जिन्होंने संजोये और पाले लाखों सपने
आज उन भीगे आबशारों का कोई नही है
जिसमें बसा करता था कभी एक घर
आज उन टूटी दीवारों का कोई नहीं है
जिनका साथ पा कर चढी ऊंची मिनारें
आज उन कमजोर सहारों का कोई नहीं है
जहां पर खेलती रौनकें थी जमाने भर की
आज उन उजडे किनारों का कोई नहीं है
कभी वक्त था जिनकी ठोकरों में रुलता
आज उन वक्त के मारों का कोई नहीं है
जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है
Mohindarji Baat bahut hi tees dene vaali hai
जहां पर खेलती रौनकें थी जमाने भर की
आज उन उजडे किनारों का कोई नहीं है
बहुत खूब मोहिंदर जी !!
sach aaj jinke sahare hum bane hai,unka koi nahi,bujurgo ki tareff se unka dukh hi likha hai,behad sawedanashil hai.
सुंदर भाव् , मोहिंदर जी…हम ना जाने क्यों भूल जाते हैं कि जो देंगे वही पायेंगे
हर शेर मे दर्द और अर्थ बेशुमार है |
सुंदर रचना |
अवनीश तिवारी
जिनका साथ पा कर चढी ऊंची मिनारें
आज उन कमजोर सहारों का कोई नहीं है
जहां पर खेलती रौनकें थी जमाने भर की
आज उन उजडे किनारों का कोई नहीं है
" very true and well said. nice thots"
Regards
मोहिन्दर जी,
बेहतरीन रचना। खास पसंद आये नीचे उद्धरित शेर:
जिसमें बसा करता था कभी एक घर
आज उन टूटी दीवारों का कोई नहीं है
जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है
*** राजीव रंजन प्रसाद
मोहिंदर जी
आज तो हिंद युग्म पेर कव्यानंद बिखरा पड़ा है .
जिनका साथ पा कर चढी ऊंची मिनारें
आज उन कमजोर सहारों का कोई नहीं है
जहां पर खेलती रौनकें थी जमाने भर की
आज उन उजडे किनारों का कोई नहीं है
कभी वक्त था जिनकी ठोकरों में रुलता
आज उन वक्त के मारों का कोई नहीं है
बहुत सुंदर ग़ज़ल लिखी है. साधू वाद कहने का मन है.
जिनका साथ पा कर चढी ऊंची मिनारें
आज उन कमजोर सहारों का कोई नहीं है
जहां पर खेलती रौनकें थी जमाने भर की
आज उन उजडे किनारों का कोई नहीं है
कभी वक्त था जिनकी ठोकरों में रुलता
आज उन वक्त के मारों का कोई नहीं है
मोहिन्दर जी बहुत ही सुन्दर रचना,
बहुत प्यारी , यथार्थ को दर्शाती..
''जिनका साथ पा कर चढी ऊंची मिनारें
आज उन कमजोर सहारों का कोई नहीं है''
बहुत खूब लिखा है मोहिंदर जी.
एक ऐसी ग़ज़ल जो सामायिक है और आज इस समस्या पर काम करने की जरुरत है.आधुनिकता के चलते या अभावों के या भावहीनता के या कोई और वजह-लेकिन तब बहुत दुःख होता है जब युवा अपने बुजुर्गों का साथ छोड़ उन्हें वृद्ध आश्रम या लावारिस छोड़ देता है . केरल के कुछ शहरों में बहुत से ऐसे घर हैं जहाँ सिर्फ़ बुजुर्ग रहते हैं क्योंकि ज्यादातर युवा विदेश चले जाते हैं -बूढे माँ-बाप को सेवा कर्मियों के भरोसे--सबका अपना तर्क है-लेकिन ये विषय भी विचार-विमर्श और निदान मांगता है-
*बहुत अच्छी रचना।
**हिन्दयुग्म पर कविता के साथ दिए चित्र बड़े अनूठे और प्रासंगिक होते हैं---बहुत सही चुनाव होता है-
बधाई.
जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है
मोहिंदर जी, पढता हूँ जब आपकी गजल,
तो दिल में तीस सी उठती है.
अच्छी पंक्तियाँ
आलोक सिंह "साहिल"
ह्रदयस्पर्शी मार्मिक पंक्तियाँ.... सचमुच बच्चे की उंगली पकड़कर उसे चलना सिखाने वाले माता-पिता जब उम्र की संध्या बेला में अशक्त हो जाएं तो उनके सहारे के लिए कुछ सशक्त हाथ हमेशा मौजूद रहें....
सुंदर रचना ...
सुनीता यादव
जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है
मोहिन्दर जी बहुत खूबसूरत अल्फ़ाज है...और उनमे सिमटी है जमाने भर सच्चाई...
जिसमें बसा करता था कभी एक घर
आज उन टूटी दीवारों का कोई नहीं है
कभी वक्त था जिनकी ठोकरों में रुलता
आज उन वक्त के मारों का कोई नहीं है
वाह मोहिन्दर जी!
जब बात इतनी गहराई से निकले तो जाती भी बहुत गहराई तक है। इस गज़ल के लिए बहुत शुक्रिया।
bahut achha likha hai...mohinder ji
जिनकी उंगली थाम बचपन जवानी में बदला
आज उन्हीं बुलन्द बुजुर्गवारों का कोई नहीं है
आह!
आपकी रचना पढकर हृदय से इसके अलावा कुछ ना निकला। बहुत दिनों बाद किसी गज़ल में व्यावाहारिक एवं सामयिक बात पढने को मिली है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
इस ग़ज़ल की हर शे'र में तो एक ही तरह की सच्चाई है। वैसे आपने 'कोई नहीं' को खूब जिया है।
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