगर मुझे कोल्हू का बैल समझ कर आँखों पे पट्टी बाँध कर मजबूर न किया जाता
तो मेरे लिए घर कि व्यवस्था का अर्थ ,विश्वास करो मैं अपने सामर्थ्य एवं सहिष्णुता की अन्तिम सीमा तक घर को बचने के लिए हाथ पावँ मारती ''
...ऐसे सुधांशु बहुत होते हैं जो की औरत को एक पौधा समझते हैं ....
मेरा कहना है की पाश्चात्य शैली की नक़ल में अपनी मर्यादा को भूलना नहीं चाहिए ...पुरुष भी उसकी जरूरतों को समझें .....घर में यूँ घुट घुट कर न मरने दें .....नारी जगती है तो राष्ट्र जगता है
..यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता .जूझना तो पड़ेगा .. .दोनों संतुलन बनाये रखें
कविवर जय शंकर
प्रसाद जी ने कहा है कि
''नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पग तल में !
पीयूष स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में !!

Anonymous का कहना है कि -

Bahoot khoob Anu ji zindagi ki shatranj ko bahoot hi acchi tarah se lafzo ka rup diya hai aapne Khuda se dua hai aapki kalam hamesha issi tarah salamat rahe

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