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Monday, January 21, 2008

कवि दीपेन्द्र की एक कविता


प्रतियोगिता की टॉप २५ कविताओं को प्रकाशित करने के क्रम में आज हम लेकर प्रस्तुत है कवि दीपेन्द्र की कविता। कवि दीपेन्द्र पहले भी हमारी प्रतियोगिता में भाग ले चुके हैं।

कविता- इक नदी के दो किनारे क्या कभी मिल पाएंगे?

कवयिता- दीपेन्द्र शर्मा

इक नदी के दो किनारे क्या कभी मिल पाएंगे ?
हसरतों को अर्थ देते ये होठं क्या सिल पाएंगे ?

क्या कभी फिर भूमिका में बँध सकेगी फिर ये कथा ?
क्या कभी उपसंहार के संग मथ सकेगी ये व्यथा ?
नीर कि नदियाँ अवश्य ही बहेंगी पर कहो -
हैं जो डाली से जुदा वो पुष्प क्या खिल पाएंगे ?
इक नदी के दो किनारे क्या कभी मिल पाएंगे ?

क्यूं करूं उम्मीद मैं कि हर अधर पे प्यास हो ?
वो भी उस जग में जहाँ , हर अश्क खुद उपहास हो
तुम तो खो भी जाओगे ,लोगों कि भीड़ में मगर -
जो शख्स अलहदा से हैं , क्या वो कभी रिल पाएंगे ?
इक नदी के दो किनारे क्या कभी मिल पाएंगे ?

हमने सीखा है युगों से , मोम कि भांति पिघलना
रौशनी के तरकाशों से , तम के सागर को भी छलना
मैं तो सरिता कि लहर बन , संग तट के बह भी लूंगा -
पर इस लहर के मार्ग के पाषाण क्या हिल पाएंगे ?
इक नदी के दो किनारे क्या कभी मिल पाएंगे ?

इक नदी के दो किनारे क्या कभी मिल पाएंगे ?
हसरतों को अर्थ देते ये होठं क्या सिल पाएंगे ?


निर्णायकों की नज़र में-


प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ८॰५, ६, ६॰६
औसत अंक- ७॰०३३


द्वितीय चरण के जजमैंट में मिले अंक-६॰२, ७॰०३३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰६१६६६


तृतीय चरण के जज की टिप्पणी-.
मौलिकता: ४/०॰२ कथ्य: ३/॰३ शिल्प: ३/२
कुल- २॰५


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8 कविताप्रेमियों का कहना है :

seema gupta का कहना है कि -

इक नदी के दो किनारे क्या कभी मिल पाएंगे ?
हसरतों को अर्थ देते ये होठं क्या सिल पाएंगे ?
"एक अथाह सच और गहराई नज़र आती है इन दो पंक्तियों मे, मुझे बहुत अच्छी लगी"

Alpana Verma का कहना है कि -

** एक अच्छी मंचीय कविता.
*''हमने सीखा है युगों से , मोम की भांति पिघलना
रौशनी के तरकाशों से , तम के सागर को भी छलना
मैं तो सरिता कि लहर बन , संग तट के बह भी लूंगा -
पर इस लहर के मार्ग के पाषाण क्या हिल पाएंगे ? ''
- बहुत सुंदर लिखा है!
*** मगर कविता में कई टंकण त्रुटियां नजर आ रही हैं.[ e.g.--की /कि -होठं- तरकाशों----- आदि ]
भविष्य में कृपया ध्यान रखियेगा.
धन्यवाद.

Keerti Vaidya का कहना है कि -

kavita key bhav sunder ahi

Anonymous का कहना है कि -

bahut sundar bhav hai,nadi ke do kinare shayad kabhi na mil paye,koshish ki ja sakti hai shayad...mil jaye kabhi

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

टंकण अशुद्धियों को नजरंदाज कर दिया जाये तो कविता बहुत बेहतरीन है.. बस कहीं कहीं लय कमजोर हुई है पर चलता है..

बहुत बधाई के पात्र हो आप दीपेन्द्र जी..

Unknown का कहना है कि -

हमने सीखा है युगों से , मोम कि भांति पिघलना
रौशनी के तरकाशों से , तम के सागर को भी छलना
मैं तो सरिता कि लहर बन , संग तट के बह भी लूंगा -
पर इस लहर के मार्ग के पाषाण क्या हिल पाएंगे ?
इक नदी के दो किनारे क्या कभी मिल पाएंगे ?
acchi kavita hai
aage bhi isi prakar likhte rahiye
sumit bhardwaj

Anonymous का कहना है कि -

दीपेंद्र जी बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"

सुनीता शानू का कहना है कि -

इक नदी के दो किनारे क्या कभी मिल पाएंगे ?
हसरतों को अर्थ देते ये होठं क्या सिल पाएंगे ?

अच्छी रचना है...बहुत खूबसूरत!भावप्रद...
हमने सीखा है युगों से , मोम कि भांति पिघलना
रौशनी के तरकाशों से , तम के सागर को भी छलना
मैं तो सरिता कि लहर बन , संग तट के बह भी लूंगा -
पर इस लहर के मार्ग के पाषाण क्या हिल पाएंगे ?
इक नदी के दो किनारे क्या कभी मिल पाएंगे ?

वाह!

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