पिछले बार टॉप १० में रह चुके कवि रविन्दर टमकोरिया 'व्याकुल' की कविता इस बार १८वें पायदान पर हैं। लेकिन यह भी खुशी की बात है कि इनकी कविता इस बार भी अंतिम बीस में है और हमें प्रकाशित करने का अवसर मिल रहा है। हमेशा सामाजिक विषयों को उठाते हैं। पिछली बार इन्होंने 'वेश्या' पर कविता लिखी थी, इसबार भूख को परिभाषित करने का प्रयास कर रहे हैं।
कविता- भूख
भूख का संबंध है पेट से / अनाज से
भूख है...तो है, अनाज का महत्व / पेट की ऐंठन
मगर साथ ही भूख का संबंध है लाचारी से /
बेरोजगारी से / हैवानियत से भी
भूख ही है जो खींच लाती है औरत को बाज़ार में
नीलाम कर देती है उसकी इज्जत
छीन लेती है बच्चों के हाथ से किताबें..
और थमा देती है हथोड़े,
आँचल फैलाने पर मजबूर कर देती है
यह माओं को, गैरों के बीच
बना देती है दोस्त को दुश्मन
अक्सर यह भूख ही होती है
जो करती है हमें अपनों से अलग ...
ला पटकती है बियाबान अपरिचितों के बीच
सहना पड़ता है जहाँ अपनों का बिछोह ,
गांव की ममता
खानाबदोश बनकर रह जाती है जिन्दगी
इस भूख के आगे निहथ्थे है हम सब
दुनिया को बदल डालने की ताकत है इसमें
इसी भूख की ताकत को निशाना बनाते है सत्ताधारी
सौदा करते है वे भूखों से रोटी का
बदले में थमा देते है उनके हाथों में हथियार
करवाते है दंगे ..लुटवा लिया जाता है अनाजों का गौदाम ...
फिर उसी अनाजों को बँटवा देते है
वे भूखों-नगों के बीच
फिर सान्तवना देते है की गरीबी हट रही है ...
अब कोई भूखा नहीं ...अब कहीं असंतोष नहीं ..
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰७, ६
औसत अंक- ६॰३५
स्थान- तेरहवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰२५, ७॰२, ५॰५, ६॰३५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰३२५
स्थान- अठारहवाँ
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सटीक विवरण दिया है भूख का. बिल्कुल व्यवहारिक बात कही है|
सुंदर है|
अवनीश तिवारी
रविन्दर जी
भूख को बहुत ही सुन्दर रूप से काव्य रूप दिया है । अन्त में थोड़ी गद्यात्मकता आ गई है।
लेकिन भूख का चित्रण बहुत सजीव है । इसीलिए ेक कवि ने कहा था-जब भी कोई भूख से लड़ने खड़ा होता है
बहुत सुन्दर लगता हैं
एक कटु सत्य से परिचय कराती है आप की कविता.
बहुत सही कहा आपने -
'दुनिया को बदल डालने की ताकत है इसमें
इसी भूख की ताकत को निशाना बनाते है सत्ताधारी'
अच्छा कटाक्ष किया है आपने अंत में आज के नेताओं पर.
लेकिन हल क्या होगा???सोचना है------
रविन्दर जी!
बहुत अच्छी लगी आपकी प्रस्तुति. यद्यपि शोभा जी की बात से मैं भी सहमत हूँ कि अंत तक आते आते गद्यात्मकता हावी होने लगती है. भावचित्रण में आप सफल हुये हैं.
एक अच्छी रचना के लिये बधाई स्वीकारें.
अक्सर यह भूख ही होती है
जो करती है हमें अपनों से अलग ...
ला पटकती है बियाबान अपरिचितों के बीच
सहना पड़ता है जहाँ अपनों का बिछोह ,
एक अच्छी रचना है ...
कविता कम और गध ज्यादा है कुछ मज़ा नही आया व्याकुल जी व, व्यश्य के मुकाबले ये कविता बहुत कम्जूर लगी
vyakul जी sarahaniy प्रस्तुति रही, आपको पढ़ना anandkar रहा
shubhkamnaon समेत
आलोक सिंह "साहिल"
"अक्सर यह भूख ही होती है
जो करती है हमें अपनों से अलग ...
ला पटकती है बियाबान अपरिचितों के बीच
सहना पड़ता है जहाँ अपनों का बिछोह ,
गांव की ममता
खानाबदोश बनकर रह जाती है जिन्दगी"
यह सबसे कड़वी और सच्ची पंक्तियाँ हैं.....
बेहतर रचना....
यथार्थ चित्रण क्या खूब ! भूख को केंद्रित कर लिखी गयी अच्छी रचनाओं में यह कविता एक सशक्त छाप छोडती है .बधाई हो ...
सुनीता यादव
इतनी सुन्दर टिप्पणी करने के लिए आप सभी का धन्यवाद ,जिन्हें कविता में कुछ कमी लगी , उन्हें कहना चाहूँगा की अगली कविता में पूरी कोशिश करूँगा की आप लोगों की शिकायत को दूर कर सकूं ....
विनय सहित आपका 'व्याकुल'
आपकी रचना कटु सत्य को उदघाटित करती है। अन्त थोडा बोझिल सा है।
सही चित्रण किया है भूख का, कवित्व की थोडी कमी रह गयी
रचना भावयुक्त है..
बहुत बहुत बधाई
आप अच्छा लिख रहे हैं टमकोरिया जी। आपकी की प्रारम्भिक कविताएँ भी साहित्यसृजन के दायरे में आती हैं।
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