बहुत मासूम है
मगर अपराध है,
ये जाने कैसे कर्मों का,
कौनसे जन्म में
अपने हाथों ही श्राद्ध है,
एकतरफ़ा मोहब्बत
सावन की बरसात में
सूखे होठों की बदनसीबी है,
एकतरफ़ा मोहब्बत
मर्करी बल्बों के शहर में
पिघलती मोमबत्तियों की गरीबी है,
ज़िन्दग़ी की छतों पर
भटकते, सुलगते कदम
और मुंडेर से नीचे झाँकती
आखिरी रात है,
एकतरफ़ा मोहब्बत
फटे कम्बल में लिपटा मासूम ख़्वाब,
कड़कड़ाती सर्दी
और चुभता हुआ फुटपाथ है,
एक किनारे वाली नदी का
अकेला किनारा,
अवसादग्रस्त बन्द गली का
इकलौता इशारा,
बिन बात के रतजगे
और बेतुके बहाने,
प्यार के देवता के
बेवकूफ़ निशाने
एकतरफ़ा मोहब्बत हैं,
बिखरी हुई मुलाकातें
और उलझे हुए अर्थ,
अन्धे दिल
और ज़िद्दी सपनों की शर्त
एकतरफ़ा मोहब्बत हैं,
बारिश की विवश गली
और चंचल धूप का परिणय,
आँसुओं के महीनों पर
भोली मुस्कान का विस्मय
एकतरफ़ा मोहब्बत है,
दीवारों पर रेंगती आँखें,
बन्द दरवाज़ों से बंधे हाथ,
ऊँचे रोशनदान
और रोशनदान में से चाँद
एकतरफ़ा मोहब्बत है,
रंग बिरंगी प्रदर्शनी के बीच
यह अन्धकार की प्रशंसा है,
अमीरों की सिफ़ारिशों के बीच
एक निर्धन की अनुशंसा है,
यह भीड़ भरे बाज़ार की
खामोश मनहूस दुकान है,
यह त्यौहारों के मौसम में
घर के बूढ़े का अवसान है,
एकतरफ़ा मोहब्बत
भरे पूरे घर में
बेमन से गोद ली गई संतान है,
एकतरफ़ा मोहब्बत
ऊँची पहाड़ी के मंदिर में
अकेला पड़ गया मजबूर शैतान है...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
28 कविताप्रेमियों का कहना है :
क्या कविता है गौरव जी । पढ़ते हुए इस बात का कोई फ़र्क नहीं पड़ा कि कविता कितनी लम्बी है । वैसे तो लम्बि कविताओं को देखकर मन होता है कि बाद में पढ़ेंगे पर इसको देखकर ऐसा कुछ नहीं हुआ और कितनी लम्बी है यह देखे बिना ही पूरा पढ़ गया । आपने ऐसे मन की व्यथा को सटीक अनुभावों से व्यक्त किया है । साथ ही इस कविता को पढ़ते हुए अगर बीच में ही रुक जाए तो भी अधूरी नहीं लगती और पूरी पढ़ने पर भी अधिक नहीं लगती । इस गुण को क्या नाम दिया जाए ? इसकी तुलना पूरी (पूड़ी) से कर सकते हैं । समूची होने पर भी पूरी है और उसका टुकड़ा भी पूरी ही है । पूरी बस पूरी ही रहती है । वैसा कुछ आपकी यह कविता भी अखण्ड है, अविभाज्य है ।
baut sundar rachanaa hai , kalpana hai |
lekin....
presentation nahi bhayaa |
presentation aisa ho ki read karane me saralata ho |
isase lay bhi banega ....
aur sab sundar hai bhayee
avaneesh tiwari
दिल मैं न हो जुर्रत तो मुहब्बत नही मिलती ,खैरात मैं इतनी बड़ी दौलत नही मिलती
कुछ लोग यूं ही शहर मैं हमसे भी खफा हैं ,हर एक से अपनी भी तबियत नही मिलती
निदा फाजली
Gaurav bhai,
मुझे व्यक्तिगत रूप से हमेशा ये लगा है की एकतरफा मुहब्बत नाम की कोई चीज नही होती,या तो मुहबत होती या नही होती | और अगर मान लिया की मुहब्बत है तो इतनी मजबूर मुहब्बत जिंदगी मैं हो , लिखने मैं तो नही होती | इस बार निराश किया आपने
* ये टिपण्णी है मुझे जितनी भी समझ है उस हिसाब से ,और ग़लत होने का पूरा हक है मेरा !!
बहुत मासूम है
मगर अपराध है,
ये जाने कैसे कर्मों का,
कौनसे जन्म में
अपने हाथों ही श्राद्ध है,
एकतरफ़ा मोहब्बत
"वाह एक तरफा मोहब्बत का ऐसा रूप , बहुत अच्छा लगी ये कविता"
एकतरफ़ा मोहब्बत
फटे कम्बल में लिपटा मासूम ख़्वाब,
कड़कड़ाती सर्दी
और चुभता हुआ फुटपाथ है
एकतरफा प्यार को नए संदर्भ में पिरोने की अनूठी कला मुझे अभिभूत कर गया...मानो ऐसा लगा की यह हमारी ही जिंदगी के छोटे से भाग का सचित्र विवरण है
अवनीश जी, मेरे विचार से तो नई कविता में लय आवश्यक नियम नहीं है।
दिव्य प्रकाश जी,
ये तो मान सकता हूं कि आपको कविता पसन्द न आई हो लेकिन यह नहीं मान सकता कि दुनिया में एकतरफ़ा मोहब्बत नाम की कोई चीज ही नहीं होती। आपने अजीब सी बात की कि मोहब्बत या तो होती है या नहीं होती। क्या दुनिया की हर चीज ऐसी ही नहीं है- होती है या नहीं होती!
यदि आप मोहब्बत को मानते हैं तो एकतरफ़ा मोहब्बत उसी का रूप है, यानी एक तरफ़ से 'है' और दूसरी तरफ़ से 'नहीं'।
मेरा बस इतना मानना है की प्यार के लिए कम से कम दो लोग तो चाहिए , और जिस से आप प्यार करते हो उसकी तरफ़ से भी कुछ होना चाहिए | "एक तरफ़ से 'है' और दूसरी तरफ़ से 'नहीं'।"" इसका मतलब सिर्फ़ इतना है जिसको आप एकतरफा मुहब्बत का नाम दे रहे हो वो नाम ही ग़लत है , वो affection, intimacy , infatuation ,attachment,crush,स्नेह तो हो सकता है लेकिन प्यार नही | एक उदाहरण देके बताने की कोशिश करता हूँ , अगर किस्सी नदी के उपर कोई पुल है ,तो आना जाना दोनों तरफ़ से होना चाहिए ना , ऐसे पुल का कोई मतलब नही जहाँ आप एक तरफ़ से तो जा सकते हो दूसरी तरफ़ से नही , इसका इतना ही मतलब है की वो पुल नही है कुछ और है | चलिए अच्छा लगा आपने इतनी जल्दी जवाब दिया , वैसे भी इस फोरम पे कुछ ऐसे मुद्दों का उठना बड़ा जरुरी है |दिव्य प्रकाश
दिव्य प्रकाश जी,
दुनिया में सब चीजें एक सी नहीं होती, कम से कम पुल और प्यार तो नहीं।
आपने कहा कि प्यार के लिए कम से कम दो लोगों की जरूरत है। वो प्यार का खुशी देने वाला भौतिक स्वरूप है, जो हम सब चाहते हैं।
लेकिन यह प्यार की जरूरत नहीं है। यदि आपने chemistry पढ़ी हो तो आप कुछ इस तरह से कह रहे हैं कि प्यार तभी प्यार है जब यह उत्क्रमणीय है। मैं कह रहा हूं कि प्यार दोनों हैं- उत्क्रमणीय और अनुत्क्रमणीय।
हाँ, उत्क्रमणीय ( reversible ) हो तो अच्छी बात है।
भैया हमें तो कविता बढिया लगी..
अब वन-वे ट्रेफिक हो या टू-वे..
पर डगर तो टेडी है ये बात तो तय है..
और डगर टेडी ना हो तो सफर का मजा नही..
मेरी मानो.. यू टर्न मारो .. कभी तो टकरायेगा हमसफर..
- शुभकामनायें
सबसे पहली बात कि काव्य के लिहाज से निस्संदेह अच्छी कविता है और तारीफ़ की हकदार है।
दूसरी ओर-
दिव्य प्रकाश जी लिख्ते हैन कि प्यार के लिए दो लोगो का होना जरूरी है। मैं इससे असहमत हुँ। मोहब्बत के लिए दो लोगों का होना कोई जरूरी नही बल्कि जब तक दो लोग दो हैं तब तक मोहब्बत हो ही नही सकती। इन दो बीजों के नष्ट होने पर ही मोहब्बत का अँकुर फ़ूटता है। एक म्यान में दो तलवारें कैसे हो सकती हैं??"प्रेम गली अति साँकरी तामे दो न समाय" और जहाँ तक एकतरफ़ा मोहब्बत की बात है तो मेरा मानना है की मोहब्बत को कभी ये फ़िक्र नही होती कि दूसरी तरफ़ से भी बदले में मोहब्बत मिले। इसलिए मैं एकतरफ़ा मोहब्बत से भी सहमत नही हुँ। ये तो ऐसी ही बात हुई कि कोई हाथ पर आग की तसवीर रखे और कहे मैने हथेली पर आग रखा है।
मेरे मित्र! आग और आग की तसवीर में गुणात्मक अंतर होता है। एकतर्फ़ा मोहब्बत आग की तसवीर है, मोहब्बत आग है।
गौरव भाई बिल्कुल दम है आपकी कविता मे, सच कहूँ तो आप हमारे हिंद युग्म ही नहीं वरन हिन्दी साहित्य के गौरव हैं.बहुत बहुत साधुवाद
आलोक सिंह "साहिल"
बहुत अच्छा रवि कान्त जी अपने मेरी बात और आसान कर दी
“मोहब्बत के लिए दो लोगों का होना कोई जरूरी नही बल्कि जब तक दो लोग दो हैं तब तक मोहब्बत हो ही नही सकती। इन दो बीजों के नष्ट होने पर ही मोहब्बत का अँकुर फ़ूटता है।“
यही बात मैं भी बोल रहा हूँ दो लोग तो होने चाहिए अंकुर फूटने के लिए , एक के फूटने और दूसरे के न फूटने पे बात नही बनेगी ना !!!
"प्रेम गली अति साँकरी तामे दो न समाय"
बिल्कुल सहमत हूँ मैं इस से , दो समां नही सकते इसलिए एक होना पड़ता है , एक होने की प्रक्रिया, दो की एक होने की क्रिया है | इस लिए पिघल के एक ही हो जाते हैं एक ही होना पड़ता है लेकिन उसके लिए मुहब्बत जरुरी है दोनों तरफ़ का समर्थन जरुरी है , एक तो समां गया दूसरा नही तो बात अधूरी रह जायेगी |एक तरफा कुछ भी होगा तो समाना (पिघलना ,मिलन) अधूरा होगा , झूठा होगा , उथला होगा ,सतही होगा !!
रही बात chemistry की, कोई भी क्रिया(reaction) तभी हो सकती है न जबकि दो पदार्थ हों और संघटन हो ,और उनका स्वरूप बदल जाए | जैसे चीनी ,पानी दो अलग अलग चीजें हैं, उनको मिला दें तो बन गया शरबत , कोई भी फर्क करना मुश्किल है | ये हुई मुहब्बत | लेकिन अब चीनी मिलने को तैयार है और पानी नही , तो वो अलग अलग नज़र आयेंगे ,शरबत नही बनेगा | एकतरफा शरबत नही हो सकता |मुझे खुशी है की यहाँ पे ये बोद्धिक संवाद हो रहा है |
साभार दिव्य प्रकाश
मुझे लगता है कि यहाँ पर 'मोहब्बत' शब्द को लेकर विमर्श हो रहा है। मैंने जितना भी पढ़ा-समझा है उससे यही जाना है कि प्रेम, आसक्ति, अनुरक्ति, लगाव, स्नेह इत्यादि भावों को अलग-अलग करके देखा जाता रहा है। बात भावों पर होनी चाहिए। अब यदि दिव्य जी के दर्शन से देखें तो भावों की द्विपक्षीय पराकाष्ठा ही प्यार है, और यदि खुशियों की पगडण्डी पर प्यार की गाड़ी दौड़ती है तो फिर यह दर्शन ही प्रेम के लिए अंतिम सत्य है।
लेकिन खुशी ही एक मात्र सत्य नहीं है। दुःख, अवसाद, पीड़ा आदि भी पूरक पहलुओं की तरह जुड़े हुए हैं। जयशंकर प्रसाद ने कहा था 'सत्य मिथ्या से अधिक विचित्र होता है' (कामायनी की भूमिका से) । इसलिए मुझे लगता है मात्र 'प्रेम की गली अति साँकरी' कहकर ही नहीं बचा जा सकता। ये काँटों का हार पहने आपके आस-पास जो प्रेमी खड़े हैं उन्हें भी इन सँकरी गलियों से निकालना होगा। मुझे पहले वाला अपेक्षित है, लेकिन दूसरे वाले को भी सच्चा मानता हूँ, और इससे परहेज़ भी नहीं है, अब यह तो नहीं पता कि यह अच्छा या नहीं।
प्रेम के विभिन्न स्वरूपों पर विमर्श की एक पुस्तक है 'चित्रलेखा' (भगवती चरण वर्मा द्वारा लिखित)। यह पुस्तक प्रेम के तमाम स्वरूपों को स्वीकारती है। आपसभी को अवसर मिले तो ज़रूर पढ़ें।
दिव्या भाई अगर आप एकतरफा मुहब्बत को मुहब्बत नही मानते तो श्याद आपने कभी मुहब्बत की ही नही, गौरव की यह कविता कई संदर्भों में देखि जा सकती है, इस कविता का vision व्यापक है पर सब श्याद एकतरफा पर अटक गए हैं, ज़रा कविता को ध्यान से पढिये, रही बात प्रेम की तो प्रेम सहज है, इंसान अगर कहीं हरता है तो बस प्रेम के मारे ही, प्रेम दुवाओं मी उठे हाथ हैं, और प्रेम ही सज्दों में झुके हुए सर हैं, अगर आप इस उम्मीद से प्रेम करेंगे की सामने वाला भी आपको उतनी शिद्दत से चाहे तो प्रेम नही लेन देन हुआ, दो तरफा चाहत जिन्हें मिलती है सचमुच खुशनसीब होते हैं पर मैंने तो अक्सर प्रेम को एकतरफा ही देखा है और ये बात सिर्फ़ स्त्री पुरूष संबंधों की नही है, तमाम रिश्ते कुछ ऐसे ही उलझे हुए पाये हैं...
सजीव जी की बात से मैं पूर्णतः सहमत हूं। गौरव हमेशा की तरह अनूठी रचना।
धन्यभागी हैं वे जिन्होने मोहब्बत नही की। मोहब्बत करना और मोहब्बत होना दोनो दो अलग चीजे हैं। हाँ जिसने कभी मोहब्बत को जाना नही हो उसे ही एकतरफ़ा दिखाई दे सकता है। और सजीव जी, एकतरफ़ा भी लेन-देन की ही भाषा है अन्यथा ये दर्द और बदनसीबी न होकर उत्सव होता।
गौरव जी मैंने आपकी कविता पढ़ी और सबकी प्रतिक्रियाएं भी| मैं कुछ इस तरह कहना चाहूंगी कि एक तरफा मोहब्बत करने वाले को कोई ग़म नहीं रहता क्योंकि यदि उसने सच्चे दिल से मोहब्बत की है तो बदले में कुछ नहीं चाहता बस इन्तहा मोहब्बत करे चला जाता है| जैसे भक्त भगवान से प्रेम करता है तो दिन-पर-दिन उसका प्रेम बढ़ता ही जाता है और अंत में एकाकार हो जाता है जैसे मीरा बाई कृष्ण से प्रेम करते-करते उनमें ही समां गयीं|
तो गौरव जी एक तरफा मोहब्बत इतनी दुःख दाई नहीं है| फिर भी मैं कहूँगी कि हर भावना को हर व्यक्ति अलग-अलग ढंग से महसूस करता है जिस तरह से आपने लिखा है |
कविता बहुत ही सुंदर ढंग से सहेजी गई है | शुभ कामनाओ के साथ........
Mitra gaurav,
mere kahane kaa arth tha ki, yadi presentation accha ho to read karane me bhi sahayataa milatee hai .
yadi.. एकतरफ़ा मोहब्बत हैं,
line ke pahale ek blank line ho to ye har stanza ko alag karegee aur read karane me lay hoga |
lay kavitaa kee anivarytaa nahi hai |
aur एकतरफ़ा मोहब्बत ke concept aur soch se mera kuchh lena dena nahi hai |
assha hai aapka bhram door ho gaya hoga mere comment ke vishay me...
Keep writing,,, Will read u more.
Avaneesh tiwari
ओ भैया ओ भैया इस पाठशाला में मेरी भी हाजरी लगा लो.. जय भारत ( ऊँचा हाथ उठाकर )
हाँ तो भैया अपना कहना तो यह है की.. प्रेम को सामान्यतः सभी एक ही पैमाने पर नाप लेते है..
प्रेम तो भैया भाई-बहन , प्रेमी-प्रेमिका, माँ-बेटे, भाई-भाई, मित्र-मित्रावली, किताब-पढाकू, चोरी-डाकू, दौलत-तिजोरी, मुर्दा-शमशान , खेत-किसान सबका अपना अपना है.. परंतु कहीं कहीं ये एक दूसरे के पूरक-भाव मे है तो कहीं कहीं एक दूसरे के समर्पण भाव में होता है.. परंतु भैया बिना स्वार्थ के बिना अपेक्षा के किसी के लिये समर्पण भाव होन ही प्यार है..
बाकी सब बेकार है..
सामने से प्रतिध्वनि आये तो सोने पर सुहागा..
नहीं तो 'कर्मन्येहि....... कदाचनः'
मैने तो कहीं यह भी पढ़ा है कि
प्यार अलग है
आसक्ति अलग चीज़ है
मोहब्बत अलग है..
स्नेह अलग है
सब अलग है तो पर्याय कहाँ रह गया जी..
'कौन कहता है कि प्यार अन्धा होता है.. प्यार की तो एक नज़र काफी होती है..'
या यूँ समझ लो
"राम को रूप निहारति जानकी कंगन के नग की परछाहीं..
याते सबे सुधि भूल गयीं सुधि टार रहीं सुख टारत नाहीं.."
ये है भैया प्यार..
- नमस्ते..
संजीव जी आप उम्र ,अनुभव मैं बड़े हैं मुझसे, आपकी बात से शुरू करता हूँ
1.“दिव्या भाई अगर आप एकतरफा मुहब्बत को मुहब्बत नही मानते तो श्याद आपने कभी मुहब्बत की ही नही”
मैं तो दोनों तरफ़ के समर्पण की बात कर रहा हूँ , एकतरफा प्यार, प्यार , और जहाँ दोनों तरफ़ समर्पण हो वहाँ आपको शक भी कैसे हो सकता है कि प्यार नही ??
और रही बात ,भक्ति और सजदे की तो ये सब कहीं न कहीं ,उम्मीदों का विस्तार ही तो हैं | सारी प्रार्थनाएं कहीं न कहीं उमीदों की कहानी ही तो हैं |
2.“दो तरफा चाहत जिन्हें मिलती है सचमुच खुशनसीब होते हैं पर मैंने तो अक्सर प्रेम को एकतरफा ही देखा है”
मैं बस इतना बोल रहा हूँ की एक तरफा चाहत (liking) हो सकती है ,लेकिन उसको मुहब्बत बोलना ही मौलिक रूप से ग़लत है |
अर्चना जी आपने बहुत ही प्यारी बात बोली ,कृष्ण और मीरा की भक्ति के सम्बन्ध मैं , यही कथा आगे यूं बढ़ती है , की कृष्ण की मूर्ति टूट जाती है और मीरा उसमे समां जाती है | इससे ही पता चलता है की उस मूरत को भी इतना मजबूर होना पड़ा की समर्पित हो जाए | ठीक वैसे ही जैसे बूँद समन्दर मैं मिल जाए ,तो बूँद बची नही ,लेकिन समंदर भी तो बूद मैं मिल गया ,ऐसा हो ही नही सकता की बूँद तो मिल गयी लेकिन समंदर मिलने से मना कर दे , ये मिलन एकतरफा होता नही |
और हाँ भइया भूपेंद्र राघव जी अपने पाठशाला मैं हाजिरी लगा तो दी लेकिन कक्षा करने से चूक गए , यहाँ मुद्दा बड़ा सीधा ,सच्चा और साफ था लेकिन आप ही के शब्दों मैं "" बिना स्वार्थ के बिना अपेक्षा के किसी के लिये समर्पण भाव होन ही प्यार है.. बाकी सब बेकार है..""
भइया मेरे ये सब बातें किताबी प्रतीत होती है , पढ़ के ही ऐसा लग रहा है कि कोई बंदिश लगा रखी है किसी ने, गर्दन ही पकड़ रखी हो की इतना नही तो प्यार नही और आगे "बाकि सब बेकार है "" इस बात का कोई मतलब नही | उसके आगे जो भी अपने लिखा वो आपका कहीं न कहीं ,रामचरितमानस , या गीता का कोई और किताबों से हुबहू पढ़ा हुआ हिस्सा था जो आपकी व्यक्तिगत राय हैं या नही मुझे नही मालूम |
मैं आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद देता हूँ और हिंद युग्म को साधुवाद की, यहाँ पे ऐसे विचारों के आदान प्रदान का मंच मिला आप सभी ने दिल खोल के अपने अनुभव बाटें , मेरी बातों को इतना धीरज पूर्वक सुना गया अपनी बातों को सस्नेह कहा गया | ये वैचारिक संवाद दो तरफा रहा इसका मुझे हर्ष है | हो सकता है कभी कभी लोकतांत्रिक बहस मैं जो ज्यादा लोग मानते हो वही सत्य प्रतीत होता हो | अपनी ही पंक्तियों कहकर विदा लेता हूँ
“बूंद बूंद मुझपर झरकर ,मेरा रीतापन भरकर,वो तो ख़ुद ही रीत गया,
वो तो आवारा बादल था,दीवाना था ,कुछ पागल था,सिखा मुझे भी प्रीत गया,
मेरी मन वीणा पर गाकर ,कई पुराने गीत गया,
प्रियतम कुछ पल संग मेरे करके आज व्यतीत गया!!”
दिव्य प्रकाश
मैं दिव्य की बातों से पूरी तरह सहमत हूँ . हालांकि मेरे विचार से कविता भी एक सत्य को प्रकाशित करती है.. गौरव जी आप इसके लिये बधाई के पात्र हैं.
जहाँ तक भावनाओं का सवाल है तो एकतरफ़ा भावनायें होती भी हों अगर तो उनके अधूरेपन को दुनिया की कोई बहस चाह के भी नहीं मिटा सकती. अगर कोई एकतरफ़ा प्यार में है और ये स्वीकार करना चाहे कि मेरे प्रेम का लक्ष्य यही था , तो सहर्ष मैं भी दिव्य की बातों को गलत मानने को तैयार हूँ .
और मेरे हिसाब से जो चीज हासिल करना किसी के जीवन का लक्ष्य नहीं बन सकती वो कहीं ना कहीं कुछ तो कमी सहेजे है अपने आप में
दिव्य के उदाहरणों को चाहे आप यह कह कर टाल दें कि हर चीज एक ही तराजू में नहीं तौली जा सकती है. पर फ़िर भी कहीं से ये तर्क ये सिद्ध नहीं कर सकता कि एकतरफ़ा प्यार को आप प्यार के जितना तौल सकते हैं ;
किसी भी एकतरफ़ा प्रेमी की भावनाओं और समर्पण की पूरी श्रद्धा के साथ कदर करते हुये बस इतना ही कहूँगा कि हर रिश्ते की अहमियत अपनी जगह है, और कभी कभी एकतरफ़ा प्यार सामान्य प्यार से ज्यादा कठिन तथा हर लिहाज़ में ज्यादा महान होता है..
बस इतनी दरख्वास्त है कि इसे प्रेम की परिणिति ना समझ लें , क्योंकि उत्क्र्मणीयता प्यार को इसका अर्थ प्रदान करती है, तब तक ये सिर्फ़ दूसरी भावनाओं कि तरह है, आपके और सिर्फ़ आपके जीवन को प्रभावित करने वाली...
(गलत होने का हक मुझे भी है पर सात साल के एकतरफ़ा समर्पण के बाद भी मैं कह सकता हूँ ये मेरी तो मन्जिल कभी ना थी)
baap re baap !!!!! yah blog bazar hai ya mangla haat ???????
likhne waalon......please apni rachna dharmita mat chodiyega..lage rahiye...
रचना जी , हो सके तो ब्लॉग के साथ बाजार को न जोड़े, बाकी रचनाधर्मिता किसी नियम की पाबन्द नहीं लगती मुझे तो, दिल की आवाज है, सुनते हैं तो लिख देते हैं.....
गौरव जी बधाई -
मोहब्बत चाहे कैसी हो-बहस चाहे कितनी हो-सच तो है कि -आप की कविता भावों से पूर्ण है.अपने में सफल है.
अच्छी लगी.
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वाह गौरव भाई। अध्भुत और सुंदर रचना
दिव्या भैया आपकी बहुत सी बातों से सहमत ।प्रेम पहुंचे ������
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)