घना है कुहासा
भोर है कि साँझ
डूब गया है
सब कुछ इस तरह
तमस के जाले से
छूटने को मारे हैं
जितने हाथ पाँव
और फंस गया हूँ
बुरी तरह…
वक्त का मकड़ा
घूरता है हर पल
अपना दंश मुझमें
धंसाने से पहले
याद है मुझे
‘'पुरू' हूँ
किन्तु 'पौरूष' खो गया है
भटक रहा हूँ युगों से
तलाश में …
उस शमी वृक्ष की
टांगा था मैनें
जिस पर कभी गाँडीव
अज्ञातवास की वेदना
अंधकार में अदृश्य घाव
डूबी नही है चाह अब तक
एक नये सूरज की
उबारो …
उबारो तो मुझे
ओ ! मेरी ‘सोयी हुयी चेतना’
इस अन्धकार से
चीखता रहूँगा मैं
निस्तेज होने तक
शायद इसी आशा में
कि आओगे एक दिन ‘तुम’
जो बिछड़ ग़ये थे मुझसे
अतीत के अनजाने मोड़ पर
भोर है कि साँझ
डूब गया है
सब कुछ इस तरह
तमस के जाले से
छूटने को मारे हैं
जितने हाथ पाँव
और फंस गया हूँ
बुरी तरह…
वक्त का मकड़ा
घूरता है हर पल
अपना दंश मुझमें
धंसाने से पहले
याद है मुझे
‘'पुरू' हूँ
किन्तु 'पौरूष' खो गया है
भटक रहा हूँ युगों से
तलाश में …
उस शमी वृक्ष की
टांगा था मैनें
जिस पर कभी गाँडीव
अज्ञातवास की वेदना
अंधकार में अदृश्य घाव
डूबी नही है चाह अब तक
एक नये सूरज की
उबारो …
उबारो तो मुझे
ओ ! मेरी ‘सोयी हुयी चेतना’
इस अन्धकार से
चीखता रहूँगा मैं
निस्तेज होने तक
शायद इसी आशा में
कि आओगे एक दिन ‘तुम’
जो बिछड़ ग़ये थे मुझसे
अतीत के अनजाने मोड़ पर
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
अज्ञातवास की वेदना
अंधकार में अदृश्य घाव
डूबी नही है चाह अब तक
एक नये सूरज की
बहुत ही गहरे अर्थ लिए होती है आपकी रचना श्रीकांत जी .अच्छी लगी बहुत यह रचना भी आपकी .ज़िंदगी के एक गहरे पक्ष .तलाश को यह सुंदर रूप में समझा गई ..बधाई सुंदर भाव पूर्ण रचना के लिए !!
श्रीकान्त जी,
सशक्त रचना है. प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी ऐसा पल अवशय आता है जब सुझाई नहीं देता कि क्या सही है और क्या गलत.. उलझन बढती जाती है.. अपना अस्तित्व व्यथा लगने लगता है...इस भाव को आपने बखूबी उभारा है
बधाई
‘तुम’ याने कौन ?
अवनीश तिवारी
'अज्ञातवास की वेदना
अंधकार में अदृश्य घाव
डूबी नही है चाह अब तक
एक नये सूरज की''
बहुत सही लिखा है.
उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिये,
मंजिलें जरुर मिलती हैं.
अच्छी रचना है.
श्रीकान्त जी,
सुन्दर रचना है...बिल्कुल अपनी सी लगती हुई।
डूबी नही है चाह अब तक
एक नये सूरज की
बधाई।
श्रीकांत जी बहुत ही जोरदार प्रस्तुति है.
मजा आया गया
अलोक सिंह "साहिल"
अज्ञातवास की वेदना
अंधकार में अदृश्य घाव
डूबी नही है चाह अब तक
एक नये सूरज की
"बहुत सही लिखा है.बधाई सुंदर रचना के लिए"
Regards
श्रीकान्त जी,
सुंदर..... भाव पूर्ण रचना
बधाई
अज्ञातवास की वेदना
अंधकार में अदृश्य घाव
डूबी नही है चाह अब तक
एक नये सूरज की
श्रीकान्त जी बहुत ही अच्छी रचना।
अज्ञातवास की वेदना
अंधकार में अदृश्य घाव
डूबी नही है चाह अब तक
एक नये सूरज की
श्रीकान्त जी बहुत ही अच्छी रचना।
कांत जी,
वास्वत में सुन्दर और गहरी रचना उस कशमकश को दिखाती को पता नही कब और किस मोड़ पर जिन्दगी से आ टकराती है..
बहुत सुन्दर रचना । निराशा का कोहरा तो ही आता है किन्तु विशेष बात यह है कि आपने अपनी चेतना को पुकारा है और उसी से उबारने की गुहार लगाई है -
उबारो …
उबारो तो मुझे
ओ ! मेरी ‘सोयी हुयी चेतना’
इस अन्धकार से
चीखता रहूँगा मैं
निस्तेज होने तक
शायद इसी आशा में
अन्त में पुनः आशावादिता दिखाई देती है । जो काबिले तारीफ़ है । बधाई स्वीकारें
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