सुबह की उजली ओस
और गुनगुनाती भोर से
मैंने चुपके से ..
एक किरण चुरा ली है
बंद कर लिया है इस किरण को
अपनी बंद मुट्ठी में ,
इसकी गुनगुनी गर्माहट से
पिघल रहा है धीरे धीरे
मेरा जमा हुआ अस्तित्व
और छंट रहा है ..
मेरे अन्दर का
जमा हुआ अँधेरा
उमड़ रहे है कई जज्बात,
जो क़ैद है कई बरसों से
इस दिल के किसी कोने में
भटकता हुआ सा
मेरा बावरा मन..
पाने लगा है अब एक राह
लगता है अब इस बार
तलाश कर लूंगी मैं ख़ुद को
युगों से गुम है ,
मेरा अलसाया सा अस्तित्व
अब इसकी मंजिल
मैं ख़ुद ही बनूंगी !!
--
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
उमड़ रहे है कई जज्बात,
जो क़ैद है कई बरसों से
इस दिल के किसी कोने में
भटकता हुआ सा
मेरा बावरा मन..
पाने लगा है अब एक राह
लगता है अब इस बार
तलाश कर लूंगी मैं ख़ुद को
" बहुत खूब, मंजिल तलाशती और उम्मीद से भरी एक सुंदर रचना "
Regards
सबसे पहले स्वर्ण कलम के विजेता को बधाई...
बहुत सुन्दर और सच्ची रचना है...अगर आप चाहेंगी तो मुश्किले खुद-ब-खुद आसान हो जायेंगी...मेरी शुभ कामनाएं सदैव आपके साथ है...:)
रंजना जी,
आशावाद का सूरज चमकता रहे तो हर अंधेरा अपने आप मिट जाता है... इस आशावादी सुन्दर रचना के लिये बधाई
क्या बात है, चलिए राह पाई तो सही आपने ।
बढ़िया भाव!!
स्वर्ण कलम पाने के लिए बधाई
रंजना जी,
सुंदर भाव
स्वर्ण कलम पाने के लिए
बधाई
रंजना जी,स्वर्ण कलम पाने के लिए
बधाई,
bahut sundar kavita hai,badhai ho
ranjana जी
बहुत ही सुंदर लिखा है -
पाने लगा है अब एक राह
लगता है अब इस बार
तलाश कर लूंगी मैं ख़ुद को
युगों से गुम है ,
मेरा अलसाया सा अस्तित्व
अब इसकी मंजिल
मैं ख़ुद ही बनूंगी !!
शुभ कामनाएं और बधाई
रंजू जी,
मंजिल सुन्दर है.. रास्ते कठिन है तो क्या हुआ..
रास्ते कट जायेंगे आसानी से यकीं मानिये..
गुनगुनाकर चलते रहिये बस कलम का लिखा हुआ..
और हाँ बधाई स्वर्ण कमल के लिये..
वैसे रंजना जी "पोल" मे हमने भी हिस्सा लिया था तो "पोला" (कैप) पर तो अपना भी हक़ बनता है ना..
जेब में लगा लो तो पोला(कैप) की क्लिप ही नज़र आती है किसी को क्या पता अन्दर पेन है कि नहीं....
ही ही.. माफ कीजियेगा.. उंगलियाँ कंट्रोल से बाहर हो जाती है कभी कभी और ना लिखने की बात भी लिख जाती है..
- पुनः बधाई..
रंजना जी,
प्यारी रचना है। हालांकि-
बंद कर लिया है इस किरण को
अपनी बंद मुट्ठी में
इस किरण कॊ बंद करने की ख्वाहिश क्यों? क्या ये मुक्त होती तो और प्रेमपूण नही होती??? वैसे ये मेरा निजि विचार है। कविता अच्छी है, मैं इससे इनकार नही करूँगा।
रंजू जी मंजिल की तरफ उन्मुख आपका काव्य सराहनीय है.
स्वर्ण कमल के लिए विशेष तौर से मुबारकबाद
आलोक सिंह "साहिल"
किरण तो आपके हाथ में पहले से ही थी.. जो स्वर्ण कलम बन गई... बहुत बहुत बधाई.. ठंडे पड़ते वजूद को गरमाहट देने वाली सुन्दर रचना....
"युगों से गुम है ,
मेरा अलसाया सा अस्तित्व
अब इसकी मंजिल
मैं ख़ुद ही बनूंगी !!"
ह्रदय को छू गयी ये कविता , बहुत बहुत बधाई आपको
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