हिन्द-युग्म यूनिकवि प्रतियोगिता के नवम्बर अंक की आखिरी कविता लेकर हम उपस्थित हैं। इस स्थान के कवि दिनेश गहलोत प्रायः ही हमारी प्रतियोगिता में भाग लेते रहते हैं। ज़रूर बताइएगा कि इनकी यह कविता आपको कैसी लगी।
कविता- गाँव की गलियाँ
कवयिता- दिनेश गहलोत, जयपुर
आज जब मैं इतना बड़ा हो गया
अपने पैरों पे खड़ा हो गया
तो एक बात कचोटती है मन को
बार-बार झकझोरती है मन को
क्यूँ आज मेरे गाँव की गलियाँ
इतनी छोटी हो गयी ..........
जो आती थी काम छोटे बड़ों के
वो क्यूँ खोटी हो गयी
जिन गलियों में मैं सबके साथ खेलता
उनमें अब मैं अकेला ही नहीं समा पाता
गलती गलियों की नहीं है
ये अपनी जगह पर सही हैं
छोटी गाँव की गलियाँ नहीं अपितु
लोगों के मन हो गए हैं
जो करते थे सभी से प्यार
अब उनमें नहीं दिखता थोड़ा सा भी प्यार
सच तो यह है की आज
इंसान ये नहीं जानता
दूसरा इंसान भी उसका अपना है
आखिर इंसान कौन है
अपनों के लिये भी क्यूँ
सभी के मन मौन है
छोटी मन की गलियाँ हुई हैं
तंग मन की गलियाँ हुई हैं
गाँव की गलियाँ तो वैसी ही हैं
जैसे पहले थी .............
सभी को अपने में समेटे हुए
प्रेम विश्वास की चादर में
सभी लोगो को लपेटे हुए
फिर भी मेरा मन नहीं मानता
कि कौन हुआ छोटा ..
गाँव कि गलियाँ या सबके मन
अब भी ये नहीं जानता
फिर भी मानना तो पड़ेगा कि ..
गाँव की गलियाँ कभी नहीं बोलतीं
व्यक्ति-व्यक्ति में भेदभाव नहीं तोलतीं
भेदभाव तो हमारा मन करता है
दूसरों को दुखी करता है
और स्वयं भी दुखी रहता है
चौड़ी गाँव की गलियों को नहीं
हमारे मन को करना होगा
प्रेम प्यार विश्वास से
फिर इसको भरना होगा
जब इंसान दूसरों को अपना समझेगा
सभी से मधुर वचन बोलेगा
कहती है प्रात की पावन किरणे..
कल-कल करते झरने ...
नदी का शीतल पानी ...
संतों की पुनीत वाणी ..
माना जिस दिन बंधन की शुरूआत थोड़ी होगी
गाँव की गलियाँ भी पहले सी चौड़ी होंगी ....
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰६, ६
औसत अंक- ६॰३
स्थान- सोलहवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰५, ६॰७५, ४॰४, ६॰३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰२३७५
स्थान- बीसवाँ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
5 कविताप्रेमियों का कहना है :
s88दिनेश जी किसी भी प्रसंग में पहले और आखिरी का महत्व बहुत बड़ा होता है, ऐसे में आप हमारे २० कवियों के लिस्ट में अन्तिम हैं, इस हेतु मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें.
रही बात आपके गांव के गलियों कि तो ये संकरी होते हुए भी बेहद आकर्षक हैं,
बहुत बहुत साध्वाद
आलोक सिंह "साहिल"
दिनेश जी
अच्छा लिखा है । यह एक सच्चाई है । नगरों की तरह गाँव में भी आज वह सरलता और अपनापन नहीं रहा । कभी-कसभी को अपने में समेटे हुए
प्रेम विश्वास की चादर में
सभी लोगो को लपेटे हुए
फिर भी मेरा मन नहीं मानता
कि कौन हुआ छोटा ..
गाँव कि गलियाँ या सबके मन
अब भी ये नहीं जानता
फिर भी मानना तो पड़ेगा कि ..
भी इस सब को देखकर मन उदास जरूर हो जाता है । आपने अच्छी अभिव्यक्ति दी है अपने भावों को ।
दिनेश जी आपके गांव की गलियों को जब निहारा तो अपने गांव के गलियों की याद बरबस आ गई.
अच्छी रचना
अभिनव कुमार झा
यूं तो सारी कविता ही प्रभावशाली है-
परन्तु ऐसा लगता है जैसे इन पंक्तियों से कवि ने कविता को सांसें दी हैं-
*'भेदभाव तो हमारा मन करता है'
और--
*छोटी गाँव की गलियाँ नहीं अपितु
लोगों के मन हो गए हैं-
सच कहा है-
'गाँव की गलियाँ कभी नहीं बोलतीं
व्यक्ति-व्यक्ति में भेदभाव नहीं तोलतीं-'
दिलों में अन्तर का कारण खोजने का अच्छा प्रयास कविता में दिखता है.
और अंत में आपने समाधान भी सुझाया है-अच्छी अभिव्यक्ति है -
आपकी कविता में कथ्य तो है लेकिन अत्यधिक बड़ी होने से थोड़ी बोझिल हो गई है। शब्दों को कम करने की कोशिश करें, भावों को बढ़ाने की कोशिश करें। आगे के लिए शुभकामनाइँ।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)