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Tuesday, January 08, 2008

कोई नहीं है




जिन्होंने संजोये और पाले लाखों सपने
आज उन भीगे आबशारों का कोई नही है

जिसमें बसा करता था कभी एक घर
आज उन टूटी दीवारों का कोई नहीं है

जिनका साथ पा कर चढी ऊंची मिनारें
आज उन कमजोर सहारों का कोई नहीं है

जहां पर खेलती रौनकें थी जमाने भर की
आज उन उजडे किनारों का कोई नहीं है

कभी वक्त था जिनकी ठोकरों में रुलता
आज उन वक्त के मारों का कोई नहीं है

जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है

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17 कविताप्रेमियों का कहना है :

Harihar का कहना है कि -

जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है
Mohindarji Baat bahut hi tees dene vaali hai

रंजू भाटिया का कहना है कि -

जहां पर खेलती रौनकें थी जमाने भर की
आज उन उजडे किनारों का कोई नहीं है

बहुत खूब मोहिंदर जी !!

Anonymous का कहना है कि -

sach aaj jinke sahare hum bane hai,unka koi nahi,bujurgo ki tareff se unka dukh hi likha hai,behad sawedanashil hai.

पारुल "पुखराज" का कहना है कि -

सुंदर भाव् , मोहिंदर जी…हम ना जाने क्यों भूल जाते हैं कि जो देंगे वही पायेंगे

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

हर शेर मे दर्द और अर्थ बेशुमार है |
सुंदर रचना |

अवनीश तिवारी

seema gupta का कहना है कि -

जिनका साथ पा कर चढी ऊंची मिनारें
आज उन कमजोर सहारों का कोई नहीं है

जहां पर खेलती रौनकें थी जमाने भर की
आज उन उजडे किनारों का कोई नहीं है
" very true and well said. nice thots"
Regards

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

मोहिन्दर जी,

बेहतरीन रचना। खास पसंद आये नीचे उद्धरित शेर:

जिसमें बसा करता था कभी एक घर
आज उन टूटी दीवारों का कोई नहीं है

जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है

*** राजीव रंजन प्रसाद

शोभा का कहना है कि -

मोहिंदर जी
आज तो हिंद युग्म पेर कव्यानंद बिखरा पड़ा है .
जिनका साथ पा कर चढी ऊंची मिनारें
आज उन कमजोर सहारों का कोई नहीं है

जहां पर खेलती रौनकें थी जमाने भर की
आज उन उजडे किनारों का कोई नहीं है

कभी वक्त था जिनकी ठोकरों में रुलता
आज उन वक्त के मारों का कोई नहीं है
बहुत सुंदर ग़ज़ल लिखी है. साधू वाद कहने का मन है.

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

जिनका साथ पा कर चढी ऊंची मिनारें
आज उन कमजोर सहारों का कोई नहीं है

जहां पर खेलती रौनकें थी जमाने भर की
आज उन उजडे किनारों का कोई नहीं है

कभी वक्त था जिनकी ठोकरों में रुलता
आज उन वक्त के मारों का कोई नहीं है

मोहिन्दर जी बहुत ही सुन्दर रचना,
बहुत प्यारी , यथार्थ को दर्शाती..

Alpana Verma का कहना है कि -

''जिनका साथ पा कर चढी ऊंची मिनारें
आज उन कमजोर सहारों का कोई नहीं है''

बहुत खूब लिखा है मोहिंदर जी.

एक ऐसी ग़ज़ल जो सामायिक है और आज इस समस्या पर काम करने की जरुरत है.आधुनिकता के चलते या अभावों के या भावहीनता के या कोई और वजह-लेकिन तब बहुत दुःख होता है जब युवा अपने बुजुर्गों का साथ छोड़ उन्हें वृद्ध आश्रम या लावारिस छोड़ देता है . केरल के कुछ शहरों में बहुत से ऐसे घर हैं जहाँ सिर्फ़ बुजुर्ग रहते हैं क्योंकि ज्यादातर युवा विदेश चले जाते हैं -बूढे माँ-बाप को सेवा कर्मियों के भरोसे--सबका अपना तर्क है-लेकिन ये विषय भी विचार-विमर्श और निदान मांगता है-
*बहुत अच्छी रचना।
**हिन्दयुग्म पर कविता के साथ दिए चित्र बड़े अनूठे और प्रासंगिक होते हैं---बहुत सही चुनाव होता है-

बधाई.

Anonymous का कहना है कि -

जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है
मोहिंदर जी, पढता हूँ जब आपकी गजल,
तो दिल में तीस सी उठती है.
अच्छी पंक्तियाँ
आलोक सिंह "साहिल"

Dr. sunita yadav का कहना है कि -

ह्रदयस्पर्शी मार्मिक पंक्तियाँ.... सचमुच बच्चे की उंगली पकड़कर उसे चलना सिखाने वाले माता-पिता जब उम्र की संध्या बेला में अशक्त हो जाएं तो उनके सहारे के लिए कुछ सशक्त हाथ हमेशा मौजूद रहें....
सुंदर रचना ...

सुनीता यादव

सुनीता शानू का कहना है कि -

जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है

मोहिन्दर जी बहुत खूबसूरत अल्फ़ाज है...और उनमे सिमटी है जमाने भर सच्चाई...

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

जिसमें बसा करता था कभी एक घर
आज उन टूटी दीवारों का कोई नहीं है

कभी वक्त था जिनकी ठोकरों में रुलता
आज उन वक्त के मारों का कोई नहीं है

वाह मोहिन्दर जी!
जब बात इतनी गहराई से निकले तो जाती भी बहुत गहराई तक है। इस गज़ल के लिए बहुत शुक्रिया।

dr minoo का कहना है कि -

bahut achha likha hai...mohinder ji

विश्व दीपक का कहना है कि -

जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है

आह!
आपकी रचना पढकर हृदय से इसके अलावा कुछ ना निकला। बहुत दिनों बाद किसी गज़ल में व्यावाहारिक एवं सामयिक बात पढने को मिली है।

बधाई स्वीकारें।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

इस ग़ज़ल की हर शे'र में तो एक ही तरह की सच्चाई है। वैसे आपने 'कोई नहीं' को खूब जिया है।

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