शान्त नदी की धारा
उतनी ही शान्त तुम
तुम्हारे फैंके हुये कंकड से विचलित धारा
उतना ही विचलित मैं
लहरें प्रतिबिम्ब हैं
मेरे उद्वेलित मन का
आलोड़ित भावनाऒं का।
मेरे भीतर की नदी हर बाँध ,
हर किनारे को तोड कर चाहती है
बह निकलना पर
तुम्हारे शान्त भाव रहित चेहरे को देखकर
हर नदी को स्वयं बाँध देता हू॥
इन्तज़ार थोडा और इन्तज़ार
कुछ नदियाँ बाँध तोडेंगी उधर के
सिर झुकाये,
आँखें मुंदे कल्पना करता हूँ
उल्लासित,उत्साहित,आवेगित तुम
तोड सारे किनारे
समा जाने को आतुर
आवेग से चली आ रही हो।
आतुरता के साथ
मैं बाहें पसारे प्रतीक्षारत हूँ
तुम्हारे आने का
एकाकार होने का
आवेग शिथिल है
तुम शान्त-क्लान्त
कंधे पर सिर टिकाये
साँस की लय से लय मिलाते हुये
पास हो बहुत पास
अगले ही पल पाता हूँ
शान्त नदी की धारा
उतनी ही शान्त तुम।
मुस्कुरा पडता हूँ
अपनी कल्पना पर
फिर से नये सिरे से बाँध रहा हूँ
एक बाँध अपनी भावनाऒं का।
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
kavi ke gehre vichar dekhte hi bante hai. is kavita main... kafi acchi kavita likhi hai..
फिर से नये सिरे से बाँध रहा हूँ
एक बाँध अपनी भावनाऒं का।
-- बहुत खूब.
अवनीश
अनुराधा जी,
कविता अच्छी लगी पर एक जगह मैं भाव पूरी तरह समझ नही पाया।
शान्त नदी की धारा
उतनी ही शान्त तुम
*********
तुम्हारे शान्त भाव रहित चेहरे को देखकर
हर नदी को स्वयं बाँध देता हू॥
इन दोनो में शान्त के अर्थ में साम्यता नही दीख पड़ती। या थोड़ा और भाव को स्पष्ट करें तो अच्छा हो।
वाह ..... बहुत सुंदर.... बधाई आपको
अनुराधा जी
बहुत सुंदर लिखा है. उपमान भी सुंदर लिए हैं .
एकाकार होने का
आवेग शिथिल है
तुम शान्त-क्लान्त
कंधे पर सिर टिकाये
साँस की लय से लय मिलाते हुये
पास हो बहुत पास
अगले ही पल पाता हूँ
शान्त नदी की धारा
उतनी ही शान्त तुम।
मुस्कुरा पडता हूँ
अपनी कल्पना पर
फिर से नये सिरे से बाँध रहा हूँ
एक बाँध अपनी भावनाऒं का।
अति सुंदर. बधाई .
sahilअनुराधा जी एकबार फ़िर आपकी प्यारी कविता.कविता बताती है कि इसके जन्म के लिए आपने खासी मेहनत कि होगी.
बहुत बहुत साधुवाद
आलोक सिंह "साहिल"
प्रेमी का आतुर मन, अपनी प्रेयसी का इंतजार और फ़िर उसको अपनी कल्पनाओं में अपनी इच्छा स्वरूप पाना मगर जल्द ही उसका वास्तविकता से सामना होना--कविता एक कहानी सी कहती लगती है-
-अच्छी प्रस्तुति है.
अनुराधा जी
नदी के बिम्ब से आपने अनुराग और आतुरता को यथार्थ के सेतु से बहुत ही कुशलता से जोड़ दिया. एक सुंदर रचना, आनंदमय प्रस्र्तुति के लिए आभार
कथ्य अच्छा है. रचना एक संपूर्ण भावचित्र पाठक के मानस पर अंकित करने में समर्थ है. परंतु गद्यात्मकता पूरी रचना पर हावी है. थोड़ी और मेहनत अपेक्षित है.
मेरे उद्वेलित मन का
आलोड़ित भावनाऒं का।
मेरे भीतर की नदी हर बाँध ,
हर किनारे को तोड कर चाहती है
बह निकलना पर
तुम्हारे शान्त भाव रहित चेहरे को देखकर
हर नदी को स्वयं बाँध देता हू॥
इन्तज़ार थोडा और इन्तज़ार
कुछ नदियाँ बाँध तोडेंगी उधर के
सिर झुकाये,
आँखें मुंदे कल्पना करता हूँ
उल्लासित,उत्साहित,आवेगित तुम
तोड सारे किनारे
समा जाने को आतुर
आवेग से चली आ रही हो।
आतुरता के साथ
मैं बाहें पसारे प्रतीक्षारत हूँ
तुम्हारे आने का
एकाकार होने का
बहुत बढिया ... बधाई
जबरदस्त!!
जो बिम्ब आपने इस्तेमाल किये हैं, वो बहुत ही पारम्परिक हैं। कविता का एक चरित्र हिता है चमत्कार उत्पन्न करना। वो नहीं खोज पाया। हाँ मध्य से नदी, बाध, लहरों आदि का भाव-विस्तार प्रसंशनीय हो गया है।
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