मैं सागर नहीं
परन्तु
तनिक वैसा ही
उद्वेलित
सीमाओं के अतिक्रमण
की व्यर्थ चेष्टा में
अपने बल व उर्जा
के ह्रास का प्रयाय बन
मिथ्या कल्पना के
आकाश में गमन करता
सत्य के ठोस धरातल पर
माथा पटकता
भाग्य रूपी वायुवेग के
निर्देश पर गतिमान
मनोभावों के ज्वालामुखी
अन्तर्मन में समेटे
धधकते लावे पर
संयम की धार डाल
किसी झंझावत की प्रतीक्षा में
जिसकी दिशा सामान्तर हो
मेरे मन के मौसम से
और जो जा ठहरे
ऐसे किसी टापू पर
जिसका अस्तित्व दे सके
मुझे मेरे खोने से पहले
मेरे होने का बोध.
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
मेरे मन के मौसम से
और जो जा ठहरे
ऐसे किसी टापू पर
जिसका अस्तित्व दे सके
मुझे मेरे खोने से पहले
मेरे होने का बोध.
मन में होती उथल पुथल , फ़िर उन पर कल्पना के पंख ,और फ़िर एक ठहराव का एहसास ,बहुत ही सुंदर भाव हैं इस कविता के ..बहुत ही अच्छी लगी आपकी यह रचना मोहिंदर जी ..बधाई !!
'मनोभावों के ज्वालामुखी' और 'संयम की धार' पंक्तियाँ अच्छी लगीं.
आप की कविता के भाव शायद हम में से बहुतों के मन के अपने भाव हैं.अपने अस्तित्व को हर कोई कहाँ ढूंढ पाता है.इसी खोज में उमर बीत भी जाती है-
अच्छी रचना के लिए बधाई.
मोहिन्दर जी,
बहुत ही सुन्दर रचना..
कुछ पंक्तियाँ चुनने लगा तो सारी सलेक्ट हो गयीं सो छोड दिया...
मोहिंदर जी!
जिसका अस्तित्व दे सके
मुझे मेरे खोने से पहले
मेरे होने का बोध....
बहुत ही अच्छा लगा आपको इस नए रूप में पढ़ना
मोहिंदर जी
बहुत सुंदर कविता है . शब्दावली प्रभावशाली है -
मेरे मन के मौसम से
और जो जा ठहरे
ऐसे किसी टापू पर
जिसका अस्तित्व दे सके
मुझे मेरे खोने से पहले
मेरे होने का बोध.
अति सुंदर
..ऐसे किसी टापू पर
जिसका अस्तित्व दे सके
मुझे मेरे खोने से पहले
मेरे होने का बोध.
आपकी कलम से निकली एक और सशक्त तथा गहरी प्रस्तुति।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मोहिंदर जी बिल्कुल आप से मेल खाती आपकी रचना.बहुत ही प्यारी बहुत हुई स्नेहिल.
आपका
अलोक सिंह "साहिल"
वाह मोहिंदर आनंद आ गया पढ़ कर, बहुत सुंदर अव्हिव्यक्ति.....बधाई
मोहिन्दर जी,
मुझे आपकी रचना अच्छी लगी क्यों की
१) आपने अस्तित्व को लगता है नयी परिभाषा दी है
२) अच्छी उप्माये दी है जैसे "मेरे मन के मौसम से" और कही कही अच्छा रूपक भी प्रयुक्त हुआ है
जैसे "मनोभावों के ज्वालामुखी" "संयम की धार डाल"
३) कविता के लिहाज़ से अच्छी बनी बैठती hai
अच्छी रचना बनी है पर..
आप ने थोडा रचना जटिल कर दे है शायद
सादर
शैलेश
और अच्छी रचना की प्रतीक्षा में आपका अवनीश.
जो एक सबसे बडी कमी मुझे दिखी एस कविता में वह यह थी कि यह पूरी कविता एक ही वाक्य में लिखी हुयी है जिसके कारण सम्प्रेषणीयता प्रभावित होती है.
सभी मित्रों का धन्यवाद जिन्होंने मेरी रचना को सराहा.
शैलेश जमलोकी जी प्रशन्सा के लिये धन्यवाद.. रचना में कुछ शब्द जरूर कलिष्ट हैं परन्तु पाठक काफ़ी जाकरूक हैं और निश्चय ही मुझसे ज्यादा समझदार... फ़िर भी आगे से मेरी कोशिश होगी की भावों को सरलता से प्रेषित कर पाऊं
अवनीश गौतम जी रचनायें कवि के लिये वैसी ही होती हैं जैसे अविभावकों के लिये उनके बच्चे.. इसलिये स्वंय कवि के लिये यह कहना मुशकिल होता है कि कौन सी अच्छी है और कौन सी बुरी... जहां तक इस कविता का प्रशन है इसे एक ही वाक्य में इसलिये कहा गया क्योंकि यह एक विचार भर था और मैं चाहता था कि कम शब्दों में ही यह पाठकों तक पहुंचे.. अधिक विस्तार से मुख्य बिन्दू से भटकने का भय हमेशा बना रहता है.
आपकी जागरूकता और सुझाव के लिये धन्यवाद
मेरे मन के मौसम से
और जो जा ठहरे
ऐसे किसी टापू पर
जिसका अस्तित्व दे सके
मुझे मेरे खोने से पहले
मेरे होने का बोध.
aapki baat to jag se nirali hai Mohinder ji....kya khoob likha hai
मेरे मन के मौसम से
और जो जा ठहरे
ऐसे किसी टापू पर
जिसका अस्तित्व दे सके
मुझे मेरे खोने से पहले
मेरे होने का बोध
मोहिन्दर जी!
देर के लिये माफी चाहुंगा, अस्तित्व का बोध कराती एक सशक्त रचना
बाकी तारीफे तो आप पा ही चुके हैं।।।।।।
अवनीश जी ने इस कविता की कमी को बहुत बारीकी से पकड़ा है, मगर यह लघु कविता मनुष्य के जीवन को विस्तारपूर्वक समझा जाती है, इसलिए सफल भी कही जायेगी।
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