तुम्हारा खत पढा
फिर पढा..
कितने ही टुकडे चाक कलेजे के
मुँह को आ पडे
थामा ज़िगर को
और बिलकुल बन चुका मोती भी चूने न दिया
फिर पढा तुमहारा खत
और शनैः-शनैः होम होता रहा स्वयमेव
एक एक शब्द होते रहे गुंजायित
व्योम में प्रतिध्वनि स्वाहा!
नेह स्वाहा!
भावुकता स्वाहा!
तुम स्वाहा!
मैं स्वाहा!
और हमारे बीच जो कुछ भी था....स्वाहा!
आँखों को धुवाँ छील गया
गालों पर एक लम्बी लकीर खिंच पडी
जाने भीतर के वे कौन से तंतु
आर्तनाद कर उठे..शांतिः शांतिः शांतिः
अपनी ही हथेली पर सर रख कर
पलकें मूंद ली
ठहरे हुए पानी पर हल्की सी आहट नें
भवरें बो दीं
झिलमिलाता रहा पानी
सिमट कर तुम्हारा चेहरा हो गया
लगा चीख कर उठूं और एक एक खत
चीर चीर कर इतने इतने टुकडे कर दूं
जितनें इस दिल के हैं.....
फिर पढा..
कितने ही टुकडे चाक कलेजे के
मुँह को आ पडे
थामा ज़िगर को
और बिलकुल बन चुका मोती भी चूने न दिया
फिर पढा तुमहारा खत
और शनैः-शनैः होम होता रहा स्वयमेव
एक एक शब्द होते रहे गुंजायित
व्योम में प्रतिध्वनि स्वाहा!
नेह स्वाहा!
भावुकता स्वाहा!
तुम स्वाहा!
मैं स्वाहा!
और हमारे बीच जो कुछ भी था....स्वाहा!
आँखों को धुवाँ छील गया
गालों पर एक लम्बी लकीर खिंच पडी
जाने भीतर के वे कौन से तंतु
आर्तनाद कर उठे..शांतिः शांतिः शांतिः
अपनी ही हथेली पर सर रख कर
पलकें मूंद ली
ठहरे हुए पानी पर हल्की सी आहट नें
भवरें बो दीं
झिलमिलाता रहा पानी
सिमट कर तुम्हारा चेहरा हो गया
लगा चीख कर उठूं और एक एक खत
चीर चीर कर इतने इतने टुकडे कर दूं
जितनें इस दिल के हैं.....
हिम्मत क्यों नहीं होती मुझमे??
***राजीव रंजन प्रसाद
२३.०४.१९९५
***राजीव रंजन प्रसाद
२३.०४.१९९५
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
अपनी ही हथेली पर सर रख कर
पलकें मूंद ली
ठहरे हुए पानी पर हल्की सी आहट नें
भवरें बो दीं
झिलमिलाता रहा पानी
सिमट कर तुम्हारा चेहरा हो गया
" its its really very painful picturerization of love. i loved it. too good and heart touching"
Regards
एक एक शब्द होते रहे गुंजायित
व्योम में प्रतिध्वनि स्वाहा!
नेह स्वाहा!
भावुकता स्वाहा!
तुम स्वाहा!
मैं स्वाहा!
और हमारे बीच जो कुछ भी था....स्वाहा!
---
सुंदर.
अवनीश
राजीव जी
ल्मल कर दिया . बहुत दिनों बाद इतनी प्यारी कविता पढी है. ये नया अंदाज़ पसंद आया
एक एक शब्द होते रहे गुंजायित
व्योम में प्रतिध्वनि स्वाहा!
नेह स्वाहा!
भावुकता स्वाहा!
तुम स्वाहा!
मैं स्वाहा!
और हमारे बीच जो कुछ भी था....स्वाहा!
बाव बरी रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई
राजीव जी,
इस बार भी हम दोनों की रचनाओं में कुछ मिलता जुलता है . दोनों दर्द भरी हैं और दोनों के शीर्षक भी मिलते जुलते हैं
सुन्दर रचना लिखी है आपने..
सच में दर्द जब हद से बढ जाये तो अपने आप दवा हो जाता है.. कुछ कहने की जरूरत ही नहीं रहती. बोले मूक हो जाते हैं
अपनी ही हथेली पर सर रख कर
पलकें मूंद ली
ठहरे हुए पानी पर हल्की सी आहट नें
भवरें बो दीं
झिलमिलाता रहा पानी
सिमट कर तुम्हारा चेहरा हो गया
बहुत ही सुंदर कविता लगी आपकी इस की राजीव जी ..दिल को छू लिया इस ने ..!!
एक अलग सा शब्दजाल
एक अलग सी कविता
बहुत ही दर्द भरी शब्दावली
एक दम अनौखी रचना
वह राजीव जी, तबाह कर दिया आपने तो. प्रेम का इतना मर्मस्पर्शी चित्रण. दिल भर आया.
बहुत बहुत साधुवाद
आलोक सिंह "साहिल"
rajiv ji,nitanth sundar bhav hai,hruday ke aarpar ho gaye.
.....kavita thi ya aartnad.......
dil ko chhukar bhi aaht kar dali ...
no words ...hats off....
sunita yadav
सचमुच इतनी गहरी संवेंदनाएं....क्या आपका रूलाने का इरादा था...?
वैसे एक बात बताईये आप अपनी पुरानी शैली गज़ल कब लिखेंगे...बहुत अर्सा बीत गया जो रचना कुहू के मुँह से सुनी थी बेहतरीन थी...अब एक और हो जाये...:)आपके तो बायें हाथ का खेल है लिख ही डालिये...
आह!
सुन्दर...
*''हिम्मत क्यों नहीं होती मुझमे??'' जवाब सीधा है-
क्योंकि ना नेह स्वाहा हुआ है ना ही भावुकता स्वाहा!
*टूटे दिल से निकली एक भावपूर्ण कविता है.
*इन पंक्तियों - '' ठहरे हुए पानी पर हल्की सी आहट नें
भवरें बो दीं'' -में तो कवि के आहत दिल की भावनाओं की सफल अभिव्यक्ति है.
*सुंदर शब्द और गठन भी.
*अच्छी रचना.
अपनी ही हथेली पर सर रख कर
पलकें मूंद ली
ठहरे हुए पानी पर हल्की सी आहट नें
भवरें बो दीं
झिलमिलाता रहा पानी
सिमट कर तुम्हारा चेहरा हो गया
sara dard bakhoobi bayan hota hai.kafi dino baad ek aisi kavita padhi jiski bhasa ek dam alag hai .jhilmilate pani par jo aksh kheencha kabile tareef hi nahin yaad rakhne ke kabil bhi hai.
लगा चीख कर उठूं और एक एक खत
चीर चीर कर इतने इतने टुकडे कर दूं
जितनें इस दिल के हैं.....हिम्मत क्यों नहीं होती मुझमे??
क्या बात है राजीव जी! आज प्रेम की बगिया में सैर कर रहे हैं। आपकी रचना मुझे बहुत पसंद आई।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
सच्चे भाव। पसंद आई।
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