पहरे हैं ज़ुबानों पर, लफ्ज़ नज़रबंद हैं,
आज़ाद बयानों पर लगे, फतवों के पैबंद हैं,
फाड़ देते हैं सफ्हे, जो नागावर गुजरे,
तहरीर के नुमाइंदे ऐसे, मौजूद यहाँ चंद हैं
तस्वीरे-कमाल कितने रानाईये-ख्याल,
मेहर है इनकी जो आज, मंज़ुषों में बंद हैं,
हथकडियाँ दो चाहे फांसी पर चढ्वा दो,
जुल्म के हर वार पर, जोरे-कलम बुलंद हैं,
पीकर के जहर भी, सूली पर मरकर भी,
जिंदा है सच यानी, झूठ के भाले कुंद हैं,
बेशक जोरो-जबर से, दबा दो मेरी चीख तुम,
आग है जंगल की,ये लौ जो अभी मंद हैं.
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
हथकडियाँ दो चाहे फांसी पर चढ्वा दो,
जुल्म के हर वार पर, जोरे-कलम बुलंद हैं,
---
बहुत गहरा प्रहार करती है आपकी रचना
सुंदर.
बधाई
अवनीश तिवारी
हथकडियाँ दो चाहे फांसी पर चढ्वा दो,
जुल्म के हर वार पर, जोरे-कलम बुलंद हैं,
---
बहुत गहरा प्रहार करती है आपकी रचना
सुंदर.
बधाई
अवनीश तिवारी
सजीव जी
आज़ाद बयानों पर लगे, फतवों के पैबंद हैं,
....
तहरीर के नुमाइंदे ऐसे, मौजूद यहाँ चंद हैं
....
जुल्म के हर वार पर, जोरे-कलम बुलंद हैं,
बेशक जोरो-जबर से, दबा दो मेरी चीख तुम,
आग है जंगल की,ये लौ जो अभी मंद हैं.
वाह .. ! कमाल की पंक्तियाँ हैं. कलमकार की कलम का जोर किसी भी और जोर से दबाया नहीं जा सका है और आगे भी नहीं दबाया जा सकेगा नमन आपकी इस अभिव्यक्ति को
हथकडियाँ दो चाहे फांसी पर चढ्वा दो,
जुल्म के हर वार पर, जोरे-कलम बुलंद हैं,
यह पंक्ति बहुत अच्छी लगी .बहुत खूब सजीव जी ..यह अंदाज़ भी आपका अच्छा लगा बधाई !!
सजीव जी,
बहुत ही सशक्त रचना..
पहरे हैं ज़ुबानों पर, लफ्ज़ नज़रबंद हैं,
आज़ाद बयानों पर लगे, फतवों के पैबंद हैं,
फाड़ देते हैं सफ्हे, जो नागावर गुजरे,
तहरीर के नुमाइंदे ऐसे, मौजूद यहाँ चंद हैं
बेशक जोरो-जबर से, दबा दो मेरी चीख तुम,
आग है जंगल की,ये लौ जो अभी मंद हैं.
बहुत सुन्दर
पहरे हैं ज़ुबानों पर, लफ्ज़ नज़रबंद हैं,
आज़ाद बयानों पर लगे, फतवों के पैबंद हैं,
बेशक जोरो-जबर से, दबा दो मेरी चीख तुम,
आग है जंगल की,ये लौ जो अभी मंद हैं.
सजीव जी आपकी कविता में यह तेवर खूब निखर कर आया है। लाजवाब रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत बढिया! सजीव जी!
सजीव जी
बहुत सुंदर ग़ज़ल लिखी है.
पीकर के जहर भी, सूली पर मरकर भी,
जिंदा है सच यानी, झूठ के भाले कुंद हैं,
बेशक जोरो-जबर से, दबा दो मेरी चीख तुम,
आग है जंगल की,ये लौ जो अभी मंद हैं.
बहुत बढ़िया. बधाई.
fantastic ghazal sajeev ji..
--सजीव जी,
आपकी ये ग़ज़ल मुझे बहुत पसंद आई क्यों की
१) सारे कवियों (लेखकों) को को एक उनकी ताकत का एहसास करवाती है
२) उर्दू मै ज्यादा बनी है.. मुझे ज्यादा तर मतलब समझ आये
३) विराम चिहन अछे प्रयुक्त हुए है
४) कुछ शुद्ध शब्द भी प्रयुक्त हुए है जैसे "मंज़ुषों"
बधाई हो
सादर
शैलेश
बहुत अच्छे तेवर हैं गज़ल के और एकाध जगह को छोड़कर शिल्प भी बढ़िया है।
लेकिन कुछ शेर एक ही बात दुहराते से लगे।
बहुत खूब , तस्लीमा को ऐसे ही सहयोग की उम्मीद है, कविता के तेवर भी अच्छे लगे।
हथकडियाँ दो चाहे फांसी पर चढ्वा दो,
जुल्म के हर वार पर, जोरे-कलम बुलंद हैं,
ही अपने आप में पूरी बात कह रहा था, मेरे हिसाब से अंतिम शेर की आवश्यकता नहीं थी। हाँ यदि अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग ढंग सुनाया जाय तब तो मज़ा ही आ जायेगा। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि अंतिम शेर में वज़न कम है।
आपका यह नया तेवर मुझे बहुत पसंद आया।
सजीव जी,
आप की यह ग़ज़ल अच्छी लगी.
सभी शेर अपनी अपनी बात कह पाने में सक्षम रहे.
''आग है जंगल की,ये लौ जो अभी मंद हैं.''
मुझे यह एक पंक्ति सारी ग़ज़ल में सबसे वज़नदार वज़नदार लगी. ऐसा लगता है जैसे आनेवाली किसी प्रलय की सूचक हो.
यह सिर्फ़ लेखिका तसलीमा के लिए नहीं वरन सभी उन लेखकों के लिए होगी जिनको समाज के ठेकेदारों ने उनकी बात कहने से रोका है.
'बधाई'
सजीव जी बिल्कुल नये अन्दाज़ में........आपके ये तेवर पसन्द आये।
हथकडियाँ दो चाहे फांसी पर चढ्वा दो,
जुल्म के हर वार पर, जोरे-कलम बुलंद हैं,
पीकर के जहर भी, सूली पर मरकर भी,
जिंदा है सच यानी, झूठ के भाले कुंद हैं,
्वाह-वाह सजीव जी! क्या बात कही है!!
पहरे हैं ज़ुबानों पर, लफ्ज़ नज़रबंद हैं,
आज़ाद बयानों पर लगे, फतवों के पैबंद हैं,
॥क्यों हम मानलें उन बने बनाये फ़तवों को?
॥यही तो हममें और उनमें एक द्वन्द है॥
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