पता मुझसे कहीं, अपने घर का खो गया
जागते हुए शहर को जाने ये क्या हो गया
ताल्लुकों में, वो पहले सी, गर्मजोशी नहीं
सारे रिश्तों का अहसास पत्थर सा हो गया
जो पूछा करता था मुझसे मंजिलों का पता
आज राहों में, वो शक्स, मेरा रहवर हो गया
मैंने मांगे कहां, किसी से, वफ़ाओं के सिले
क्यों खैरातों का मुझ पर, यह सिला हो गया
आज हस्ती बन गई मेरी, उस सूखे पेड सी
जो इक ऊपर चढी बेल से फ़िर हरा हो गया
फ़ूल से भी हल्का समझ मैने संभाला जिन्हें
वक्त पर उन सब के लिये एक बोझा हो गया
आज मांगू भी तो क्या मांगू, झुक सजदे में मैं
जीने का वो जज्वा, इस दिल से जुदा हो गया
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
आज मांगू भी तो क्या मांगू, झुक सजदे में मैं
जीने का वो जज्वा, इस दिल से जुदा हो गया
-- बहुत खूब
अवनीश तिवारी
hihiआज हस्ती बन गई मेरी, उस सूखे पेड सी
जो इक ऊपर चढी बेल से फ़िर हरा हो गया
बेहतरीन, बहुत खूब, मजा आ गया.
आलोक सिंह "साहिल"
bahut khub
फ़ूल से भी हल्का समझ मैने संभाला जिन्हें
वक्त पर उन सब के लिये एक बोझा हो गया
aisa hi hota hai jeevan main.
जो पूछा करता था मुझसे मंजिलों का पता
आज राहों में, वो शक्स, मेरा रहवर हो गया
बेहद खूबसूरत लिखा है मोहिंदर जी आपने
मोहिन्दर जी,
अब जबकि पंकज सुबीर जी, रदीफ और काफिया के बारे में बता चुके हैं, आपसे काफिये की गलती होना थोड़ा अटपटा-सा लगता है। आप खुद हीं देखें मतले में काफिया "ओ" था( खो , हो)और रदीफ "गया" , अगले दो शेर तक वही रहा, लेकिन आगे जाकर काफिया" आ" हो गया और रदीफ " हो गया" बन गया। बहर के बारे में नहीं बता पाऊँग क्योंकि गुरूजी अभी तक वहाँ नहीं पहुँचे हैं। आप जैसे वरिष्ठ रचनाकार से ऎसी गलती की उम्मीद नहीं रहती है। कृप्या आगे से ध्यान देंगे।
भाव अच्छे हैं लेकिन शिल्प के दोष ने थोड़ा गड़बड़ कर दिया है।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
तन्हा जी,
मैं भी सोच रहा हूं कि गजल लिखना छोड दूं.. कौन रदीफ़, काफ़िये, मक्ते, मतले और तक्खलुस के चक्कर में पडे...
अपुन ठहरे देसी आदमी... मक्खन निकालने भर से काम है... चाहे मधानी टेडी चले या सीधी.
रदीफ़ और काफ़िया फ़िट करने के चक्कर में अपनी गजल आऊट हो जाती है :)
मोहिंदर जी
ग़ज़ल अच्छी लगी तर्रनुम मैं होती तो और अच्छी लगती
जो पूछा करता था मुझसे मंजिलों का पता
आज राहों में, वो शक्स, मेरा रहवर हो गया
मैंने मांगे कहां, किसी से, वफ़ाओं के सिले
क्यों खैरातों का मुझ पर, यह सिला हो गया
थोडी निराशा है इसमें लेकिन कभी कभी ये भी प्रेरणा बन जाती है
सस्नेह
मोहिन्दर जी,
लगता है कि आप मेरी बातों का बुरा मान गए। मेरे कहने का यह मतलब नहीं था कि आप लिखना छोड़ दें। अगर आप यह मतलब निकालेंगे तो आगे से मैं ऎसी टिप्पणियाँ नहीं लिखूँगा और बाकी मित्रों की तरह हीं अच्छा और बहुत खूब कहकर निकल जाऊँगा। अब आप जैसा सोचें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
'फ़ूल से भी हल्का समझ मैने संभाला जिन्हें
वक्त पर उन सब के लिये एक बोझा हो गया'
बहुत खूब!
अच्छे शेर हैं.
मोहिंदर जी सीखना तो सभीको पड़ता है मां के पेट से तो कोई सीख कर नहीं आता और मेरी एक बात नोट करलें जो आलोचना से बचता है उसका विकास नहीं होता । आपमें प्रतिभा है तो उसको सही दिशा में तो मोड़ना ही होगा विश्व जी ने सही बात ही कही है आप उसको अन्यथा न लें । मैं अपनी बात कहना चाहूंगा कि मेरी 20 ग़ज़लें आज से आठ साल पहले जिनको मैं बेहतरीन मानता था मेरे उस्ताद ने मेरे सामने ही फाड़ कर फैंक दीथीं । उस फाड़ने का ही परिणाम है कि मैं कुछ सीख पाया । आलोचना से न डरें जो पटल पर है उस पर तो बात होगी ही ।
जो पूछा करता था मुझसे मंजिलों का पता
आज राहों में, वो शक्स, मेरा रहवर हो गया
बेहद अच्छा है मोहिंदर जी आपने
पंकज जी,
मैने टिप्पणी गंभीर भाव से नहीं की थी... ना ही में लिखना छोडने वाला हूं... मुकम्मिल न सही.. नजदीक तक तो पहुंचा ही दूंगा...
मोहिन्दर जी,
भाव अच्छे हैं....
शेर अच्छे हैं ....
बहुत खूब....
मोहिन्दर जी,
मुझे तो अच्छी लगी आपकी गजल..
गजल के हाशिये में फिट हो ना हो.. ज्यदा पता नही इन सब का पर पढ़्ने में और भावपक्ष से मुझे बहुत पसन्द आई..
शुभकामनायें
सबसे पहले स्वर्ण कलम विजेता को बधाई...:)
लिखा है जो आपने मन के भावो को पिरोकर गजल बन गया...
रदीफ़ काफ़िया और मतला समझ न आया अगर हजल बन गया...
मोहिन्दर भाई एक बात कहें अपुन के गुरू के होते टेन्शन काहे को करते हैं एक न एक दिन हम भी बहुत बड़े गजल कार बन ही जायेगें...:)
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